दुर्खीम के श्रम सम्बन्धी सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।

दुर्खीम के श्रम सम्बन्धी सिद्धान्त – दुर्खीम की अपनी प्रथम पुस्तक “डिवीजन आफ लेबर इन सोसाइटी” है जो 1893 में फ्रेंच भाषा में प्रकाशित हुई। 1933 में इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया गया। दुखींम की पुस्तक में सामान्य जीवन के तथ्यों का वैज्ञानिक विधि द्वारा विश्लेषण करने का प्रथम प्रयास था। दुर्खीम ने श्रम विभाजन को एक सामाजिक तथ्य के रूप में देखते हुए इसके प्रमुख सामाजिक परिणाम समाज में एकता बनाए रखने पर बल दिया है। दुखॉम ने श्रम विभाजन पर पुस्तक के आरम्भ में ही स्पष्ट कर दिया है कि मैं विकासवादी विचारधारा का खण्डन नहीं करता अपितु इस बात पर भी बल देता हूँ कि समाजशास्त्र का उद्देश्य समाज का सुधार नही बल्कि नैतिकता को वैज्ञानिक आधार पर स्पष्ट करना है।

(1) श्रम विभाजन का अर्थ

श्रम विभाजन की उत्पत्ति आधुनिक नहीं है परन्तु 19वीं शताब्दी के अन्त में इसे सामाजिक दृष्टि से देखने का सिद्धान्त शुरू हुआ। अब समाज के सभी देशों में इसका स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। परिणामस्वरूप आज राजनैतिक, प्रशासनिक, न्यायिक कार्य अधिकाधिक विशेषीकृत होते जा रहे हैं।

श्रम विभाजन का तात्पर्य भूमिकाओं के वितरण से है। श्रम विभाजन बढ़ने के साथ-साथ भूमिकाओं में विशेषीकरण आता गया। दुखम का कहना है कि श्रम विभाजनका तात्पर्य भूमिकाओं में से है। प्राचीन काल के समाजों में श्रम विभाजन नहीं के बराबर था स्त्री पुरुष दोनों में लिंग के आधार पर थोड़ा भेद पाया जाता था। प्राचीन समाजों में सामाजिक एकता का आधार समानता था। परन्तु जैसे-जैसे समाज में जटिलता आती गयी समाज परम्परा से आधुनिकता की ओर बढ़ता चला गया तथा समाज में कार्यों का वितरण होता चला गया। इस वितरण व्यवस्था से कार्यों में विशेषकरण बढ़ने लगा और इसके कारण एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पर ज्यादा आश्रित रहने लगा। अतः इसलिए आधुनिक समाजों में सामाजिक एकता का प्रमुख आधार श्रम विभाजन है। इस प्रकार की एकता के लिए दुखम ने यान्त्रिक एकता सावयवी एकता शब्दों का प्रयोग किया है।

यान्त्रिक एकता प्राचीन समाजों में पायी जाती थी जिस प्रकार यन्त्र से एक समान वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है उसी प्रकार प्राचीन समाज में सभी व्यक्ति एक से होते थे (भूमिकाएँ करते थे)। सावयवी एकता का अभिप्राय श्रम विभाजन अर्थात् वर्तमान समाज से लगाया जाता है।

(2) श्रम विभाजन के कार्य

दुखम श्रम विभाजन के कार्य से पहले प्रकार्य शब्द को स्पष्ट करना चाहते थे। इसके लिए इन्होंने लक्ष्य (Objective) उद्देश्य (Aim) का प्रयोग न करके प्रकार्य (Function) शब्द का प्रयोग करना उचित समझा है। प्रकार्य शब्द को दो विभिन्न अर्थों में प्रयोग किया है-प्राणमय गतिविधियों का बोध बिना परिणामों के कराता है। कई बार इसका सम्बन्ध गतिविधियों तथा जीवन की आवश्यकताओं में संबंध के ज्ञान से होता है।

उदाहरण- पाचन क्रिया या श्वास क्रिया से हमारा कोई तात्पर्य नहीं रहता। परन्तु दुखम इसे दूसरे तरह से स्पष्ट करते हैं पाचन क्रिया से जो रस निकलते हैं यदि उनसे शरीर की खोई हुयी शक्ति प्राप्त हो जाय तो पाचन क्रिया का प्रकार्य ठीक है और यदि नहीं प्राप्त होती है तो पाचन क्रिया के प्रकार्य में दोष है।

