बिन्दुसार के शासनकाल
बिन्दुसार ‘अमित्रघात’ ( 298 ई.पू. से 273 ई.पू. तक)- चन्द्रगुप्त की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी दुर्धरा से उत्पन्न पुत्र बिन्दुसार राजगद्दी पर बैठा। बिन्दुसार के समय की घटनाओं का विवरण हमें भारतीय स्रोतों से बहुत कम मिलता है। इसका मौर्य साम्राज्य में सिर्फ इतना ही योगदान है कि इसने अपने पिता से जिस विशाल साम्राज्य को प्राप्त किया था उसे अपने काल में किसी भी तरह से विखण्डित नहीं होने दिया बिन्दुसार की अद्वितीय प्रतिभा के परिचायक प्रमाण हमें उपलब्ध नहीं है। चन्द्रगुप्त ने जिस अदम्य उत्साह, राज्योचित राजपूत और महत्वाकांक्षाओं से भारतीय इतिहास को सुसम्पन्न किया, उसकी प्रतिमा एवं महत्वाकांक्षा को उसका पुत्र बिन्दुसार न प्राप्त कर सका।
या तो यह कहा जा सकता है कि उसके शासनकाल में कोई राजनैतिक उथल-पुथल ही नहीं हुए, जिसमें वह अपना असीम शौर्य दिखलाता चन्द्रगुप्त के समय के स्थापित दण्ड विधान की कठोरता से शायद अपराध भी अधिक न होते थे।
उसकी उपाधि अमित्रघात शब्द से स्पष्ट परिलक्षित होता है कि उसने अपने राज्य में शत्रुओं का दमन किया होगा। इसकी उपाधियों से पता चलता है कि यह कोई निर्बल शासक नहीं था। बौद्ध तथा जैन ग्रंथों से इस बात की जानकारी मिलती है कि प्रकाण्ड विद्वान चाणक्य इसके समय में भी जीवित रहा। तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के अनुसार इसने छह नगरों की स्थापना की थी और छह राजाओं का दमन किया था। बिन्दुसार एक शान्तप्रिय शासक था। उसने अपने समय में किसी शासक का उन्मूलन किया हो यह बात सही नहीं प्रतीत होती।
इस बात की सम्भावना अधिक है कि बिन्दुसार ने अपने समय में तक्षशिला में होने वाले विद्रोहों को दबाने के लिए अशोक को भेजा था। अशोक ने इन विद्रोहों को भली-भाँति दबा दिया और शान्ति व्यवस्था स्थापित की। इस बात की सम्भावना अधिक दिखाई पड़ती है कि ऐसे ही किसी तरह का विद्रोह पश्चिमोत्तर भारत में भी हुआ हो जिसे बिन्दुसार ने सैनिकों की मदद से समाप्त किया हो। इस तरह से यह सम्भावना अधिक है कि तारानाव इसी घटना का उल्लेख शासकों के दमन के रूप में करता है।
बिन्दुसार का शासन काल बड़ा सफल रहा। पहले उसका मंत्री चाणक्य था। चाणक्य के देहावसान के पश्चात् खल्लाटक और राधागुप्त तथा सुबन्धु मंत्री हुए। उसकी राज-काज में सहायता के लिए 500 सदस्यों की एक सभा थी। महाभारत तथा महाभाष्य में उसे अमित्रघात का उपनाम दिया गया है। अमित्रघात का अर्थ है, शत्रुओं को नाश करने वाला। इससे विदित होता है कि या तो वह शक्तिशाली विजेता था या निर्विरोध सफल शासक या दोनों।
बिन्दुसार की तिथि
पुराणों के साक्ष्य के अनुसार चन्द्रगुप्त तथा बिन्दुसार ने क्रमशः 24 तथा 25 वर्ष तक राज्य किया। बौद्ध अनुश्रुतियाँ प्रकट करती हैं कि बिन्दुसार का शासनकाल 26 या 28 वर्ष तक रहा। अतः यदि हम उपर्युक्त प्रमाण स्वीकार करें तो 324 ई. पूर्व में चन्द्रगुप्त सिंहासनारूढ़ होकर 300 ई. पूर्व तक राज्य करता रहा और बिन्दुसार का शासनकाल लगभग 298 ई.पू. से 273 ई.पू. तक माना जा सकता है। बिन्दुसार की तिथि के सम्बन्ध में डॉ. हेमचन्द्रराय चौधरी ने अपना मत व्यक्त किया है “जैसा कि प्लूटार्क तथा जस्टिन के प्रमाणों से परिलक्षित होता है, चन्द्रगुप्त 326-25 ई.पू. तक सिंहासनारूड़ नहीं हुआ था और पुराणों के अनुसार उसने 24 वर्षो तक राज्य किया, (अतः) उसका उत्तराधिकारी 301 ई.पू. के पहले राजसिंहासन किसी प्रकार नहीं प्राप्त कर सका होगा, निश्चय ही इस नए सम्राट ने 299 ई.पू. से राज्य करना आरम्भ किया होगा। बिन्दुसार के शासनकाल सम्बन्धी साक्ष्यों में मतैक्य नहीं हैं पुराण इसे 25 वर्ष बताते हैं वर्मी तथा सिंहली अनुश्रुतियाँ क्रमशः 27 या 28 वर्ष घोषित करती हैं।”
