दिल्ली सल्तनत काल में उलेमा वर्ग के प्रभाव सल्तनत काल (1206 से 1526 ई.) में उलेमाओं अर्थात इस्लामी विद्वानों का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान था। वे उमरा वर्ग के बाद शासन में सबसे सम्मानित और उच्च माने जाते थे। सुल्तान भी उलेमा वर्ग का सम्मान करता था। उलेमा वर्ग का समाज में भी बहुत सम्मान था। ये लोग सीधे सादे जीवन विद्वता एवं ज्ञान के लिए सुप्रसिद्ध थे। इसी कारण सम्पूर्ण मुसलमान समाज पर उनका अत्यधिक प्रभाव था। सल्तनत काल में उलेमा तथा सुल्तान के मध्य गहन संबंध था।
सल्तनत कालीन न्याय व्यवस्था उन्हीं के हाथों में थी। सुल्तान उलेमाओं का प्रयोग शरियत के नियमों की व्याख्या करवाने के लिए करते थे। विशेषकर ऐसे विषयों में जो कि राज्य के विरुद्ध थे परंतु जहाँ शरियत से समस्या का समाधान नहीं होता था यहाँ सुल्तान अपने नियम जो कि जवाबित कहलाते थे, बनाते थे। इससे उलेमाओं का महत्व कम नहीं होता था। पवित्र शरियत की व्याख्या करने वाला उलेमाओं का मुसलमान समाज में उच्च स्थान होना स्वाभाविक था। यह उलेमा दो श्रेणियों में विभाजित थे। उलेमा-ए-अखिरत व उलेमा-ए-दुनिया। प्रथम में सूफी संत पीर व फकीर थे, जो कि अपना समय प्रार्थना, चिन्तन, मनन, उपदेश देने में व्यतीत करते थे। उलमा-ए-दुनिया सांसारिक लाभ उठाने में लगे रहते थे उनकी प्रमुख महत्वाकांक्षा न्याय विभाग में उच्च पद प्राप्त करने, शेख-उल-इस्लाम बनने की थी।
सुल्तानों से सम्बंध
दिल्ली सल्तनत काल में उलेमा और सुल्तानों के सम्बंध बनते-बिगड़ते रहे हैं। जहाँ अनेक सुल्तानों में उलेमाओं का अत्यधिक सम्मान किया और उनके परामर्श को सर्वोपरि रखा वहीं अलाउद्दीन और मुहम्मद तुलगक ने उलेमाओं को राजनीति से अलग रखा। उलेमाओं का सल्तनत कालीन विभिन्न वंशों के साथ सम्बंधों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-
गुलाम वंश और उलेमा
इल्तुतमिश उलेमाओं का बहुत सम्मान करता था और उनके परामर्श को मानने का पूरा प्रयास किया करता था लेकिन जब उलेमाओं की राय उसे व्यवहारिक नहीं लगती थीं तो वह उसे स्वीकार नहीं करता था। सल्तनत काल के प्रारम्भिक वर्षों में जब उलेमा वर्ग ने गैर मुस्लिम को इस्लाम अथवा मृत्यु का विकल्प दिये जाने की बात सुल्तान के सम्मुख रखी तो इल्तुतमिश के वजीर निजाम-उल-मुल्क से इस प्रस्ताव का विरोध किया अतः इल्तुतमिश ने विनम्रता से उलेमाओं के प्रस्ताव को नकार दिया। उलेमाओं की विचारधारा की जानकारी हमें नूरउद्दीन मुबारक और इल्तुतमिश के बीच हुयी बातचीत से पता चलती है। जिसमें शेख नूरउद्दीन ने इल्तुतमिश को परामर्श दिया कि (1) सभी बुतपरस्तों को समाप्त कर दिया जाये या शक्तिहीन बना दिया जाए। (2) मुस्लिम जनता को गलत आचरण से रोका जाए। (3) सुल्तान को शरियत का पालन व उसकी व्याख्या कराने का कार्य उन पवित्र लोगों को सौंपना चाहिए जो कि ईश्वर से भय रखते हों, शुद्ध जीवन व्यतीत करते हो तथा जिनकी सांसारिक इच्छाएँ न हो। उसे धार्मिक वेत्ताओं की तुलना में दार्शनिकों को अपने विचार प्रसारित करने की स्वतंत्रता नहीं देना चाहिए। (4) सुल्तान को सदैव प्रजा के साथ न्याय करना चाहिए। इन्हीं सिद्धांतों को विस्तारपूर्वक जियाउद्दीन बरनी ने फतवा-ए-जहाँदारी में प्रतिपादित किया है। बरनी यह स्वीकार करता है कि दिल्ली के किसी भी सुल्तान ने उपरोक्त किसी बात का अनुसरण नहीं किया क्योंकि जब बलबन गद्दी पर बैठा तो उसने उलेमाओं को विशेषकर उलेमा-ए-अखिरत को प्रश्रय दिया। उसने मौलाना बुरहान-उल-मुल्क बल्खी, काजी, शरीफउद्दीन बलवजी, मौलाना, सिराजुद्दीन सन्जरी, मौलना, शम्सुद्दीन दमिश्की आदि को प्रश्रय दिया प्रत्येक शुक्रवार को नमाज पढ़ने के बाद वह मौलाना बुरहानुद्दीन के पास जाकर उससे राजनीतिक विषयों पर परामर्श लिया करता था। उसने सेना के काजियों को हरमैन की उपाधि प्रदान की। प्रशासन में वह उसकी राय लिया करता था।
