दिल्ली सुल्तानों की मंगोल नीति पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिए।

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दिल्ली सुल्तानों की मंगोल नीति – मध्यकाल में भारत में शासन कर रहे तुर्क सुल्तानों को मंगोलों के आक्रमण का सामना करना पड़ा। मध्य युग में जब आवागमन के आधुनिक वैज्ञानिक साधन नहीं थे, भारत पर केवल पश्चिमोत्तर सीमा से ही आक्रमण किया जा सकता था। पूर्वी हिमालय व आसाम की पहाड़ियों से होकर भी वाह्य आक्रमणकारियों को मार्ग मिल सकता था किंतु उस काल में आक्रमणकारी सेना के लिए उन्हें पार करना असंभव था। यही कारण था कि प्राचीन तथा मध्य युग में आक्रमणकारियों ने भारत में उत्तर-पश्चिम की ओर से ही प्रवेश किया। इसलिए इस सीमा की रक्षा करना सदैव ही हमारे शासकों की नीति रही है। इस सीमा पर खोखर जैसी यद्धप्रिय लड़ाकू जाति निवासकरती थी जो सदैव मध्य पंजाब में लूटमार किया करते थे। किंतु दिल्ली सल्तनत के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्या मंगोल आक्रमण के रूप में सामने आयी।

(1) इल्तुतमिश और मंगोल

मंगोल आक्रमण का सर्वप्रथम भय इलवी वंश के संस्थापक इल्तुतमिश के शासनकाल में उपस्थित हुआ। 1220 ई. तक अपने महान नेता चंगेज खां के नेतृत्व में मंगोलों ने खारिज्म के साम्राज्य को पूर्ण रूप से नाश कर दिया और उसके शासक अलाउद्दीन मोहम्मद को कैस्थिपन सागर की ओर खदेड़ दिया जहां शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो गई। अलाउद्दीन का उत्तराधिकार जलालुद्दीन मंगबरनी भी भारत की ओर भाग आया। जलालउद्दीन ने इल्तुतमिश के पास अपना दूत भेजकर मंगोलों के विरुद्ध सहायता की याचना की। उसकी राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए धार्मिक भावनाओं को उभारने का प्रयास किया। इल्तुतमिश यह जानता था कि जलाल को शरण देना मंगोलों को चुनौती देना है, दूसरी तरफ एक राजकुमार को सीधे मना कर देना भी अशोभनीय था।

इल्तुतमिश ने इस समस्या को कूटनीतिक ढंग से सुलझाया। उसने जलाल के दूत का तो वध करवा दिया ताकि वह वास्तविक स्थिति का वर्णन न कर सके, दूसरी ओर जलाल के पास यह कहला दिया कि यहां की जलवायु उसके अनुकूल न होगी। उधर मंगोल भी भारत की भीषण गर्मी से घबड़ाकर सिंघ की ओर पश्चिम चले गये। चंगेज खां तीन महीने तक नदी के किनारे ठहरा, किंतु यह भाग्य की बात थी कि उसने उसे पार करके भगोड़े राजकुमार का पीछा नहीं किया और न ही दिल्ली सल्तनत की स्वाधीनता का उल्लंघन किया यदि उसने ऐसा करने का विचार किया होता तो मध्य एशिया के पुराने मुस्लिम राज्यों की भांति नव स्थापित तुर्की सल्तनत भी मंगोलों के एक ही प्रहार से चकनाचूर हो गई होती।

(2) रजिया और मंगोल

मंगोल की अगली समस्य रजिया के काल में (1236- 1240 ई.) उत्पन्ना हुई। मंगोल अब उत्तरी सिंध में घुस आये। इससे बनियन में हसन कालुंग की स्थिति डांवाडोल होने लगी। उसने मंगोलों के विरुद्ध दिल्ली से एक समझौता भी करने का प्रयत्न किया किंतु रजिया ने इल्तुतमिश की पश्चिमोत्तर सीमानीति अख्यियार करते हुये ऐसे किसी समझौते से मना कर दिया। रजिया की मित्रतापूर्ण तटस्थता की नीति के कारण मंगोलों ने दिल्ली सल्तनता की सीमाओं का अतिक्रमण करना उचित नहीं समझा।

किन्तु रजिया के पतन के साथ ही सल्तनत और मंगोलों के मध्य समझौते का भी अंत हो गया। 1241 ई. में मंगोलों ने ताइर के नेतृत्व में लाहौर को घेर लिया, नगर तथा दुर्गा को लूटा। मंगोलों के लौट जाने के बाद केवल एक इक्ना पर पुनः अधिकार किया जा सका।

(3) नासिरूद्दीन और मंगोल

नासिरुद्दीन के राज्यारोहण के उपरांत किसी समय मंगोलों ने मध्य पंजाब पर आक्रमण किया किंतु ऐसी प्रतीत होता है कि रावी के उस पार के प्रदेश पर जो कुछ समय से मंगोलों के अधिकार में था पुनः दिल्ली की सत्ता स्थापित करने में उसे सफलता नहीं मिली।

(4) बलवन और मंगोल

बलबन के काल के प्रारम्भिक दिनों में सिंघ तथा मुल्तान के प्रांतों पर दिल्ली का अधिकार पुनः स्थापित हो गया था, किन्तु उत्तर-पश्चिम पंजाब से मंगोलों को नहीं हटाया जा सका। लाहौर को अवश्य उनके चंगुल से मुक्त करके मुल्तान और दीपालपुर के सीमांत प्रदेश में सम्मिलित कर लिया गया। बलवन ने उत्तरी-पश्चिमी समस्या को भूत ही गंभीरता से लिया और उसकी सुरक्षा के कुछ ठोस कदम उठाये-

