भारतीय समाज सदा से ही धर्मपरायण समाज है और संसार में अपनी विशेषता के उत्तर कारण उसका आदर है। धर्म की यह परम्परा भारतीय समाज की अति प्राचीन परम्परा है और पूर्व-वैदिक काल से इसकी निरन्तरता अविच्छिन्न रूप में बनी हुई है। धर्म ही भारतीय जीवन का सर्वोच्च आदर्श माना गया है। यह विश्वास किया जाता है कि मनुष्य के सभी क्रिया-कलापों का अन्तिम लक्ष्य धर्म-संचय करना है। भारतीय समाज-व्यवस्था का विकास पाश्चात्य समाज के विकास की भाँति अर्थ या भौतिक वस्तुओं को आधार मानकर नहीं हुआ है। जिस प्रकार पाश्चात्यु समाज अर्थ व भौतिक सुख-प्राप्ति पर अवलम्बित है, अपने प्रत्येक कार्य में भौतिक सुख को प्रमुखता देता है, उसी प्रकार भारतीय समाज धर्म पर होते हैं। धारयतीति धर्मः । जो समाज का, व्यक्ति का धारण करे वह धर्म है। यह धर्म की पहली परिभाषा है। जैसे अग्नि का धर्म उष्णत्व है- उष्णता न हो तो अग्नि की सत्ता ही नहीं रह जाएगी ऐसे ही धर्म न हो तो, हिन्दू समाज भी अस्तित्वहीन, अर्थहीन हो जाएगा। धर्म पर ही इसकी संस्कृति अवलम्बित है।
भारतीय समाज में धर्म के बिना जीवन की कल्पना आज भी नहीं की जा सकती, क्योंकि भारत की 82 प्रतिशत जनसंख्या गाँव में निवास करती है और गाँव की जनता आज भी धर्मपरायण है। भारतीय मान्यता यही है कि धर्म के बिना जीवन को बनाए रखना ही असम्भव है ‘धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ‘ अर्थात् धर्म का जो नाश करेगा, धर्म उसका नाश कर देगा, पर जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। यह प्राचीनतम सिद्धान्त भारतीय जीवन के प्रत्येक पक्ष में प्रत्यक्ष है। इसीलिए उपदेश यही है कि “धर्म के अनुसार चलो। परमेश्वर के सम्मुख नम्र रहो, यह दासता भी कल्याणमय है क्योंकि इसी दासता के माध्यम से तुम्हें अपने जीवन में ‘परम’ (मोक्ष) की प्राप्ति होगी।” भारत में जीवन का धार्मिक आधार इसी से स्पष्ट है। फिर भी निम्नलिखित विवेचना इस सम्बन्ध में और भी उपयोगी सिद्ध होगी
(1) जगत् जीवन का आरम्भ और धर्म
जगत् और जीवन का आधार भी धर्म है। भारतीय मान्यता के अनुसार इस विश्व और ब्रह्माण्ड का सृष्टिकर्ता केवल एक ईश्वर है। मनु दी की मान्यता है कि इस जगत् की उत्पत्ति का मूल कारण परमात्मा है। उनके अनुसार सृष्टि के आरम्भ होने से पूर्व जगत् सम्पूर्ण भू-अन्धकारमय था। स्वयं परमात्मा इस स्थिति को सहन न कर सके और उन्होंने अपने पराक्रम से अन्धकार को आलोक में बदला। इस प्रकार यह सम्पूर्ण जह तथा चेतन जगत् उसी सर्वशक्तिमान परमात्मा की अभिव्यक्ति है। मनु के अनुसार यह संसत मायामय तथा सारहीन नहीं अपितु मानव-जीवन के लिए धर्म तथा कर्म-क्षेत्र है। इसी संसार में अपने धर्मानुसार आचरण के द्वारा ही जीवन के परम लक्ष्य अर्थात् ‘परम् सत्य’ की ओर बढ़ा सकता है।
