दुर्खीम का धर्म पर विचार – दुर्खीम ने धर्म के स्वरूप एवं प्रकृति की उन सभी परिभाषाओं का खण्डन किया है जिसमें यह बताया गया है कि ईश्वर या आलौकिक शक्ति में विश्वास ही धर्म है। दुखों का मानना है कि आलौकिक शक्ति का विचार धर्म के इतिहास में बाद की घटना है। ईश्वरीय या दैवीय शक्ति की धारणा धर्म का अनिवार्य अंग नहीं है। कुछ धर्म ऐसे हैं जिसमें आत्माओं और परमात्माओं के विचार बिल्कुल नहीं पाये जाते हैं जैसे-बौद्ध धर्म अन्यथा इन विचारों की सीमित भूमिका होती है। अतः धर्म की परिभाषा आलौकिक और ईश्वरीय शक्ति के आधार पर नहीं दिया जा
सकता है। बल्कि इसके लिए पवित्र और अपवित्र में अन्तर करना अनिवार्य हो जाता है। संसार की समस्त वस्तुओं एवं घटनाओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। दुखों के अनुसार कुछ वस्तुएँ ऐसी है जो हमारे दैनिक जीवन को घेरे में रखने वाली वस्तुओं से अधिक सम्मानित तथा शक्ति से सम्बन्धित है यही वस्तुएँ धर्म के तत्व कहीं जा सकती हैं। प्रत्येक समाज में कुछ पवित्र वस्तुएँ होती है एवं प्रत्येक सदस्य यह जानता है कि वह कौन सी वस्तुएँ हैं तथा इनसे कैसा व्यवहार किया जाना है और इसी आधार पर दुम ने धर्म की परिभाषा इस प्रकार दी है-“एक धर्म पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित विश्वास एवं क्रियाओं की एक संकल्पित व्यवस्था है- ये हैं पृथक रखी जानेवाली एवं निषिद्ध वस्तुएँ, विश्वास एवं क्रियाएँ जो नैतिक समुदाय के अन्दर संगठित है एक चर्च कहलाती है जिसमें सभी भावना रखते हैं।” दुखम का मानना है कि धर्म प्रमुख रूप से एक सामूहिक वस्तु है।
दुखम टायलर द्वारा प्रतिपादित आत्मावाद के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते वह कहते हैं कि आदि मानव इतने क्रमबद्ध तरीके से आत्मा में भेद या अन्य बातों को नहीं समझा सकता है। इसके साथ ही मैक्समूलर द्वारा प्रतिपादित प्रकृतिवाद के सिद्धान्त को भी नकार दिया है।
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