भारतीय संस्कृति की विशेषताओं में पुरूषार्थ एवं धर्म का योगदान
पुरुषार्थ भारतीय जीवन एवं हिन्दू दर्शन का एक अन्य प्रमुख तत्व रहा है। कर्तव्यों का सही रूप में पालन हो, समाज संगठन रहे एवं व्यक्ति जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य को आसानी से प्राप्त कर सके, इसके लिए भारतीय दर्शन के चार प्रमुख पुरुषार्थो का उल्लेख किया है। ये हैं-धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष मोक्ष जीवन का साध्य (END) है तथा धर्म, अर्थ एवं काम तीन पुरुषार्थ इस सर्वोच्च साध्य की प्राप्ति हेतु साधन (Means) हैं। यही कारण है कि कभी-कभी पुरुषायों की व्याख्या में केवल तीन को ही सम्मिलित किया जाता है। आगे हम इन चारों पुरुषार्थों पर संक्षेप में प्रकाश डाल रहे हैं।
धर्म प्रथम पुरुषार्थ है जिससे आशय व्यक्ति के द्वारा अपने समस्त कर्तव्यों के उचित पालन एवं निर्वाह से है। प्रत्येक व्यक्ति से आशा की जाती रही है कि वह अपने वर्ण आश्रम वंश, आयु तथा समाजिक स्थिति में सम्बन्धित धर्म अर्थात् कर्तव्यों का पालन करे। धर्म के बारे में पी. वी. काणे (P.V. Kane) लिखते हैं, “धर्म का सम्बन्ध किसी ईश्वरीय मत से न होकर आचार संहिता से है जो व्यवहारों को नियंत्रित करती है। भारतीय दर्शन व्यक्ति के तीन धर्मों सामान्य धर्म, विशिष्ट धर्म एवं आत्मधर्म का उल्लेख किया गया है।
व्यक्ति की आर्थिक क्रियाओं एवं धन के अर्जन एवं संग्रह से सम्बन्धित है किन्तु यह भौतिकवादिता हेतु नहीं बल्कि गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने के पश्चात् अपने आश्रितों के भरण पोषण तथा विभिन्न ऋणों से उऋण होने के लिए सम्पादित किये जाने वाले पंचयज्ञों को करने के लिए होता है।
काम को व्यक्ति की यौगिक प्रवृत्ति पर नियंत्रित करने हेतु एक पुरुषार्थ के रूप में स्वीकार किया गया। काम से आशय केवल योग इच्छा की तुष्टि से नहीं होता बल्कि इसके द्वारा व्यक्ति अपनी सौन्दर्य प्रियता की प्रवृत्ति को संतुष्ट करता एवं प्रजनन की प्रक्रिया के द्वारा वंश एवं समाज की निरन्तरता को बनाये रखता है। पुत्र की प्राप्ति एक धार्मिक कृत्य माना गया क्योंकि यह पिण्ड दान एवं तर्पण के द्वारा अपने पितरों की आत्मा को शान्ति प्रदान करता है।
मोक्ष को साध्य एवं अन्तिम पुरुषार्थ के रूप में स्वीकार किया गया जब व्यक्ति धर्म, अर्थ एवं काम के पुरूषार्य के अनुरूप व्यवहार करता है तभी वह मोक्ष का अधिकारी हो सकता है। इसकी प्राप्ति के पश्चात् ही आत्मा, परमात्मा में विलीन होकर अमरत्व को प्राप्त होता है।
नातेदारी की प्रमुख श्रेणियों का उल्लेख कीजिए।
धर्म भारतीय हिन्दू सामाजिक व्यवस्था का मूलाधार, उसकी आत्मा एवं सबसे प्रमुख संस्था रही है। धर्म का अर्थ होता है धारण करना तथा इन अर्थो में भारतीय समाज अपना जीवन ज्योति, कार्य-कलापों, सामाजिक दायित्वों के स्पष्टीकरण एवं विभाजन के लिए प्रमुख रूप से धर्म पर ही आधारित रहा है। चाणक्य सूत्र में उचित ही कहा गया है- धर्मेण धार्यते लोकः। अर्थात् सम्पूर्ण जगत धर्म पर ही अवलम्बित है।
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