  1. मंगोल जिन मार्गो से आक्रमण करते थे, उन पर बहुत से मजबूत दुर्गो का निर्माण कराया तथा शक्तिशाली सैनिक छावनियां स्थापित कर दी।
  2. उसने सीमांत के रक्षा का भार अत्यंत योग्य सेनापतियों को सौंपा गया। पहले कुछ वर्षों तक यह नेतृत्व शेरखां को सौंपा गया जिसने अपनी वीरता से मंगोलों के हृदय में अनेक बिठा दिया तत्पश्चात् 1270 ई. में शहजादा मुहम्मद और शहजादा बुगराखा को मुल्तान और समाना प्रांतों का हकीम नियुक्त किया गया क्योंकि ये दोनों ही प्रांत मंगोल आक्रमण के प्रमुख लक्ष्य थे।
  3. सीमा प्रांत के पुराने किलों की मरम्मत कराई गई और वहा कुशल सैनिक प्रबंध किया गया।
  4. सीमा रक्षा के लिए लगभग 17-18 हजार की एक अलग सेना रखी गई और उसे शस्त्रों से लैस किया गया।
  5. सीमा पर कड़ी दृष्टि रखने के लिए बलवन ने अधिकांशतः राजधानी में रहना शुरू किया और सुदूर क्षेत्रों के राज्य विस्तार की नीति को स्थगित कर दिया।

बलवन ने उपर्युक्त प्रशंसनीय प्रबंध के कारण सीमाएं इतनी सबल हो गई। यद्यपि बलवन

के राज्य काल में मंगोलों ने अनेक आक्रमण किये किंतु आगे बढ़ने में उन्हें सफलता नहीं मिली। 1279 ई. में मंगोलों ने अपना आक्रमण पुनः प्रारंभ किया और सुनम तक के प्रदेशों को रदि डाला किन्तु शीघ्र ही इसे दोनों राजकुमारों ने विफल कर दिया। 1285 ई. में मूरखां के नेतृत्व में उन्होंने पुनः लाहौर और विपालपुर पर हमला किया। इसमें शाहजादा मुहम्मद उनका मुकाबला करता हुआ मारा गया। इस भयंकर विपत्ति के बावजूद बलवन का प्रबंध इतना सफल हुआ कि मंगोल और आगे न बढ़ सके और उन्हें पीछे लौटना पड़ा।

(5) अलाउद्दीन और मंगोल

अलाउद्दीन के राज्यारोहण के कुछ समय बाद से 1308 ई. तक मंगोलों के एक के बाद एक कई आक्रमण होते रहे। मंगोलों का प्रथम आक्रमण 1296 ई. में हुआ। इसका नेतृत्व कादर खां ने किया था किंतु उलूग खां और जफर खां ने जालंधर के निकट इस आक्रमण को विफल कर दिया। द्वितीय आक्रमण 1296 ई. में सल्दी के नेतृत्व में हुआ। इस बार मंगोलों ने सिविस्तान पर अधिकार कर लिया किंतु जफर खां ने इस बार भी उन्हें पराजित किया 1299 के समाप्त होते-होते कुतलग खां वाजा के नेतृत्व में मंगोलों का तृतीय हुआ। इस बार मंगोल जो लगभग 2 लाख आक्रमणकारियों के साथ आये थे दिल्ली को घेर लिए। संकट इतना गंभीर था कि कोतवाल अलाउल-मुल्क ने सुल्तान को उन पर आक्रमण कर अपना सर्वस्व संकट में न डालने की सलाह दी, लेकिन सुल्तान ने मंगोलो पर आक्रमण करने का हुक्म दिया। जफर खां ने धावे का संचालन किया और मंगोलो को परास्त किया किन्तु वह स्वयं घिर गया और मारा गया। फिर भी जफर खां की वीरता से प्रभावित मंगोल पीछे लौट गये।

अलाउद्दीन की मंगोल नीति का समीक्षा कीजिए।

तृतीय आक्रमण की पराजय के बाद मंगोल, सल्तनत पर आक्रमण की नीति को तीन वर्ष तक टालते रहे किंतु जब मंगोल को ज्ञात हुआ कि तेलांगना में अलाउद्दीन पराजित हो गया है। तथा राजस्थान में बुरी तरह व्यस्त है तो 1303 ई. में तार्गी के नेतृत्व में उन्होंने पुनः आक्रमण कर दिया। लगभग एक लाख 20 हजार घुड़सवार विद्युत गति से बढ़कर दिल्ली आ पहुंचे। परंतु वे पराजित हुए और उन्हें वापस लौटना पड़ा। सन् 1304-05 में मंगोलो ने पुनः आक्रमण किया। लेकिन उन्हें मुंह की खानी पड़ी। 1305-06 में मंगोलों के दो आक्रमण हुए लेकिन अलाउद्दीन ने उन्हें बर्बरता पूर्वक कुचल दिया।

( 6 ) तुगलक काल में मंगोल

तुगलक काल में सम्भवता मंगोलों ने भारत पर आक्रमण नहीं किया। इसके दो कारण बनाये जाते है-प्रथम- 14वीं शताब्दी में मंगोलों की शक्ति बहुत कमजोर हो चुकी थी और तैमूर के विशाल साम्राज्य ने उनकी रही सही शक्ति का भी अन्त कर दिया था। द्वितीय-इस समय तक अनेक मंगोल नेता मध्य एशिया में इस्लाम धर्म अपनाकर मुसलमान हो चुके थे। इस्लाम धर्म के प्रभाव से उनमें सभ्य जीवन का उदय हुआ और बर्बरता का अन्त हुआ। इस प्रकार भारत व अन्य देशों को मंगोलों के आतंक से मुक्ति मिली।

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