भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया
यह सही है कि प्रत्येक व्यवस्था को समय-समय पर बदलावों से गुजरना पड़ता है। क्योंकि समयानुसार देश व काल की परिस्थितियाँ भी बदलती रहती हैं जिसके कारण पूर्व की व्यवस्था तत्कालीन परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाती है फलतः व्यवस्था में बदलाव या संशोधन अनिवार्य हो जाता है। ठीक यही स्थिति संविधानों में भी लागू होती है। संविधान स्थायी नहीं होते, यदि ऐसा मान लिया जाए तो संविधानों की तुलना धर्मशास्त्र से की जाने लगेगी। लॉर्ड मैकाले के अनुसार, यदि किसी आदर्श संविधान में संशोधन प्रक्रिया का अभाव है तो वह संविधान जड़ बन जाएगा, उस राष्ट्र की जनता आगे बढ़ती जाएगी, किन्तु संविधान पिछड़ जाएगा।
भारतीय संविधान की परिवर्तनशीलता
भारतीय संविधान अपनी निराली संशोधन प्रक्रिया के फलस्वरूप नम्यता और अनम्यता का सामंजस्य उपस्थित करता है। डॉ० अम्बेडकर ने संविधान सभा में आशा व्यक्त की थी कि इस संविधान में नम्यता और अनम्यता की बुराइयां नहीं रहेंगी और लचीलापन भारत के संविधान की एक विशेषता मानी जाएगी।
हमारे संविधान निर्माता दुष्परिवर्तनशील संविधान के दोषों से परिचित थे। वे जानते थे कि संविधान के स्थायित्व, स्थिरता तथा दृढ़ता का आधार उसकी स्वस्थ एवं शान्तिपूर्ण सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था स्थापित करने की क्षमता तथा आवश्यकतानुसार उसे बदल सकने की योग्यता है। भारतीय संविधान में यह लोच है कि वह परिवर्तनशील समाज के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकता है, परन्तु यह लोच इतनी भी अधिक नहीं है कि संविधान के बुनियादी आदर्श ही टूट जाएँ। संविधान का एक बुनियादी ढाँचा है, जिसे नष्ट या परिवर्तित नहीं किया जा सकता।
भारत के संविधान में संशोधन व संशोधन प्रक्रिया
संविधानों का वर्गीकरण सर्वप्रथम ब्राइस एवं डायसी ने किया। उक्त दोनों ही विद्वान उन संविधानों को लचीला मानते हैं जिनको संसद साधारण कानूनों की भाँति साधारण बहुमत से बदल सकती है। उनके मतानुसार वे संविधान कठोर हैं जिनके बदलने के लिए एक विशेष प्रक्रिया होती है। भारत का संविधान न तो इतना लचीला है जितना कि इंग्लैण्ड का और न ही इतना कठोर है जितना संयुक्त राज्य अमेरिका का भारतीय संविधान के निर्माता यह चाहते थे कि संविधान इतना कठोर न बन जाए कि उसमें बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन न किया जा सके और न ही यह इतना लचीला बन जाए कि सत्तारूढ़ दल केवल अपनी सुविधा के लिए इसमें बार-बार परिवर्तन कर लें। अतः उन्होंने बीच का मार्ग अपनाया।
संवैधानिक संशोधन की प्रक्रिया का वर्णन संविधान के भाग 20, अनुच्छेद 368 में किया गया है। इस अनुच्छेद के अनुसार संविधान में संशोधन तीन प्रकार से हो सकता है
(1) साधारण बहुमत द्वारा संविधान संशोधन
हमारे संविधान के कतिपय अंश ऐसे हैं जिसे संशोधित करने के लिए विशेष बहुमत की जरूरत नहीं है। केवल साधारण बहुमत से संविधान में संशोधन हो सकता है। जैसे- अनुच्छेद 2.34 नये राज्यों का निर्माण, प्रवेश या सीमा में परिवर्तन और तदनुसार प्रथम व चतुर्थ अनुसूची में परिवर्तन) इसके निम्न अनुच्छेदों को भी साधारण बहुमत से बदला जा सकता है जैसे- अनुच्छेद 105, 106, 118, 120, 124 (1), 133(3), 135, 169 (1) आदि।
(2) दो-तिहाई बहुमत द्वारा संशोधन
इसमें उन उपबन्धों को रखा गया है जिनको संशोधित करने के लिए संसद के किसी सदन में विधेयक प्रस्तुत किया जा सकता है। संसद के प्रत्येक विधेयक को सदन की कुल सदस्य संख्या बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान में हिस्सा लेने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जाना आवश्यक है। उसके बाद राष्ट्रपति की सहमति पर विधेयक पारित माना जाएगा और संविधान में आवश्यक संशोधन लागू होगा।
(3) दो-तिहाई बहुमत एवं राज्यों की अनुमति द्वारा संशोधन
