ब्रिटिश शासन के प्रारम्भिक वर्षों में शिक्षा के महत्व को बताइये।

ब्रिटिश शासन के प्रारम्भिक वर्षों में शिक्षा का महत्व

ब्रिटिश शासन के प्रारम्भिक वर्षों में शिक्षा का महत्व – ईस्ट इण्डिया कम्पनी मूलतः एक व्यापारिक कम्पनी थी जो भारत में धन कमाने आई थी न कि शासन करने के लिए। परिस्थितिवश ही यह भारत की शासिका बन बैठी। यूरोपीय व्यापारियों के भारत में व्यापार हेतु आगमन के कुछ समय उपरान्त भी वहाँ की ईसाई मिशनरियों ने भारत में धर्म प्रचार का अभियान प्रारम्भ कर दिया। यद्यपि इन मिशनरियों का प्रमुख उद्देश्य भारत के निवासियों को ईसाई धर्म का अनुयायी बनाना था, फिर भी इन्होंने भारत में पश्चात्य ढंग की शिक्षा को आरम्भ करने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया। वस्तुतः उन्होंने भारतीयों से सम्पर्क स्थापित करने तथा उन्हें अपने धर्म, विचारों व सिद्धान्तों से अवगत कराने के लिये शिक्षा की सहायता ली। इसलिये उन्होंने पाश्चात्य ढंग की शिक्षा प्रदान करने के लिए भारत में अनेक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की पाश्चात्य ढंग की आधुनिक शिक्षा का श्रीगणेश करने के कारण ही ईसाई मिशनरियों को आधुनिक भारतीय शिक्षा का प्रवर्तक माना जाता है।

उस समय भारतवर्ष में मुख्यतः डच, डेन, फ्रांसीसी तथा ब्रिटिश मिशनरियाँ कार्यरत् थीं। डच मिशनरियों (Dutch Missionaries) ने चिनसुरा नागापट्टम तथा विमलीपट्टम में कई विद्यालयों की स्थापना की। डेन मिशनरियों (Dane Missionaries) ने तंजौर, सीरामपुर, त्रिचनापली तथा फोर्ट सेण्ट डेविड में प्राथमिक विद्यालय खोले। फ्रांसीसी मिशनरियों (French Missionaries) ने माही यनाम, कालकल, पांडिचेरी, तथा चन्द्रनगर में प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना की। पुर्तगाली मिशनरियों (Portuguess Missionaries) ने गोवा, दमन, दीव, बेसिन, बीन तथा हुगली में शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की। ब्रिटिश मिशनरियों (British Missionaries) ने मद्रास, बम्बई तथा बंगाल में अनेक स्कूलों की स्थापना की।

सन् 1813 का आज्ञापत्र

1813 ई० में शिक्षा के प्रति कम्पनी के उत्तरायित्वों को निश्चित करने की दिशा में एक निश्चित कदम उठाया गया। उक्त वर्ष में ब्रिटिश राज संसद ने कम्पनी को भारत पर शासन करने सम्बन्धी आज्ञापत्र का नवीनीकरण किया गया तथा अधिनियम (Charter Act of 1813) को धारा 43 में प्राविधान किया गया कि कम्पनी द्वारा प्रतिवर्ष कम से कम एक लाख रुपये भारत के विद्वान निवासियों के उत्साहवर्धन एवं साहित्य के पुनरुत्थान व विकास के लिए तथा ब्रिटिश भारत की सीमाओं के अन्दर निवास करने वालों में विज्ञान सम्बन्धी ज्ञान के प्रारम्भ व प्रवर्धन हेतु पृथक् से व्यय किये जायें।”

“It shall be lawful for the Governor General in Council to directorat……….. sum of not less that one lac.of rupees in each year shall be sent apart and applied to the revival and improvement of literature and the encouragement of the learned natives of India and for the introduction and promotion of a knowledge of the sciences among the inhabitants of the British territories of India.”

1813 ई० के आज्ञापत्र (Charter) के इस प्राविधान का भारतीय शिक्षा के इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। वस्तुतः यह धारा चार्ल्स प्राण्ट तथा बिल्बरफोर्स के द्वारा अनेक वर्षों तक निरन्तर चलाये आन्दोलन की विजयश्री का परिणाम था। इसने भारतीयों की शिक्षा के प्रति ईस्ट इण्डिया कम्पनी के उत्तरदायित्व को निश्चित कर दिया जिसके फलस्वरूप भारतीय शिक्षा को एक नवीन दिशा मिली।

भारतीयों को लगा कि इस धारा के जुड़ जाने के फलस्वरूप उनकी शिक्षा की उचित व्यवस्था हो सकेगी। परन्तु उनकी आशाओं पर तुषारापात हो गया क्योंकि आज्ञापत्र में एक लाख रुपये की धनराशि को व्यय करने का ढंग तथा साहित्य शब्द के अर्थ को स्पष्ट नहीं किया गया था जिसके कारण कम्पनी के संचालकों में विवाद उत्पन्न हो गया। इसके फलस्वरूप 1813 से 1833 की अवधि के दौरान कोई विशेष शैक्षिक प्रगति न हो सकी।

