भूमिका का अर्थ
सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था में व्यक्ति अपनी आयु, लिंग, जाति, प्रजाति, पेशा, धन या अन्य व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर जिस स्थान या पद को प्राप्त है वह उसकी स्थिति है और उस स्थिति के सन्दर्भ में सामाजिक परम्परा, प्रथा, नियम या कानून के अनुसार, उसे जो भूमिका निभानी है वह उसका कार्य है। अर्थात् प्रत्येक स्थिति का एक क्रिया-पक्ष होता है और उसी को कार्य कहते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कार्य की अवधारणा में दो तत्व होते हैं-एक तो प्रत्याशाएँ और दूसरा क्रियाएँ। स्थिति का निर्धारण समाज द्वारा होता है। उसी समाज की कुछ प्रत्याशाएँ प्रत्येक स्थिति के सम्बन्ध में होती हैं और वह यह आशा करता है कि उस स्थिति पर जो भी व्यक्ति है। वह उन प्रत्याशाओं के अनुरूप क्रिया करेगा अर्थात् अपनी भूमिका निभाएगा। यही क्रिया या भूमिका उस स्थिति विशेष का कार्य होगा। उदाहरण के लिए पिता की स्थिति के साथ समाज की कुछ प्रत्याशाएँ जुड़ी हुई है अर्थात् पिता की स्थिति में आसीन व्यक्ति के कुछ निश्चित प्रकार की प्रक्रियाओं को करने की आशा की जाती है, उस व्यक्ति से समाज यह आशा करता है कि वह परिवार की देख-रेख करेगा, बच्चों के पालन-पोषण की व्यवस्था करेगा, उनके लिए आवश्यकतानुसार त्याग स्वीकार करेगा, उनके व्यवहारों पर नियंत्रण रखेगा, इत्यादि समाज की आशा या प्रत्याशा के अनुरूप पिता द्वारा की जाने वाली इन क्रियाओं को ही कार्य या भूमिका कहा जाता है।
भूमिका अथवा कार्य की परिभाषा
श्री लिण्टन के अनुसार, “कार्य शब्द का प्रयोग किसी स्थिति से सम्बन्धित सांस्कृतिक प्रतिमान की समग्रता के लिए किया जाता है। इस प्रकार कार्य के अन्तर्गत हम उन सभी मनोवृत्तियों, मूल्यों तथा व्यवहारों को सम्मिलित करते हैं जिन्हें कि समाज एक स्थिति विशेष पर आसीन प्रत्येक एवं सभी व्यक्तियों के लिए निर्धारित करता है।”
श्री सार्जेण्ट के शब्दों में, “किसी व्यक्ति का कार्य सामाजिक व्यवहार का वह प्रतिमान अथवा प्ररूप है जो कि उसे एक परिस्थिति विशेष में अपने समूह के सदस्यों की माँगों एवं प्रत्याशाओं के अनुरूप प्रतीत होता है।”
श्री फिचर के अनुसार, “जब बहुत से अन्तःसम्बन्धित व्यवहार प्रतिमान एक सामाजिक प्रकार्य के चारों ओर एकत्रित हो जाते हैं तो उसी सम्मिलन को हम सामाजिक कार्य कहते हैं।” इसका तात्पर्य यह हुआ कि “स्थिति’ का एक “कार्य’ पक्ष भी होता है और एक ही कार्य के अन्तर्गत बहुत से अन्तःसम्बन्धित व्यवहार प्रतिमानों का समावेश होता है। जैसे पिता की “स्थिति’ को लीजिए। इस स्थिति का एक कार्य-पक्ष है और उसके अन्तर्गत बच्चों का पालन-पोषण, बच्चों की सुरक्षा, परिवार की देखरेख, बच्चों पर नियंत्रण आदि अनेक व्यवहार प्रतिमान आ जाते हैं। वे सभी व्यवहार प्रतिमान एक-दूसरे से सम्बन्धित है और वे सब एक साथ मिलकर पिता की स्थिति से सम्बन्धित “स्थिति’ का बोध कराते हैं। इसलिए श्री फिचर ने बहुत से अन्तःसम्बन्धित व्यवहार- प्रतिमानों के स्वरूप को “कार्य’ या भूमिका कहा है।
