उत्तर-16वीं सदी के आरम्भ तक मध्यकालीन व्यवस्था और संस्थाएँ बिखर चुकी थीं। सामन्तवाद और उससे जुड़ी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और बौद्धिक मान्यताएं टूट रही थीं, परन्तु धर्म एवं चर्च का प्रभाव ज्यों का त्यों कायम था। मध्यवर्ग और वाणिज्य व्यापार के उदय, राष्ट्रीय राज्य के उत्कर्ष और तर्क पर आधारित ज्ञान के विस्तार के कारण धर्म और चर्च में सुधारवादी परिवर्तन आवश्यक हो गया था। धार्मिक कुरीतियों से जनसाधारण एवं स्वयं पादरियों में भारी असंतोष था। धर्म सुधार आन्दोलन की शुरूआतु धार्मिक नेताओं से ही शुरू हुई। सोही शताब्दी का धर्म सुधार आन्दोलन के कारण दो रंगों में हुआ-(1) प्रोटेस्टेण्ट धर्म सुधार (2) रोमन कैोलिक धर्म सुधार
धर्म सुधार आन्दोलन के कारण
(1) 16वीं सदी के प्रारम्भ तक लोगों को यह समझ में आ चुका था कि रोमन कैथोलिक चर्च ईसा एवं प्रारम्भिक धर्म गुरुओं के उपदेश, उनकी भावना एवं आधार से दूर हट चुका है। इसलिए चर्च को ईसाई धर्म के ईश्वर नियुक्त अभिभावक के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। उन्होंने चर्च को इस ढंग से परिभाषित करना आरंभ किया कि चर्च का अर्थ कोई विशिष्ट संस्था नहीं, बल्कि ईसा मसीह में आस्था रखने वाले समय लोग हैं। इन सुधारकों ने कहा कि ईसाई सिद्धान्तों का एकमात्र प्रामाणिक स्रोत धर्मग्रन्थ है, न कि संगठित चर्च के निर्णय एवं परम्पराएँ। उन्होंने ईसाई धर्म में मनुष्य और ईश्वर के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध पर जोर देना शुरू किया। फलतः पेशेवर पादरी और रोमन कैथोलिक चर्च का महत्व घटने लगा।
(2) धर्म सुधार का दूसरा प्रमुख कारण चर्च के अन्तर्गत व्याप्त बुराइयां थी, जो पन्द्रहवीं एवं सोलहवीं में पैदा हो गयी थीं। पादरियों की आशनता और विलासिता, चर्च के पदों एवं सेवाओं की बिक्री (सिमोनी), सम्बन्धियों के बीच लाभकारी चर्च के पदों का बँटवारा (निपोटिज्म), एक पादरी द्वारा एक से अधिक पद रखे रहना (प्लुरेलिज्म) सभी बढ़ते असंतोष एवं शिकायत के कारण थे।
(3) चर्च शोषित किसानों का असंतोष भी धर्म-सुधार आन्दोलन के कारण था। किसान चर्च के टैक्स से पिसते जा रहे थे। पादरी सामन्त प्रथा और कम्मियों के शोषण का समर्थन करते थे। इसलिए जाग्रत किसान उनसे बिगड़े हुए थे और कभी-कभी विद्रोह भी कर देते थे।
(4) राष्ट्रीय राज्यों का हित चर्च के अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप से मेल नहीं खाता था। राजा चाहते थे कि राष्ट्र के अन्दर रहने वाले सभी व्यक्ति और सारी संस्थाओं की श्रद्धा और भक्ति राष्ट्र को मिले। लेकिन, रोम का पोप देश के चर्च संगठनों का प्रधान था। राजा अब पोप द्वारा पादरियों की नियुक्ति के अधिकार को चुनौती देने लगे। बहुत से मुकदमों का फैसला चर्च की अदालतों में होता था। बहुधा ऐसा होता था कि चर्च के फैसले राजा की कचहरी के फैसले के विपरीत होते थे। फिर राजा और पोप के बीच झगड़ा इसलिए भी था कि पोप का दावा था कि वह प्रत्येक देश के आन्तरिक राष्ट्रीय मामलों में भी दखल दे सकता है। इसलिए चर्च राजा का राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी भी था। इन कारणों से राजा चर्च के प्रभुत्व और उसके प्रधान पोप का विरोधी था। यूरोप में बहुत से ऐसे राजा थे, जो चर्च के सुधार आन्दोलन के समर्थक थे।
सामाजिक संरचना के तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
(5) धर्म सुधार आन्दोलन में आर्थिक कारणों ने भी उल्लेखनीय भूमिका अदा की। उस समय तक पश्चिमी यूरोप के देशों में राष्ट्रीय राज्य कायम हो चुके थे और राजाओं को सेना एवं प्रशासन का खर्च चलाने के लिए अधिक द्रव्य की आवश्यकता थी, परन्तु पादरियों द्वारा वसूल किया कर रोम चला जाता था। पादरी धनी होने के बावजूद कर देने से मुक्त थे। राजा चाहते थे कि राज्य शासन का खर्च चलाने के लिए चर्च पर टैक्स लगाया जाय।
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