इस श्रेणी में संविधान के कतिपय विशिष्ट प्रावधान है जो वास्तव में संघ एवं राज्यों, दोनों से सम्बन्धित हैं। इनके संशोधन के लिए संशोधन को दो चरणों में पार करना होता है सर्वप्रथम संशोधन विधेयक को संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है। संसद के प्रत्येक सदन में विधेयक को सदन की कुल संख्या के बहुमत तथा उपस्थिति व मतदान में हिस्सा लेने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जाना आवश्यक है। द्वितीय, संसद द्वारा उपयुक्त प्रक्रियानुसार जब विधेयक पारित हो जाता है तो वह दूसरे चरण में प्रवेश करता है, जिसमें उक्त संशोधन विधेयक को संघ के राज्यों में से कम-से-कम आधे राज्यों में विधानमण्डलों द्वारा स्वीकृति मिलनी चाहिए। उसके बाद राष्ट्रपति की सहमति से संसद में आवश्यक संशोधन लागू होगा। संविधान संशोधन की यह प्रक्रिया इन विभिन्न संसाधनो के लिए आवश्यक है जो निम्नांकित विषयों से सम्बन्धित है जैसे
- अनुच्छेद 54 – राष्ट्रपति का निर्वाचन
- अनुच्छेद 55- राष्ट्रपति की निर्वाचन प्रणाली।
- अनुच्छेद 72-संघ की निर्वाचन प्रणाली।
- अनुच्छेद 162- संघ के राज्यों की कार्यपालिका शक्ति की सीमा।
- अनुच्छेद 241- केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों के लिए उच्च न्यायालय।
अनु0 368 के उपबन्धों के अधीन रहते हुए संविधान संशोधन विधेयक उसी प्रक्रिया से पारित किए जाते हैं जैसे सामान्य विधेयक। किन्तु कुछ मामलों में संविधान संशोधन विधेयक के पारित करने की प्रक्रिया सामान्य विधेयकों के पारित करने की प्रक्रिया से भिन्न है। साधारण विधेयकों के मामले में जब किसी विधेयक पर संसद के दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाने पर उपबन्ध है (अनु 108), किन्तु यह प्रक्रिया संविधान संशोधन पर लागू नहीं होती है। संविधान संशोधन को सदनों में प्रस्तुत करने के लिए राष्ट्रपति की मंजूरी आवश्यक नहीं है।
राष्ट्रपति संशोधन विधेयक पर अनुमति देने के लिए बाध्य है
अनु0 111 के अनुसार जब साधारण विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिए भेजे जाते हैं तो वह अनुमति न देकर उसे सदनों को पुनर्विचार करने के लिए लौटा सकता है। किन्तु अनु0 368 के अन्तर्गत संशोधन विधेयक पर अनुमति देने के लिए बाध्य है।
इससे स्पष्ट है कि अनुच्छेद 368 उपने में पूर्ण नहीं है और संशोधित विधेयक को पारित करने के लिए साधारण विधान प्रक्रिया के नियमों का सहारा लेना पड़ता है।
संविधान संशोधन प्रक्रिया की विवेचना
संसद मौलिक अधिकारों सहित संविधान की सभी व्यवस्थाओं में परिवर्तन कर सकती है ऐसा प्रायः संविधान को लागू किए जाने के बाद से ही समझा जाने लगा था परन्तु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 27 फरवरी, 1967 को गोकुलनाथ के बाद में जो निर्णय सुनाया गया उससे परिस्थितियां बदल गयीं। इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ही पुराने निर्णयों को अस्वीकार करते हुए कहा कि संसद मौलिक अधिकारों में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती। उपर्युक्त निर्णय से ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई कि संसद आर्थिक और सामाजिक प्रगति की दशा में आगे बढ़ने के लिए कोई कार्य नहीं कर सकती थी।
अतः संविधान में संशोधन करना आवश्यक हो गया और 1971 में संविधान में 24वाँ संशोधन किया गया। इस संवैधानिक संशोधन द्वारा यह निश्चित कर दिया गया कि संसद को संविधान के किसी भी उपबन्ध को (जिसमें, मौलिक अधिकार भी आते हैं) संशोधित करने का अधिकार होगा।
24वें संवैधानिक संशोधन के बाद भी संसद की संविधान में संशोधन करने की क्षमता पर एक नियन्त्रण बना हुआ है। 1973 ई के ‘केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य’ 1980 में मिनर्वा मिल्स विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि संसद मौलिक अधिकार सहित संविधान के किसी भी भाग में परिवर्तन कर सकती है, लेकिन ‘संविधान का एक मूल ढांचा है जिसे समाप्त नहीं किया जा सकता। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्ति की सीमा निर्धारित कर दी है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया है कि संविधान
परसंस्कृति ग्रहण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
के मूल ढांचे में कौन-कौन सी व्यवस्थाएँ आती है। 24 में संवैधानिक संशोधन (1971) द्वारा संशोधन प्रक्रिया की एक अस्पष्टता को दूर कर दिया गया है। इस संवैधानिक संशोधन में यह कहा गया है कि जब कोई संविधान संशोधन विधेयक संसद के दोनों सदनों से पारित होकर राष्ट्रपति के समक्ष उनकी अनुमति के लिए रखा जाए तो राष्ट्रपति को उस पर अपनी अनुमति दे देनी होगी।
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