भारतीय संविधान में उल्लिखित शैक्षिक बिन्दुओं का विवेचन कीजिए।

संविधान वस्तुतः राष्ट्र व राज्यों की प्रशासन व्यवस्था एवं विधि निर्माण के लिए सुदृद्द ढाँचा प्रदान करता है। भारतीय संविधान भी विभिन्न क्षेत्रों की प्रशासनिक व्यवस्था तथा विधि निर्माण के अधिकार व क्रियान्वयन के दंगों को प्रस्तुत करता है। भारतीय संविधान में शिक्षा के सम्बन्ध में किये गये विभिन्न संकल्पों का संक्षिप्त विवरण निम्नवत् प्रस्तुत किया जा रहा है

1. शिक्षा का अधिकार एवं निःशुल्क व अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा

संविधान के अनुच्छेद21 के अधीन शिक्षा पाने का अधिकार नागरिकों का एक विवक्षित अधिकार है। शिक्षा का यह अधिकार वस्तुतः प्राण और दैहिक स्वतन्त्रता के अधिकार से प्रवाहित होता है। अनुच्छेद 21 में कहा गया है कि किसी व्यक्ति को उसके प्राण अथवा दैहिक स्वतन्त्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जा सकेगा।

प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता का यह मूल अधिकार नागरिकों को अपने जीवन को अच्छी प्रकार व सार्थक ढंग से जीने के संरक्षण की प्रत्यानुभूति कराता है। इसकी परिधि में शिक्षा एक अनुल्लिखित अधिकार के रूप में सम्मिलित हो जाती है। अनुच्छेद 21 का अर्यान्वयन अनुच्छेद 4 के सन्दर्भ में करना होगा। अनुच्छेद 41 में कहा गया है कि राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य तथा विकास की सीमाओं के अन्दर काम पाने, शिक्षा पाने, तथा बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी या निःशक्तता अथवा अन्य अभाव की स्थिति में जनसहायता प्राप्त करने के प्रभावी उपाय करेगा। संविधान का अनुच्छेद 19, जिसमें नागरिकों को वाक् तथा अभिव्यक्ति स्वातन्त्र्य एवं रोजगार करने का अधिकार दिया गया है, भी शिक्षा के अधिकार की ओर संकेत करती है। क्योंकि वाक् तथा

वर्ष 2002 में संविधान में किये गये 86 वें संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 21 ‘क’ को जोड़कर एवं अनुच्छेद 45 में परिवर्तन करके प्रारम्भिक शिक्षा को नागरिकों को एक मूल अधिकार बना दिया गया है। अनुच्छेद 21 ‘क’ में कहा गया है कि “राज्य छह से चौदह वर्ष की आयु के सभी बालक बालिकाओं को निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा, राज्य के द्वारा विधि के माध्यम से अवधारित रीति से उपलब्ध करायेगा।” वस्तुतः संविधान में किये गये इस संशोधन के द्वारा पूर्ववर्ती अनुच्छेद 45 में की गई उस व्यवस्था को परिवर्तित किया गया है जिसमें संविधान लागू होने के 10 वर्ष के अन्दर 14 वर्ष की आयु के सभी बालक-बालिकाओं को राज्य द्वारा अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा उपलब्ध करने की बात कही गयी थी। ऐसा लगता है कि सभी बालक-बालिकाओं को राज्यों के द्वारा अनिवार्य तथा निःशुल्क शिक्षा प्रदान करने के संवैधानिक दायित्व की पूर्ति की असफलता ने इस संशोधन के मार्ग को प्रशस्त किया एवं अब राज्य इस हेतु सदाचित विधि का निर्माण करके 14 वर्ष बालिकाओं को अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा उपलब्ध करायेगा। आयु के बालक

2. अल्पसंख्यकों की शिक्षा

भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों की शैक्षिक तथा सांस्कृतिक उन्नति के लिए विशेष व्यवस्था की गई है। अनुच्छेद 30 (1 एवं 2) के अनुसार, “धर्म या भाषा के आधार पर सभी अल्पसंख्यक समुदायों को अपनी पसन्द की शिक्षा संस्थाएँ स्थापित तथा प्रशासित करने का अधिकार होगा। राज्य सरकारें शिक्षा संस्थाओं को अनुदान देते समय किसी संस्था से हेवल इसलिए भेदभाव नहीं करेंगी कि यह संस्था धर्म या भाषा पर आधारित अल्पसंख्यकों के प्रबन्ध मे है।” इस प्रकार से भारतीय संविधान अल्पसंख्यकों के शैक्षिक हितों की रक्षा करता है। संविधान का यह संकल्प अल्पसंख्यकों को राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ने एवं उनके धर्म, भाषा व संस्कृति पर आधारित शिक्षा व्यवस्था को जारी रखने के अवसर देकर उनकी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने की व्यवस्था का द्योतक है।

3.शैक्षिक अधिकार में समानता

प्रजातन्त्र में जाति, धर्म या स्तर आदि की परवाह किये बिना ही सबको अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करने के लिए समान अवसर मिलने चाहिए। प्रजातन्त्र की इस मूलभूत मान्यता को ध्यान में रखते हुए संविधान के अनुच्छेद 29 में सभी के शैक्षिक अधिकारों में समानता को सुनिश्चित किया गया है। अनुच्छेद 29 (2) में कहा गया है कि “राज्य सरकार द्वारा संचालित या सहायता प्राप्त किसी भी शिक्षा संस्था में किसी भी व्यक्ति को धर्म, जाति, रंग या भाषा के आधार पर प्रवेश से वंचित नहीं किया जायेगा।” प्रजातन्त्र में सभी नागरिकों के बीच समानता एक मूलभूत मान्यता है। शिक्षा के क्षेत्र में समानता को सुनिश्चित करने के लिए सम्भवतः इस संकल्प को संविधान में जोड़ा गया है।

