दुर्खीम द्वारा प्रतिपादित धर्म के सिद्धान्त – दुखींम धर्म को धार्मिक वस्तुओं से सम्बन्धित विचार विश्वास तथा प्रथाओं की प्रणाली माना है जो समाज में नैतिक संगठनों को जन्म देता है। इसे स्पष्ट करते हुए दुखींम ने लिखा है धर्म पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित विश्वासों और क्रियाओं की एकीकृत प्रणाली है। पवित्र और अपवित्र धर्म के आधार पर दुखम ने जीवन को दो भागों में विभाजित किया है-
(1) पवित्र
पवित्र वस्तुएँ सामूहिक चेतना का प्रतिनिधित्व करती है। इस कारण व्यक्ति – इनसे प्रभावित होता है और इसके अधीन रहता है। पवित्र वस्तुओं के साथ मनुष्यों के सम्पर्क को विशेष प्रतिष्ठा तथा विशेष दृष्टिकोण के रूप में लिया गया है। पवित्र वस्तुओं को मनुष्य उपयोगितावादी दृष्टिकोण से नहीं देखता है। इन गुणों के कारण पवित्र वस्तुओं को अपवित्र वस्तुओं से पृथक किया जाता है।
(2) अपवित्र
इसके विपरीत अपवित्र वस्तुएँ मे है जिनके ऊपर आर्थिक दृष्टि से विचार करते हैं। दूसरे शब्दों में, आर्थिक क्रियाओं को अपवित्र वस्तुओं के अन्तर्गत शामिल किया जा सकता है। पवित्र वस्तुओं की व्याख्या आर्थिक सम्बन्धों के रूप में नहीं की जा सकती इसके लिए अनेक निषेध या बन्धन है। इन्हीं पवित्र वस्तुओं के साथ धर्म का सम्बन्ध है।
धर्म के पक्ष
धर्म को दो पक्षों में विभाजित किया जा सकता है- विश्वास और संस्कार
(1) विश्वास
विश्वास का तात्पर्य विचार के रूप से है और संस्कार की क्रिया से इन दोनों को एक दूसरे अलग नही कर सकते। धर्म को समझने के लिए दोनों का जानना आवश्यक है इस आधार पर जब धर्म की व्याख्या की जाती है तो धार्मिक विश्वासों को स्पष्ट करना अनिवार्य हो जाता है। दुर्खीम के अनुसार धार्मिक विश्वासों का तात्पर्य उन विश्वासों से है जो पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित है।
(2) संस्कार
संस्कार पवित्र वस्तुओं के सम्बन्ध में की गयी क्रियायें है। इस दृष्टि से धर्म विश्वास तथा क्रियाओं की वह व्यवस्थित प्रणाली है जो पवित्र से सम्बन्धित है।
धर्म की उत्पत्ति
धार्मिक दृष्टि से वस्तुओं तथा धार्मिक पहलुओं के विभाजन के आधार पर दुर्खीम ने धर्म के सम्बन्ध में जीववादी, तथा स्वभाववादी सिद्धान्तों का खण्डन किया है। दुखम का मत है वे सिद्धान्त पवित्र व्याख्या करते हैं जिनका वास्तविक जगत से कोई सम्बन्ध नही है। दुर्खीम, मैक्समूलर, टायलर ने धर्म सम्बन्धी व्याख्याओं को अस्वीकार करते हुए बताया है कि धर्म का वास्तविक आधार समाज है। यह समाज के एकता या मतैक्य को प्रोत्साहित करती है। समाज अपने सामूहिक आदर्शों को धर्म के द्वारा व्यक्त करता है। धर्म का समाजशास्त्र सामूहिक चेतना को प्रकट करता है। दुखम ने कहा है कि मनुष्य सदा आदर्श समाज का इच्छुक रहा है जो धर्म के द्वारा स्थापित किया जा सकता है।
इस प्रकार धर्म की व्याख्या को स्पष्ट करने के लिए दुखम ने आस्ट्रेलिया की अरुण्टा लोगों की टोटमी रीतियों का विश्लेषण किया है। यह आरम्भिक युग का समाज है। इसके क्रियाकलाप धर्म के भौतिक रूप को करते हैं।
टोटमवाद की व्याख्या
टोटमवाद एक ऐसी प्रणाली है जिसमें कोई जनजाति किसी भौतिक वस्तु जैसे पशु, पक्षी, पौधों के नाम को ग्रहण कर अपने को उनका वंशज बतलाती है। और उस वस्तु के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करती हैं। यह एक प्रकार से पवित्र शक्ति का विश्वास है। टोटम के प्रति लोगों में विश्वास तथा भय की भावना होती है। अरुण्टा जनजाति का जीवन दो पक्षों में विभाजित है-
- लौकिक पक्ष,
- धार्मिक पक्ष।
(1) लौकिक पक्ष
लौकिक पक्ष में गोत्र छोटे-छोटे लौकिक समूहों में विभक्त है जिसमें व्यक्ति अपने आर्थिक लाभों को प्राप्त करते हैं। दूसरे शब्दों में जीविकोपार्जन करते है। इसमें उनका जीवन निरुत्साहित रहता है।
(2) धार्मिक पक्ष
