धर्म क्या है? हिन्दू धर्म की प्रकृति को स्पष्ट कीजिए।

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धर्म क्या है? – हिन्दू धर्म भारत का सबसे प्राचीन व मौलिक धर्म रहा है। भारतीय समाज में इस धर्म को मानने वाले लोगों की संख्या सबसे अधिक है। हिन्दू धर्म की विशेषता यह है कि इसमें धर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के कर्त्तव्यों, करने योग्य कार्यों और पवित्र जीवन से है। सभी हिन्दू वेदों को अपने सबसे प्राचीन धर्मग्रन्थ के रूप में स्वीकार करते हैं। लेकिन हिन्दुओं के अधिकांश धार्मिक विश्वास और व्यवहार के तरीके वे हैं जिनका वेदों से नहीं बल्कि पुराणों और स्मृतियों में दिये गये। व्यवहार के नियमों से सम्बन्ध है। डॉ. राधाकृष्णन ने लिखा है कि “जिन सिद्धान्तों के अनुसार हम अपना दैनिक जीवन बिताते हैं तथा जिनके द्वारा हम विभिन्न प्रकार के सम्बन्ध स्थापित करते हैं, वही धर्म है।”

हिन्दू संस्कृति में धर्म का अर्थ (Meaning of Dharm in Hindu Culture)

शाब्दिक दृष्टि से धर्म शब्द ‘धृ’ धातु से बना है और इसका अर्थ वह है जो किसी वस्तु को धारण करे या उस वस्तु का अस्तित्व बनाये रखे। भारतीय संस्कृति में धर्म का अर्थ अंग्रेजी शब्द ‘रिलीजन’ के अर्थ से भिन्न है। भागवत में धर्म का वर्णन वृष (बैल) के रूप में मिलता है और पृथ्वी को गाय माना गया है। इस धर्म के चार पैर सत्य, दया, तप, और दान हैं। सतयुग में धर्म इन चारों पैर पर खड़ा था। इसका एक पैर कम होता गया, त्रेता में धर्म तीन पैरों पर, द्वापर में दो पैरों पर और कलियुग में केवल एक पैर (दान) पर खड़ा रह गया। धर्म की यह कल्पना एक रूपक प्रतीत होती है।

ऋग्वेद में धर्म की व्याख्या एक ऐसे तत्व के लिए की गई है जो ‘ऊंचा उठाने वाला’ या ‘पालन-पोषण करने वाला’ है। साथ ही ‘धार्मिक क्रियाओं के नियम’ के अर्थ में हुआ है। छान्दोग्य उपनिषद में धर्म की तीन शाखाओं (स्कन्थों) का उल्लेख किया गया है जिसका सम्बन्ध गृहस्थ, तपस्वी, ब्रह्मचारी के कर्तव्यों से है। जब तैत्तिरीय उपनिषद हमसे धर्म का आचरण करने को कहता है, तब उसका अभिप्राय जीवन के उस सोपान के कर्त्तव्यों के पालन से होता है जिसमें कि वह विद्यमान है। इस अर्थ में धर्म शब्द का प्रयोग भगवद्गीता और मनुस्मृति दोनों में हुआ है।

वैशेषिक दर्शन में कहा गया है ‘यताऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः’ अर्थात् जिससे इस लोक में अभ्युदय (लौकिक उन्नति) और परलोक में परम कल्याण (परालौकिक कल्याण) की प्राप्ति हो, वह धर्म है। मीमांसकों के अनुसार भगवत्-आज्ञा धर्म का लक्षण है अथवा शास्त्र से अनुशासित या स्वीकृत कर्म या आचरण पद्धति ही धर्म है। मनुस्मृति में चार स्रोतों का उल्लेख किया गया है- श्रुति (वेद), स्मृति, सदाचार और जो अपनी आत्मा को प्रिय लगे। वैशेषिक सूत्रों में धर्म की परिभाषा करते हुए कहा गया कि जिससे आनन्द और परमानन्द की प्राप्ति हो वह धर्म है। प्रयोजन के रूप में धर्म को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि यह चारों वर्णों और चारों आश्रमों के सदस्य द्वारा जीवन के चार प्रयोजनों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) के सम्बन्ध में पालन करने में योग्य मनुष्य का समूचा कर्तव्य है।”

इस प्रकार हिन्दू संस्कृति में धर्म का तात्पर्य धारण करने से है, बनाये रखने से है और जिससे सभी बने रहें, सुव्यवस्थित रहें वही धर्म है। यह जीवन का शाश्वत सत्य है। यह व्यक्ति को धार्मिक मर्यादाओं में अर्थ का उपार्जन और काम का उपभोग करते हुए जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति की ओर उसे अग्रसर करता है। हिन्दू समाज में त्याग और भोग का अद्भुत समन्वय पाया जाता है।

हिन्दू धर्म के लक्षण (Characteristics of Hindu Dharma)- हिन्दू धर्म के अपने कुछ विशिष्ट लक्षण हैं, जो निम्न प्रकार हैं

धर्म सुधार आन्दोलन के परिणामों व महत्व का वर्णन कीजिए।

  1. मनु महाराज ने कहा है- ‘वेदोऽखिलों धर्ममूलम्’ 2/6 अर्थात् समस्त वेद अर्थात् ऋर, यजु, साम और अथर्ववेद धर्म का मूल है। इस प्रकार धर्म का प्रथम व आधारभूत लक्षण यह है कि शास्त्रप्रेरित या वेद द्वारा निर्धारित कर्म ही धर्म है।
  2. धर्म का दूसरा लक्षण है– ‘क्रियासाध्यत्वे सति श्रेयस्कर, त्वमिति लौकिकाः’ अर्थात् क्रिया या कर्म द्वारा सिद्ध होकर कल्याणकारी होना धर्म का लक्षण है। यह लौकिक पुरुषों का मत है।
  3. धर्म का तीसरा लक्षण यह है– ‘सत्याज्जायायते, दयया दानेन च वर्धते क्षमाया ‘तिष्ठिति क्रोधात्रश्यति’ अर्थात् धर्म की उत्पत्ति सत्य से होती है, दया और दान से वह बढ़ता है, क्षमा में वह निवास करता है और क्रोध से उसका नाश होता है।
  4. 4. उपनिषद के अनुसार, “धर्म का चौथा लक्षण यह है कि धर्म समस्त विश्व का आधार है क्योंकि इसके द्वारा व्यक्ति के आचरण की वे समस्त बुराइयाँ दूर हो जाती हैं जो विश्व कल्याण के विपरीत हैं।”
  5. कौटिल्य के अनुसार, “धर्म वह शाश्वत सत्य है जो कि सारे संसार पर शासन
  6. धर्म का छठा लक्षण यह है कि, “जो धर्म दूसरे धर्म में बाधा दे, वह धर्म नहीं है, बल्कि ‘कुधर्म’ है। जो धर्म समस्त धर्मों का अविरोधी है, वह यथार्थ धम है जो धर्म के बिल्कुल विपरीत है वह अधर्म कहलाता है।”,
  7. धर्म का सातवाँ लक्षण यह है कि स्वधर्म ही श्रेय है और पराये धर्म का त्याग ही कल्याणकारी है।
  8. धर्म का अन्तिम लक्षण यह है कि

एक एव सुहृद धर्मो निधनेऽयनुयाति यः।

शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यत्तु गच्छतिः ॥

अर्थात् एक धर्म ही ऐसा मित्र है जो मरने पर भी जीव के साथ जाता है और सब तो शरीर के नाश के साथ ही छोड़कर चले जाते हैं।

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