राजाज्ञा अधिनियम की इस धारा ने कम्पनी को भारतीयों की शिक्षा में दिलचस्पी लेने के लिए बाध्य कर दिया। इसलिये राजाज्ञा अधिनियम, 1813 को भारत में ब्रिटिश शिक्षा पद्धति का शिलालेख (Foundation Stone of British Education in India) भी कहा जाता है।

प्राच्यवादी नीति के समर्थक उच्च कोटि के कूटनीतिज्ञ थे। उनका विचार था कि भारतवासियों को विभाजित करके ही उन पर शासन किया जा सकता है। वे अरबी, फारसी, तथा संस्कृत पर आधारित शिक्षा व्यवस्था करके भारतीयों को विभिन्न धर्मो तथा जातियों में विभक्त रखना चाहते थे। इसके अतिरिक्त प्राचीन भारतीय शिक्षा के समर्थकों का कहना था कि भारतीय पाश्चात्य शिक्षा के योग्य नहीं है तथा यदि उन्हें शिक्षा दी गई तो वे अंग्रेजों के समकक्ष हो जायेंगे। प्राच्यवादियों ने भारतीयों को अंग्रेजी माध्यम से पाश्चात्य साहित्य की शिक्षा देने का विरोध करते हुए तीन तर्क प्रस्तुत किये। प्रथम, पाक्षात्य ज्ञान तथा साहित्य के प्रसार से भारत की प्राचीन सभ्यता तथा संस्कृति का लोप हो जायेगा। द्वितीय अंग्रेजी शिक्षा के प्रोत्साहन से सदियों से संचित भारतीय साहित्य नष्ट हो जायेगा तृतीय, किसी भी देश के नागरिकों को अन्य देश की भाषा तथा साहित्य का ज्ञान प्राप्त करने के लिए विवश करना गलत है। इन तकों के आधार पर प्राच्यवादियों ने प्राचीन भारतीय साहित्य, संस्कृति तया शिक्षा प्रणाली को प्रोत्साहित करने के लिए संस्कृत अरबी व फारसी के माध्यम वाली प्राचीन शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए।

1813 के आज्ञापत्र में शिक्षा की प्रकृति, पाठ्यवस्तु या माध्यम के सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं था। दरअसल इस आज्ञा पत्र में जोड़ी गई धारा 43 में ‘साहित्य के पुनरुद्धार व विकास’, ‘भारत के विज्ञान नागरिकों के उत्साहवर्द्धन’ तथा ‘विज्ञान सम्बन्धी ज्ञान के प्रारम्भ व प्रवर्द्धन, जैसे शब्दों का अर्थ तथा इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के ढंग को स्पष्ट नहीं किया गया था। धारा 43 की इस अस्पष्टता ने भारत में प्राच्य, पाश्चात्य, शैक्षिक विवाद को उम्र रूप प्रदान किया। प्राच्य शिक्षाबादी का कहना था कि साहित्य शब्द से तात्पर्य संस्कृत और अरबी भाषा के साहित्य से है तथा भारतीय विद्वान से अर्थ इन दोनों भाषाओं में से किसी एक विद्वान से है। परन्तु इसके विपरीत पाश्चात्यवादियों

का विचार था कि साहित्य तथा भारतीय विद्वान शब्द को इतने संकीर्ण अर्थ में नहीं देखना चाहिए तथा साहित्य में अंग्रेजी साहित्य का प्रमुख स्थान है। प्राच्यवादियों का दल भारत के प्राचीन साहित्य, सभ्यता तथा संस्कृति के प्रचार पक्ष में था तथा चाहता था कि पाश्चात्य दर्शन व विज्ञान की शिक्षा भी संस्कृत व अरबी माध्यम से दी जाये। ईस्ट इंडिया कम्पनी की प्रारम्भिक शैक्षिक नीति भी प्राच्य शिक्षा को प्रोत्साहित करने की थी तथा इस नीति के तहत ही कलकत्ता मदरसा तथा बनारस संस्कृत कॉलेज की स्थापना की गई थी जिनमें क्रमशः अरबी-फारसी तथा संस्कृत के माध्यम से शिक्षा दी जाती थी। परन्तु पाश्चात्यवादी अंग्रेजी माध्यम से यूरोपीय साहित्य तथा विज्ञान की शिक्षा देने के पक्षधर थे। जिसकी वजह से निर्धारित धनराशि खर्च नहीं की जा सकी। तब सन् 1823 में जनशिक्षा की सामान्य समिति (General Committee of Public Instruction) का गठन किया गया तथा शिक्षा के लिए निर्धारित धनराशि खर्च करने का दायित्व इस समिति को सौंप दिया गया। इस समिति के कुछ सदस्य प्रचलित भारतीय शिक्षा के पक्ष में तथा कुछ सदस्य पाश्चात्य शिक्षा के पक्ष में थे जिससे प्राच्य पाश्चात्य शिक्षा विवाद (Oriental Occidental Education Controversy) उठ खड़ा हुआ।