इसके विपरीत धार्मिक पक्ष में गोत्र के सभी सदस्य एकत्रित होते हैं। उनके अन्दर सामूहिक आनन्द की उत्पत्ति होती है और व्यक्ति असाधारण रूप से शोषित हो जाते हैं। इनका व्यवहार असाधारण हो जाता है। ऐसे अवसरों पर प्रायः धार्मिक विचार उत्पन्न होते है। इस प्रकार यह उत्तेजित असामान्य जीवन ही पवित्र पक्ष है।
धर्म के सम्बन्ध में मार्क्स एवं वेबर के विचारों की तुलना
धर्म के सम्बन्ध में मार्क्स एवं वेबर के विचारों की तुलना करते हुए कहा जाता है कि मार्क्सवादियों के लिए प्रोटेस्टेण्ट धर्म पूँजीवाद के विकास की उपोत्पाद है। आधुनिक औद्योगिक पूँजीवाद तथा प्रोटेस्टेण्ट धर्म के विकास के अपने विश्लेषण तथा उसके पारस्परिक सम्बन्धों के अपने अध्ययन में वेबर बिल्कुल विपरीत निष्कर्ष पर पहुंचे। अर्थात् मार्क्सवादी विचारधारा के अनुसार पूँजीवाद के विकास के कारण ही प्रोटेस्टेण्ट धर्म का विकास सम्भव हुआ, अर्थात् प्रोटेस्टेण्ट धर्म को विकसित करने का श्रेय पूँजीवादी अर्थ व्यवस्था को ही है।
जबकि वेबर के अनुसार पूँजीवाद के विकास में प्रोटेस्टेण्ट धर्म का अपना योगदान है और जिस रूप में आज हम पूँजीवाद के विकसित रूप को पाते हैं वह प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आर्थिक विचारों के बिना सम्भव न था। अतः वेबर प्रोटेस्टेण्ट धर्म को पूँजीवाद के विकास का कारण मानते हैं।
जबकि मार्क्सवादी विचारधारा के अनुसार प्रोटेस्टेण्ट धर्म पूँजीवाद के विकास का परिणाम है। मार्क्स का यह कथन कि मानवजीवन विश्वास आदि पर औद्योगिक परिस्थिति, जनसंख्या है की वृद्धि आदि कारकों का प्रभाव अवश्य पड़ता है किन्तु इसको निर्णायक कारक के रूप में स्वीकार करना उचित न होगा। मनुष्य के लिए प्रथम समस्या धर्म का विकास या दर्शन का विस्तार करना नहीं बल्कि उन साधनों को ढूढ़ने की होती है जिनके द्वारा उनकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति और एतद् द्वारा उसका शारीरिक अस्तित्त्व सम्भव हो सके। मनुष्य पहले जीवित रहेगा तब कही जाकर इतिहास का समाज, दर्शन, धर्म, आचार, आदि का निर्माण कर सकेगा। अतः प्रथम विषय जीवन है फिर कही धर्म आदि का प्रश्न आता है। जीने के लिए मनुष्य को भौतिक वस्तुओं की आवश्यकता होती है और उस आवश्यकता पूर्ति हेतु उसे उत्पादन करने की आवश्यकता होती है उत्पादन कार्य के लिए उत्पादन के साधनों की जरूरत होती है एव उत्पादन के सिलसिले में अन्य व्यक्तियों के साथ उत्पादन सम्बन्ध स्थापित करना पड़ता है।
इन सम्बन्धों का निर्धारण उत्पादन के साधनों के अनुरूप होगा। जब हल-बैल था तो किसान और जमींदार के बीच एक निश्चित प्रकार का सम्बन्ध पाया जाता था। पर जब मशीन उत्पादन का साधन है तो सम्बन्ध बदलकर पूँजीपति और श्रमिक के बीच पाए जाने वाले सम्बन्ध बने। उत्पादन के इस सम्बन्धों के सम्पूर्ण योग से ही समाज की आर्थिक संरचना का निर्माण होता है जो कि वास्तविक नींव है और जिसके अनुसार मानव जीवन के अन्य पक्षों का निर्धारण होता है। इस प्रकार धर्म कारण या आधार नहीं बल्कि आर्थिक व्यवस्था का परिणाम होता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में विकसित होने वाला धर्म प्रोटेस्टेण्ट धर्म का आधार या कारण भी आधुनिक आर्थिक व्यवस्था अर्थात् पूँजीवाद है। पूँजीवाद का विकास कारण है और प्रोटेस्टेण्ट धर्म उसका परिणाम है।
सहयोगी सामाजिक प्रक्रिया पर टिप्पणी लिखिए।
इसके विपरीत वेबर का यह मत है कि प्रोटेस्टेण्ट धर्म में ऐसे अनेक आर्थिक आधारों का समावेश है कि पर्याप्त प्रभाव पूँजीवाद के विकास पर पड़ा। पूँजीवाद का सर्वोत्तम विकास प्रोटेस्टेस्ट देशों में ही हुआ है। इस रूप में वेबर के अनुसार सामाजिक जीवन तथा आर्थिक संगठन में धर्म का अपना महत्त्व है जिसे की अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। इसके विपरीत मार्क्स का मत है कि धर्म जनता में अफीम का काम करता है। धर्म प्रगति के पथ पर रोड़ा है धर्म गरीबों को कर्म फल, भाग्य, स्वर्ग, नरक, आदि में विश्वास करने की प्रेरणा देता है और सांसारिक कहों के प्रति उदासीन बना देता है और इसलिए प्रगति के लिए उन्हें आवश्यक प्रेरणा नहीं देता है।