वेदान्त सूत्र के अनुसार जीव ब्रह्म का ही अंश है। गीता में भी कहा गया है, “ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।” अर्थात् आविर्भाव के पहले जीव ब्रह्म के अन्तर्गत रहता है, अतएव ब्रह्म ही रहता है। फिर ब्रह्म से पृथक होकर शत सहस्त्र जन्म-मरण के प्रवाह में असंख्य सुख-दु:ख, पाप-पुण्य तथा धर्म-ज्ञान से अभिज्ञता प्राप्त कर जीव की जीवन-यात्रा एक दिन समाप्त होती है और उस दिन फिर वह परम ब्रह्म में आ मिलता है। इस प्रकार फिर आ मिलने की अवधि मनुष्य द्वारा किए गए धर्म-कर्म पर निर्भर करती है। धर्म के अनुसार कर्म मनुष्य को जीवन-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति देता है और उसे ईश्वर से एकाकार होने में मदद करता है। इस प्रकार जीवन धर्म से ही आरम्भ होता है और धर्म में ही उसका अन्त होता है।
(2) उत्सव, पर्व व त्यौहार एवं धर्म
उत्सव, पर्व और त्यौहार सामाजिक जीवन के महत्वपूर्ण अंग हैं और इन पर भी हमें धर्म का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। हिन्दू या मुसलमान अथवा सिक्ख के प्रायः सभी पर्व, धर्म उत्सव और त्यौहार किसी-न-किसी रूप में धर्म से सम्बन्धित हैं एवं उनमें धार्मिक कृत्यों को ढूँढ़ना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं है।
(3) जीवन के कर्त्तव्य
कर्म तथा धर्म भारतीय जीवन के जितने भी प्रमुख कर्त्तव्य हैं वे भी सब धर्म पर ही आधारित है। हिन्दू-जीवन-दर्शन के अनुसार शास्त्र विहित कर्म ही धर्म हैं। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, त्याग आदि सार्वभौम कर्त्तव्य-कर्म है और इन सबका आधार धर्म ही है। जीवन के आधारभूत कर्तव्य कर्मों में यज्ञ का स्थान उल्लेखनीय है। यह जीवन निरर्थक है जो कि यज्ञ-विहीन है और यज्ञ का आधार धर्म ही है।
मुसलमानों में भी स्थिति बहुत कुछ यही है। कुरान के अनुसार, “सदाचार इसमें नहीं है कि तुम केवल नमाज पढ़ो, बल्कि सदाचार का अर्थ है अल्लाह, अन्तिम दिन, देवदूत, कुरान और पैगम्बर में विश्वास। इन पर विश्वास रखते हुए जो लोग अल्लाह के प्रेम के लिए अपना धन अपने भाई-बन्धुओं, अनाथों, निर्धनों, यात्रियों तथा भिखारियों को व कैदियों को छुड़ाने के लिए देते हैं और जो प्रार्थना करते हैं तथा दान देते हैं, और जो अपने अनुबन्ध या इकरार पूरे करते हैं, जो विपत्ति, कठिनाई तथा अशान्ति के समय धैर्यशील होते हैं और जो अल्लाह या कुरान के नियमों से डरते हैं, ये सब सदाचारी हैं।” मुस्लिम मान्यता के अनुसार जीवन को उच्चतम आदर्शों तथा लक्ष्यों की प्राप्ति कुरान के अनुसार जीवन व्यतीत करने से ही सम्भव है।
(4) जीवन-पथ के संस्कार और धर्म
व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक शुद्धि, सुधार या सफाई के लिए किए जाने वाले अनुष्ठानों को ही संस्कार कहते हैं। संस्कारों के माध्यम से ही एक व्यक्ति समाज का पूर्ण विकसित सदस्य बन सकता है। पर जीवन पथ के ये सभी संस्कार किसी-न-किसी रूप में धर्म से सम्बन्धित व धर्म पर आधारित होते हैं। वास्तव में धार्मिक आधार पर व्यक्ति के जीवन को परिशुद्ध तथा पवित्र बनाने के उद्देश्य से ही संस्कारों का जन्म हुआ है। इस प्रकार जन्म से लेकर मृत्यु तक सम्पूर्ण जीवन ही धर्म पर आधारित हो जाता है।
(5) पारिवारिक जीवन तथा धर्म