कार्य या भूमिका की प्रमुख विशेषताएँ
उपरोक्त विवेचना के आधार पर अब हम कार्य की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख कर सकते हैं
(1) कार्य एक स्थिति विशेष का एक क्रियात्मक पक्ष है। दोनों ही इस कारण साथ-साथ चलते हैं। एक के सन्दर्भ में दूसरे को समझा जा सकता है।
(2) एक स्थिति विशेषज्ञ पर आसीन एक व्यक्ति के अनेक प्रकार के परस्पर सम्बन्धित व्यवहारों को करने की समाज द्वारा आशा की जाती है। इन्हीं अन्तःसम्बन्धित व्यवहार प्रतिमानों के एक सम्मिलित रूप को कार्य कहा जाता है।
(3) अतः स्पष्ट है कि “कार्य’ में अन्तर्निहित व्यवहार-समूह समाज की प्रत्याशाओं के अनुसार होते हैं। अर्थात् “कार्य’ के अन्तर्गत एक व्यक्ति किस प्रकार के व्यवहारों को करेगा यह हमारे या आपकी इच्छा पर नहीं अपितु समाज की स्वीकृति पर निर्भर होता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि प्रत्येक कार्य का एक सामाजिक सांस्कृतिक आधार होता है।.
(4) सामाजिक मूल्य, आदर्श तथा उद्देश्य “कार्य’ के स्वरूप को परिभाषित करते हैं। अतः है। सामाजिक मूल्य, आदर्श व उद्देश्य के विपरीत कार्यों को सहन नहीं किया जाता
(5) चूंकि इन सामाजिक मूल्य, आदर्श तथा उद्देश्यों में समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है, अतः “कार्य’ भी एक परिवर्तनशील धारणा है। सामाजिक मूल्यों तथा आदशों में परिवर्तन हो जाने पर “कार्य’ भी बदल जाते हैं। उदाहरणार्थ, परम्परागत हिन्दू परिवार में पत्नी के जो कार्य थे आज उनमें अनेक परिवर्तन हो गए है क्योंकि वर्तमान समय में परिवार तथा विवाह एवं साथ ही स्त्रियों की स्थिति-सम्बन्धी मूल्यों तथा आदशों में भी अनेक परिवर्तन देखने को मिलते हैं।
(6) प्रत्येक कार्य का एक क्षेत्र होता है और प्रत्येक कार्य को उसी क्षेत्र के अन्दर रहना होता है। जैसे दफ्तर में एक व्यक्ति “अफसर’ से सम्बन्धित कार्य करता है अतः उस कार्य का क्षेत्र दफ्तर तक सीमित है, अगर वह परिवार या क्लब में भी अपनी अफसरी झाड़ने लगे तो क्लेश होने की सम्भावना रहती है।
(7) सामाजिक प्रत्याशाओं के शत-प्रतिशत अनुरूप कार्यों को सभी लोग नहीं निभाते हैं। या निभा नहीं पाते हैं। पिता के रूप में एक व्यक्ति से तो समाज बहुत-कुछ आशाएँ करता है, पर सभी पिता उन आशाओं को पूरा नहीं कर पाते हैं। कुछ पिता अधिकांश आशाओं के अनुसार कार्य करते हैं, कुछ पिता आशाओं को पूरा कर पाते हैं और कुछ पिता आशाओं के विपरीत भी क्रियाशील रहते हैं।
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(8) अन्त में, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण से सभी कार्य समाज रूप से महत्वपूर्ण नहीं होते हैं। अतः महत्वपूर्ण कार्यों को प्रमुख कार्य तथा साधारण कार्यों का सामान्य कार्य कहा जाता है। प्रमुख कार्य सामाजिक अस्तित्व व संगठन के लिए आवश्यक होते हैं जबकि सामान्य कार्य दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जरूरी माने जाते हैं।
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