साम्राज्य का विस्तार (उपलब्धियाँ)
नर्मदा नदी के दक्षिण में मौर्य साम्राज्य का विस्तार चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया था अथवा उसके पुत्र और उत्तराधिकारी बिन्दुसार ने ? इस प्रश्न पर मतभेद है। चन्द्रगुप्त चन्द्रगिरि की पहाड़ी पर राज-काज से निवृत्त होकर वृद्धावस्था में जैन साधु भद्रबाहु के साथ तपस्या करने गया था, इसलिए एक अनुमान यह है यह स्थान चन्द्रगुप्त के साम्राज्य की सीमा में था। तिब्बत लेखक लामा तारानाथ ने जो बौद्ध धर्म का इतिहास लिखा है उसमें बिन्दुसार को दक्षिण का विजेता कहा है। इसके अनुसार चाणक्य ने बिन्दुसार के समय सोलह राज्यों को उखाड़ फेंका और मौर्य साम्राज्य को एक समुद्र तट से दूसरे समुद्र तट तक बढ़ा दिया। इससे दक्षिणी पठार में मौर्य साम्राज्य का प्रसार सिद्ध होता है। बिन्दुसार के समय कृष्ण स्वामी आयंगर के अनुसार तमिल प्रदेश में मौर्य विजय की जो कथा है उसके अनुसार बिन्दुसार की सेनाएँ दक्षिण में चोल और पाण्ड्य राज्य की सीमा तक पहुँची। अशोक ने तो दक्षिण विजय की ही नहीं थी। चाणक्य बिन्दुसार के समय भी महामंत्री था। अतः स्वाभाविक है कि उसने साम्राज्य प्रसार की नीति जारी रखी। पच्चीस वर्ष का शासन निष्क्रिय नहीं रह सकता।
बिन्दुसार का वैदेशिक सम्बन्ध
बिन्दुसार के समय में यूनानी राज्यों के साथ मौर्य साम्राज्य का सम्बन्ध बहुत मधुर था। सीरिया के राजा ने डाईमेकस नामक राजदूत बिन्दुसार की राज्यसभा में भेजा था। कुछ और यूनानी राजदूतों के भारत पहुँचने का विवरण मिलता है। सीरिया के राजा के साथ बिन्दुसार का पत्र व्यवहार होता था। बिन्दुसार ने सीरियाई शासक से तीन वस्तुएँ मीठी मंदिरा सूखी अंजीर तथा दार्शनिक भेजने की मांग की थी। दो वस्तुएँ तो सीरियाई शासक ने बिन्दुसार को भेंट की लेकिन उसका कहना था कि यूनान से दार्शनिकों की बिक्री नहीं की जाती इसलिए वह बिन्दुसार के लिए दार्शनिक नहीं भेज सकता। बिन्दुसार की सभा में दूसरा राजदूत मिल से आया था। उसका नाम डियानीसियस था। डियानीसियस ने भी भारत के विषय में एक पुस्तक लिखी थी परन्तु वह पुस्तक दुर्भाग्य से अप्राप्त है।
बिन्दुसार परिष्कृत अभिरुचि का व्यक्ति था। यूनानी लेखक आयम्बुलस जब पाटलिपुत्र आया तो उसका बड़ा आदर किया गया। उसका व्यवहार सौहार्दपूर्ण था। यूनानियों से वह मधुर व्यवहार रखता था। उसके दरबार में विद्वानों को संरक्षण मिलता था। नवोदित धार्मिक सम्प्रदाय के सदस्य आजीवक परिव्राजक भी उसके दरबार में थे। बिन्दुसार ने अशोक के लिए मार्ग का निर्माण कर दिया था।
बिन्दुसार ने अपने पिता चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रशासन का अनुकरण किया। बिन्दुसार के समय मौर्योों की राज्यसभा में कुल पाँच सौ सदस्य रहा करते थे जिससे पता चलता है कि इसका मंत्रिमण्डल काफी विस्तृत था। बिन्दुसार का साम्राज्य कई प्रान्तों में विभाजित था। इन प्रान्तों पर शासन के लिए राज्य परिवार से सम्बन्धित व्यक्ति राज्यपाल नियुक्त किए जाते थे। बिन्दुसार के समय में अशोक अवन्ति का उपराजा था। अतः हम कह सकते हैं कि बिन्दुसार का शासन उतना महत्वपूर्ण नहीं हो सका जितना कि चन्द्रगुप्त अथवा अशोक का रहा। बिन्दुसार की मृत्यु 273 ई.पू. के आस पास हुई।
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