खिलजी वंश और उलेमा- जलालउद्दीन खिलजी के गद्दी पर बैठते ही उलेमाओं की स्थिति में सुधार हुआ। किन्तु अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में उलेमाओं की स्थिति असंतोषजनक रही क्योंकि नया सुल्तान उन्हें राजनीति से दूर रखना चाहता था किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि सुल्तान अलाउद्दीन उनसे घृणा करते था। वह बयाना के काजी मुगिसउद्दीन से धार्मिक एवं राजनीति विषयों पर परामर्श लिया करता था। परंतु वह शरियत के अनुसार कार्य करने के लिए कभी भी राजी न हुआ। उसने मलिक-उल-तुज्जार मुल्तानी, जो कि उसका निजी सेवक था, को सद-ए-जहाँ के पद पर नियुक्त करके यह दिखाया कि इस उच्च पद पर केवल उलेमाओं का अधिकार नहीं है। अलाउद्दीन खिलजी के उत्तराधिकारी कुतुबुद्दीन मुबारक शाह खिलजी ने उलेमाओं की उपेक्षा की। वह शेख निजामुद्दीन औलिया से घृणा करता था। लेकिन जब खुसरों खाँ गद्दी पर बैठा तो उसने सर्वप्रथम उलेमाओं को अपने पक्ष में किया।
तुगलक वंश और उलेमा
सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक के उलेमाओं से संबंध ठीक न थे क्योंकि पूर्व राज्य-काल में जब शरियत के विरुद्ध खुसरों खाँ ने कुतुबुद्दीन मुबारक शाह की विधवा पत्नियों से विवाह किया तो उन्होंने कोई भी आपत्ति नहीं उठाई थी। दूसरे शेख निजामुद्दीन औलिया ने खुसरो खाँ से कई लाख टंके भेंट में स्वीकार कर लिए थे। गद्दी पर बैठने के बाद गयासुद्दीन तुगलक ने उनसे यह धन वापस लेने का प्रयास किया, परंतु उसे सफलता नहीं मिली। तत्पश्चात् काजी जलालुद्दीन बलबलजी तथा शेखाजावा हुसामुद्दीन ने शेख निजामुद्दीन औलिया से बदला लेने के लिए सुल्तान को उकसाया क्योंकि शरियत के नियमों के विरुद्ध शेख निजामुद्दीन औलिया के खानकाह पर सभा आयोजित होती थी। अतः इस पर अन्य उल्माओं का फैसला जानने के लिए उसने महजर बुलाया। महजर में सुल्तान ने उलेमाओं की बातें सुनीं लेकिन निजामुद्दीन औलिया के विरुद्ध कोई निर्णय नहीं लिया। तत्पश्चात् उसने शेख निजामुद्दीन औलिया के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करना बंद कर दिया। यद्यपि सुल्तान के शेख से संबंध अच्छे न थे परंतु उनका पुत्र जूना खाँ उनका मुरीद था। गद्दी पर बैठने के उपरान्त मुहम्मद तुगलक जो कि स्वयं एक महान् विद्वान था, उलेमाओं के मध्य अलोकप्रिय हो गया। मुहम्मद तुगलक प्रशासन में शरियत के नियमों को लागू करने के विरुद्ध था।
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वह समान लोगों की भाँति उलेमाओं से व्यवहार करता था। इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह उलेमाओं से घृण करता था। उसने अनेक उलेमाओं को प्रश्रय दे रखा था, जैसे कि शेख रूकुनुद्दीन, शेख जियाउद्दीन बरनी इत्यादि। सुल्तान ने उनमें से अनेक को राजकीय पदों पर नियुक्त किया। उसके उत्तराधिकारी फिरोजशाह तुगलक का स्वभाव उससे बिल्कुल ही मित्र था चूँकि उलेमाओं के सहयोग से वह सिंहासन पर बैठा था। अतः वह उनका, सूफी संतों वे फकीरों का आदर करता था। 1375-76 में उलेमाओं के परामर्श पर उसने आदेश दिये कि शरियत के विरुद्ध करों को हटा दिया जाये। फिरोजशाह ने ब्राह्मणों पर जजिया लगाये जाने के संबंध में उलेमाओं से राय ली अभी तक ब्राह्मणों से जजिया नहीं लिया जाता था उलेमाओं ने उन पर भी जजिया लगाने का परामर्श दिया। इस प्रकार उन पर भी जजिया लगा दिया गया। उसने उलेमाओं को अनेक राजकीय पदों पर नियुक्त किया। काजी जलालुद्दीन किरपानी को दार-उल-कजा, खुदाबंद जाद किवामुद्दीन के भतीजे मलिक सैफ-उल-मुल्क को अमीर-ए-शिकार नियुक्त किया। उसने अनेक उलेमाओं को भी सम्मानित किया। उसके शासन काल में उलेमाओं को महत्वपूर्ण स्थान मिला। उलेमा उसके शासन काल में राजनीति को निरंतर प्रभावित करते रहे।
इस प्रकार से सल्तनत काल के लगभग तीन सौ वर्षों में उत्तरी भारत में विभिन्न सुल्तानों के शासन कालों में उलेमाओं की भूमिका समान न रही। सुल्तान फिरोजशाह तुगलक और सुल्तान सिकन्दर लोदी के शासन कालों में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही, परंतु बलवन, अलाउद्दीन खिलजी, मुहम्मद तुगलक आदि सुल्तानों के समय उन्हें राजनीति से पृथक रहना पड़ा। अमीरों की भाँति वे भी शासक करना व उसे धर्म की ओर प्रेरित करना तथा मुसलमानों को धर्मानुसार कार्य करने के लिए प्रेरणा देना था। परंतु अंत में कहना पड़ेगा कि सल्तनत काल में उलेमाओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी।