भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जीवन परिचाए (निबन्ध )

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प्रस्तावना-जिस समय हमारे देश में हर ओर अंग्रेजों का साम्राज्य स्थापित हो चुका था, शासन की भाषा अंग्रेजी स्वीकार की जा चुकी थी, ऊँचे पदों के लिए लालायित भारतीय अंग्रेजी सभ्यता अपनाकर गौरान्वित महसूस करने लगे थे, हिन्दी बोलने वालों को ‘गँवार तथा मूढ’ समझा जाता था, हिन्दू सभ्यता तथा संस्कृति पर चारों ओर से कुठाराघात हो रहे था, लोग यह समझने लगे थे कि हिन्दी भाषा पढ़कर किसी का भी भला नहीं हो सकता, ऐसे विकट समय में, जब हिन्दी को एक दृढ़ आत्मविश्वासी कुशल नेतृत्व की आवश्यकता थी, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पृथ्वी पर अवतरित हुए थे।

जन्म परिचय एवं शिक्षा

युग परिवर्तन की क्षमता रखने वाले तथा राष्ट्रीय की रक्षा करने का दम रखने वाले युग प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म सेठ अमीरचन्द्र के वंश में हुआ था। आपके पिताश्री का नाम बापू गोपालचन्द्र था, जो ‘गिरधरदास’ के नाम से भी जाने जाते थे। आपके पिता ब्रजभाषा के प्रतिभा सम्पन्न तथा लोकप्रिय कवि थे। घर का वातावरण साहित्यिक होने के भारतेन्दु पर भी इसका प्रभाव पड़ा। इसी कारण उन्होंने पाँच वर्ष की आयु में ही दोहों की रचना करना प्रारम्भ कर दिया था।

हरिश्चन्द्रजी ने हिन्दी, अंग्रेजी तथा उर्दू की शिक्षा घर पर ही प्राप्त की थी। जब आप मात्र दस वर्ष के थे तो आपके माता-पिता का देहावसान हो गया था। इसी कारण आपकी शिक्षा का क्रम बीच में ही टूट गया। आपका विवाह तेरह वर्ष की आयु में ही हो गया था, क्योंकि उस समय हिन्दुओं में बाल-विवाह का चलन था। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अनेक तीर्थ यात्राएँ की, जिनके कारण वे बंगला भाषा के सम्पर्क में आए। तीर्थ यात्राओं के दौरान ही भारतेन्दु प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ-साथ विभिन्न प्रान्तों के सामाजिक रीति-रिवाजों एवं संस्कृति को भी समझने लगे। वे दयालु, दानी, स्वतन्त्रता प्रेमी एवं सत्य तथा अहिंसा के सिद्धान्तों में विश्वास रखते थे। उनके इन्हीं आदशों के कारण धन लक्ष्मी तथा माँ सरस्वती की उन पर विशेष कृपा थी।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचनाएँ

बहुमुखी प्रतिभा के धनी तथा साहित्य के सच्चे पुजारी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने साहित्य की प्रत्येक दिशा को एक नवीन चेतना प्रदान की। उन्होंने काव्य, नाटक, इतिहास, व्याख्यान, निबन्ध आदि विषयों पर अपनी लेखनी चलाई मात्र समह वर्ष की आयु में ही आपने अनेक ग्रन्थों की रचना कर डाली। आपके प्रसिद्ध काव्य ग्रन्थ ‘बैजयन्ती’, ‘सुमनांजलि’, ‘शृंगार, ‘होली’, ‘प्रेम-प्रताप’, ‘भारतवीणा’ तथा ‘सतसई’ आदि हैं। नाटक-लेखन के क्षेत्र में भारतेन्दु जी की सर्वोत्तम देन ‘चन्द्रावली’, ‘प्रेम योगिनी, ‘भारत-दुर्दशा, ‘विषस्य विपमौषधम्’, ‘अंधेर नगरी’ ‘नीलदेवी’ तथा ‘वैदिक हिंसा न भवति’ आदि हैं। अनुदित नाटकों में ‘पाखण्ड विडम्बन’, ‘कर्पूरमंजरी’, ‘मुद्रा राक्षस’, ‘धनंजय विजय’, ‘विद्या सुन्दरी’, ‘भारत जननी’ एवं ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ आदि हैं। आपके मुख्य आख्यान ‘सुलोचना’, ‘शीलवती’ आदि है। ‘परिहास पंचक’ आपका हास्यगय है यही इतिहास सम्बन्धी ग्रन्थों में ‘काश्मीर कुसुम’ तथा ‘बादशाह दर्पण’ मुख्य हैं। आपने बहुत कम समय में ही सौ से अधिक ग्रन्थों की रचना की थी।

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इसके अतिरिक्त आपने अपनी रचनाओं के माध्यम से देश प्रेम प्रधान रचनाओं का भी लेखन किया। भारत देश की दुर्दशा देखकर भारतेन्दु जी इस प्रकार विलाप करते हैं-

“गयो राज, पन, तेज, शेष, शान नसाई।

बुद्धि, वीरता, श्री, उछाह सूरत बिताई।

आलस, कायरपना निरुयमता अब छाई,

रही मृता, बैर, परस्पर कलह, लडाई॥”

उपसंहार- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र समाज में चेतना लाना चाहते थे वे देश की सामाजिक समस्याओं से भली-भाँति परिचित थे तभी तो उन्होंने अपनी कविताओं में सामाजिक समस्याओं का चित्रण किया है। जीवन के अन्तिम पड़ाव में भारतेन्दु की आर्थिक स्थिति काफी दयनीय हो गयी थी। सन् 1949 ई. में क्षय रोग के कारण हिन्दी साहित्य का यह प्रकाश पुंज सदैव के लिए लुप्त हो गया परन्तु आज भी अपनी रचनाओं के माध्यम से वह हमारे बीच जीवित हैं।

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