4. अनुसूचित जाति, जनजाति व कमजोर वर्गों की शिक्षा-

समाज के सभी कमजोर वर्गों की शैक्षिक उन्नति के प्रोत्साहन का उत्तरदायित्व राज्य का है। संविधान के अनुच्छेद 46 के अन्तर्गत कहा गया है कि “राज्य कमजोर वर्गों” विशेषकर अनुसूचित जाति व जनजाति, की शैक्षिक तथा आर्थिक उन्नति को विशेष रूप से प्रोत्साहित करेगा तथा उनको सामाजिक अन्याय व धोखे से बिचायेगा।” इस प्रकार से भारतीय संविधान में समाज के वंचित व पिछड़े वर्गों के नागरिकों की शिक्षा व उन्नति के अवसर सुनिश्चित हैं। संविधान का यह संकल्प समाज के दलित व सदियों से शोषित वर्ग को शिक्षा के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराकर उनकी शैक्षिक, सामाजिक तथा आर्थिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करने में सहायक हो सकता है।

5. धार्मिक शिक्षा की स्वतन्त्रता

भारतीय संविधान में सर्वधर्म सम्मत शिक्षा की वयवस्था की गई है। संविधान के अनुच्छेद 28 (1,2 तथा 3) में प्राविधान कि गया कि “राज्य निधि से पूर्णतः पोषित किसी शिक्षा संस्था में धर्मिक शिक्षा नहीं दी जायेगी परन्तु सरकार द्वारा प्रशासित किसी शिक्षा संस्था की स्थापना किसी ऐसे न्यास के अधीन हुई है जिसमें कुछ धार्मिक क्रियाएँ आवश्यक हैं तो उस शिक्षा संस्था में उन धार्मिक क्रियाओं की शिक्षा दी जा सकती है। परन्तु सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त या सहायता प्राप्त किसी भी शिक्षा संस्था में चलायी जा रही धार्मिक पूजा में भाग लेने के लिए किसी व्यक्ति को तब तक बाध्य नहीं किया जायेगा जब तक उस व्यक्ति ने या यदि वह अवयस्क है तो उसके संरक्षक ने. इसके लिए सहमति नहीं दे दी है।” स्पष्ट है कि भारत में धर्मिक शिक्षा प्राप्ति के सम्बन्ध में पूर्ण स्वतन्त्रता है। बहुधर्म भाषी नागरिकों विशेषकर धार्मिक अल्पसंख्यकों पर अन्य किसी धर्म के धार्मिक विचारों को आरोपित न किया जा सके एवं योजनाबद्ध धर्मान्तरण की प्रवृत्ति की सम्भावना को रोकने के लिए उपरोक्त प्रावधान आवश्यक था।

6. मातृ भाषा में शिक्षा सुविधायें

प्राथमिक स्तर पर मातृ भाषा के महत्व को स्वीकार करते हुए संविधान के अनुच्छेद 350-A में कहा गया है कि “प्रत्येक राज्य तथा राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषाई दृष्टि से अल्पसंख्यक समूहों के बालकों को उनकी मातृ भाषा में प्राथमिक शिक्षा सुविधाएँ उपलब्ध कराने का प्रयास करेगा।” इस प्रकार से भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए उनकी भाषा में प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराना राज्य का कार्य स्वीकार किया गया है। निःसन्देह शिक्षा का सर्वोत्तम माध्यम बालक-बालिकाओं की मातृ भाषा ही हो सकती है। इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए संविधान में मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा की सम्भावना पर ध्यान दिया। गया है।

7. हिन्दी भाषा का विकास \

संविधान में राष्ट्रभाषा हिन्दी के विकास तथा प्रचार की व्यवस्था भी की गई है। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 351 के अनुसार, “संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार, संवर्धन तथा विकास ऐसे ढंग से करेगा जिससे यह भारत की मिली-जुली संस्कृति के सभी वर्गों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकें।” इस प्रकार से हिन्दी भाषा के प्रसार, संवर्धन तथा इसको भारत के नागरिकों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने का संवैधानिक उत्तरदायित्व केन्द्र सरकार का है। किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रभाषा उसके गौरव का प्रतीक एवं राष्ट्रीय पहचान की परिचायक है। अतः अपनी राष्ट्रभाषा का समुचित विकास, प्रचार व प्रसार करना किसी भी राष्ट्र का प्रथम कर्तव्य बन जाता है।

शिक्षा का ध्येय स्वाभाविक विकास में सुधार करना है। विवेचना कीजिए।

8.स्त्रियों तथा पिछड़े वर्गों की शिक्षा

यद्यपि भारतीय संविधान में स्त्री व पिछड़े वर्ग की शिक्षा के लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं दिये गये हैं, परन्तु अनुच्छेद 15 (3 व 4) में महिलाओं तथा सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान बनाने पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया है। शातव्य है कि अनुच्छेद 15 (1) में धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर विभेद करने पर रोक लगाई गई है। परन्तु अनुच्छेद 15 (3 व 4) में महिलाओं, बच्चों तथा सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान करने पर किसी प्रकार की रोक के न होने की व्यवस्था की गई है। स्पष्ट है की महिलाओं तथा पिछड़े वर्गों की शिक्षा के लिए विशेष व्यवस्था करने के लिए संविधान की दृष्टि से राज्य पूर्ण स्वतन्त्र हैं। भारतीय महिलाओं एवं समाज के पिछड़े वर्गों की शैक्षिक व सामाजिक स्थिति से भलीभांति परिचित संविधान सभी के सदस्यों ने। संविधान में महिलाओं तथा पिछड़े वर्गों के लिए विशेष व्यवस्था करने का विकल्प खुला रखा है।

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