श्रम विभाजन का कार्य सभ्यता निर्माण करना नहीं है अपितु इसका कार्य समूहों अथवा व्यक्तियों को एक सूत्र में बाँधना तथा समाज में एकता लाना है और यह एकता श्रम विभाजन के बिना नहीं आ सकती है।

(3) श्रम विभाजन के कारण तथा दशाएँ

दुखॉम का कहना है कि श्रम विभाजन का कारण समाज में नैतिक घनत्व में वृद्धि होना है जिसका सूचक भौतिक घनत्व है। समयानुसार खण्डनात्मक प्रकार की संरचना का लोप होना शुरू हो जाता है और सामाजिक आयतन में वृद्धि होनी शुरू हो जाती है। इस प्रकार समाज के आयतन और घनत्त्व में वृद्धि द्वारा भौतिक घनत्व पटता है जिसके द्वारा यान्त्रिक रूप से श्रम विभाजन की प्रगति निर्धारित होती है तथा अस्तित्व के लिए संघर्ष शुरू हो जाता है जिसके कारण मांग बढ़ने और विशेषीकरण बढ़ने लगता है। दुख का कहना है कि श्रम विभाजन और विशेषीकरण तभी विकसित हो सकती है जबकि व्यक्तिगत भित्रताएँ बढ़ जाती हैं। दुखम श्रम विभाजन का कारण सामाजिक पर्यावरण तथा सामाजिक घटनाओं के सन्दर्भ में देखते हैं तथा श्रम विभाजन की दशाएँ सामाजिक संबंधों में देखते हैं। समाज के आयतन तथा घनत्व में वृद्धि के कारण व्यक्तियों में भी परिवर्तन आते रहते हैं तथा वे स्वतंत्र हो जाते हैं एवं सामूहिक व्यक्तित्व से अपना संबंध तो लेते हैं। परिणामस्वरूप विशेषीकरण बढ़ने लगता है तथा इससे श्रम विभाजन में वृद्धि रती है।

(4) श्रम विभाजन के असामान्य रूप

दुखींम का कहना है कि श्रम विभाजन के सामान्य प्रारूपों के विपरीत असामान्य प्रारूप होते हैं अर्थात् जो श्रम विभाजन में अपनी सामान्य भूमिकाएँ नहीं निभाकर बाधा उत्पन्न करते हैं। दुखॉम ने तीन असामान्य श्रम प्रारूपों का वर्णन किया है-

(i) विशृंखल श्रम विभाजन

इसमें समाज को विभिन्न इकाईयों में सामंजस्य समाप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति को विशृंखल श्रम विभाजन की अवस्था कहा जाता है। अनेक क्षेत्रों में विशृंखल श्रम विभाजन स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। प्रमुख रूप से औद्योगिक क्षेत्रों, आर्थिक क्षेत्रों, ज्ञान विज्ञान तथा मानसिक क्षेत्रों में भी व्याधिकीय अथवा विशृंखलता की अवस्था देखी जा सकती है।

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(ii) आरोपित श्रम विभाजन

आरोपित श्रम विभाजन का उदाहरण वर्ग संघर्ष है तथा इसकी उत्पत्ति व्यक्ति की उसके प्रकार्य से समन्वय न होने की दशा द्वारा होती है क्योंकि प्रकार्य व्यक्ति पर थोपा गया होता है। आरोपित श्रम विभाजन से व्यक्ति की योग्यता तथा कार्यों में सामंजस्य नहीं होता है। श्रम विभाजन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसको हम व्यक्ति पर न तो थोप सकते हैं और न ही पूर्ण स्वतंत्रता दे सकते हैं।

(iii) एक अन्य असामान्य प्रारूप

दुखम ने एक अन्य असामान्य प्रारूप का भी उल्लेख किया है जिसका कोई नाम नहीं किया है। जब कर्त्ता की भूमिका अपर्याप्त होती है तो सामाजिक एकता नहीं आती और एकता के लिए आवश्यक है कि कर्ता अपनी भूमिका पर्याप्त समय में निभाता रहे वरना संबंधों में शिथिलता आ जाती है।

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