इसलिए भारतीयों का शैक्षिक विकास करने के लिए उन्हें अंग्रेजी के माध्यम से पाश्चात्य साहित्य तथा विज्ञान से अवगत कराना अत्यन्त आवश्यक है। इनके अतिरिक्त पाश्चात्य शिक्षा के पक्षधरों का यह भी मत था कि पाश्चात्य शिक्षा भारतीयों को पश्चिमी विचारधारा में रंग देगी जिससे भारत में अंग्रेजी राज्य की जड़ों को सहारा मिलेगा। अतः शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से दी जानी चाहिए। यहाँ पर यह इंगित करना भी उचित ही होगा कि पाश्चात्यवादियों के द्वारा भारत में यूरोपीय ज्ञान तथा विज्ञान की अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने का समर्थन करना उनकी किसी निस्वार्थ भावना अथवा भारतीयों की कल्याणकामना से प्रेरित नहीं था वरन् अपने स्वार्थ व स्वहित की भावना से प्रेरित था। | अपने व्यापारिक तथा शासकीय कार्यालयों के लिए उन्हें अंग्रेजी जानने वाले तथा पाश्चात्य संस्कृति से युक्त बाबुओं की आवश्यकता थी, क्योंकि उनके देशवासियों का बड़ी संख्या में यहाँ आना सम्भव नहीं था। इस परिस्थिति में उन्होंने यही उचित समझा कि भारत में पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार करके अंग्रेजी विचारों से युक्त बाबुओं को तैयार किया जा सके।

प्राच्यवादियों तथा पाश्चात्यवादियों के बीच संघर्ष सन् 1834 तक निरन्तर चलता रहा तथा कोई निर्णय न हो सका, किसी निर्णायक व्याख्या के अभाव में विभिन्न प्रान्तों के अधिकारीगण • अपने-अपने विचारों के अनुरूप धारा 43 की व्याख्या करते रहे तथा तदनुसार शिक्षा नीति बना ली। विभिन्न प्रान्तों की शिक्षा नीतियों में विभिन्न तथा शिक्षा प्रेमियों के बीच शिक्षा सम्बन्धी विचारों के संघर्ष का परिणाम यह निकला कि सन् 1813 में शिक्षा के लिए आर्थिक उत्तर दायित्व निश्चित हो जाने के बावजूद शिक्षा की प्रगति लगभग नगण्य ही रही। इसीलिए शिक्षा योजनाओं के संचालन हेतु सन् 1823 में जनशिक्षा की समिति (Committe of Public Instruction) का गठन तत्कालीन गर्वनर जनरल के द्वारा किया गया। इस समिति में दस सदस्य थे तथा इसके मन्त्री मि० विल्सन थे। इस समिति में प्राच्यवादियों का बहुमत होने के कारण संस्कृत, अरबी तथा फारसी की शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जाने लगा परन्तु पाश्चात्यवादियों को यह सब पसन्द नहीं था तथा वे समिति की नीतियों व कार्यों का निरन्तर विरोध करते रहे। धीरे-धीरे प्राच्य-पाश्चात्य वादियों के विवाद ने उग्ररूप धारण कर लिया। समिति के सदस्यों में गहरा मतभेद हो जाने के फलस्वरूप समिति के मन्त्री ने इस विवाद की समाप्ति हेतु इसे जनवरी 1835 में भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक के समक्ष रखा तथा उनसे नीति निर्धारण सम्बन्धी निर्णय देने का अनुरोध किया। लाई बेटिक ने गवर्नर जनरल की कौंसिल के विधि सदस्य लार्ड मैकाले को जनशिक्षा समिति का सभापति नियुक्त किया तथा उसे सन् 1813 के आज्ञापत्र की धारा 43 के विवादग्रस्त बिन्दुओं पर कानूनी सलाह देने का निर्देश दिया।

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संदर्भ हेतु यह भी इंगित करना उचित ही होगा कि प्राच्य तथा पाश्चात्य शिक्षा के पक्षधरों के अतिरिक्त एक तीसरा दल भी था जिसे लोकभाषावादी (Vernacularist) कहा जाता है। इस दल के सदस्य भारत में पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा का प्रसार तो चाहते थे परन्तु यह माध्यम के रूप में प्रान्तीय भाषाओं का प्रयोग करने को उचित समझते थे। परन्तु यह दल अधिक प्रभावशाली नहीं था। लोक जनशिक्षा की सामान्य समिति के सदस्यों में मतदभेद होने के कारण कोई व्यावहारिक कदम नहीं उठाया जा सका। सन् 1833 में कम्पनी के भारत में शासन करने सम्बन्धी आज्ञापत्र का पुनः नवीनीकरण हुआ, जिसमें शिक्षा के लिए निर्धारित राशि को एक लाख से बढ़ाकर दस लाख कर दिया गया। इस आज्ञापत्र में ईसाई मिशनरियों को भारत में बेरोकटोक प्रवेश की अनुमति भी दी गई तथा गवर्नर जनरल की कॉसिल में एक विधि सदस्य (Law Member) को बढ़ा दिया गया।

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