भारत में व्यक्ति का पारिवारिक जीवन भी धर्म पर आधारित है। परिवार बसाने के लिए अर्थात् पारिवारिक जीवन में प्रवेश पाने के लिए विवाह अनिवार्य है और हिन्दुओं में तो विवाह स्वयं ही एक धार्मिक संस्कार है। इसमें देवता को साक्षी मानकर कन्या का दान किया और लिया जाता है, अग्नि देवता का हवन किया जाता है और अन्य अनेक धार्मिक क्रिया कलापों को करना होता है। मुसलमानों में विवाह एक शिष्ट सामाजिक समझौता है, फिर भी निकाह (विवाह संस्कार) के समय मुल्ला या काज़ी जी की उपस्थिति कुछ न कुछ धार्मिक आधार की ओर संकेत करती है। हिन्दुओं में यह आधार बहुत ही ठोस है। यह बात इसी से स्पष्ट है कि हिन्दुओं में पत्नी को धर्म-पत्नी व पति को पति देवता कहा जाता है।
(6) राजनीतिक जीवन और धर्म
प्राचीन भारत में राजनीतिक जीवन का भी एक धार्मिक आधार होता था। प्रत्येक राजा के दरबार में एक राजपुरोहित या राजगुरु होता था जिसकी आज्ञा का पालन राजा भी करता था। शासन कार्य में भी राजा अपने राजगुरु से परामर्श करता था। परम्परागत रूप में राजनीतिक जीवन के धार्मिक आधार का एक और प्रमाण ‘राजधर्म’ की अवधारणा में देखने को मिलता है। राजधर्म राजा के कर्त्तव्यों को बताता है। विष्णुस्मृति के अनुसार राजा का प्रमुख कार्य प्रजापालन अर्थात् प्रजा के अधिकाधिक सुख, शान्ति और समृद्धि – के लिए प्रयत्नशील रहना दुष्टजनों को दण्ड देना तथा धर्म की रक्षा करना है। आधुनिक समय में राजनीतिक जीवन का धार्मिक आधार बहुत-कुछ दुर्बल हो गया है, पर फिर भी आज भी प्रजातन्त्रात्मक राज्य तक में जनता के प्रतिनिधि (संसद या विधानसभा के सदस्य) ईश्वर के नाम पर ही अपने पद तथा गोपनीयता की शपथ लेते हैं और राजनीतिक नारों में मानव-धर्म के प्रति अपनी निष्ठा को व्यक्त करते हैं।
सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न एवं लोकतांत्रिक गणराज्य” भारतीय संविधान की विशेषता है।
(7) जीवन का अन्त और धर्म
भारत में केवल जीवित अवस्था में ही जीवन धर्म पर आधारित नहीं है अपितु जीवन का अन्त हो जाने अर्थात् मृत्यु के बाद भी ‘जीवन’ धर्म पर आधारित है। व्यक्ति के मर जाने पर जो अन्तिम संस्कार किया जाता है वह भी धर्म पर आधारित होता है। हिन्दुओं में मर रहे व्यक्ति को भगवान् का नाम लेने को कहा जाता है अथवा भगवान का नाम कहकर या रामायण आदि धर्मग्रन्थ को पढ़कर सुनाया जाता है, उसके मुह में गंगाजल दिया जाता है, उसके शव को ‘रामनाम सत्य है’ कहते हुए श्मशान घाट तक ले जाया जाता है, उसकी देह की अस्थियों को जली हुई राख को गंगा अथवा अन्य किसी पवित्र नदी में बहा दिया जाता है, तेरहवीं के दिन हवन आदि किया जाता है। मुसलमानों में भी ‘जनाजा’ पढ़ना, ‘फातिहा’ पढ़ना आदि। मृतक संस्कार के आवश्यक अंग हैं। इससे भी धार्मिक आधार का ही पता चलता है।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि भारतीय समाज में धर्म की महती भूमिका है। बिना धर्म के किसी भी कार्य को सम्पन्न किया जाना सम्भव नहीं है।
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