भारतीय समाज के दार्शनिक आधार के अंतर्गत उन सिद्धांतों को रखा जाता है जिन्होंने परम्परागत हिन्दू सामाजिक संगठन में व्यक्ति के जीवन को परिष्कृत कर उसे उसके लक्ष्यों एवं कर्तव्यों का बोध कराने में योगदान दिया है। इन सिद्धान्तों के आधारों में धर्म, पुरुषार्थ, कर्म का सिद्धान्त, मण तथा यज्ञ सर्वाधिक प्रमुख है।
धर्म
धर्म हिन्दू सामाजिक संगठन का केन्द्रीय आधार है जिसको परिभाषित करते हुए कहा गया है कि धर्म चारों वर्णों एवं आश्रमों के सदस्यों द्वारा जीवन के चार पुरुषायों के संबंध में पालन करने योग्य मनुष्य का सम्पूर्ण कर्तव्य है। अर्थात् हिन्दू धर्म को जीवन के कर्तव्य कर्म के में देखा गया है तथा वर्ण-धर्म, आश्रम धर्म, कुल धर्म, राज-धर्म, स्व-धर्म आदि के रूप में वर्गीकृत कर व्यक्ति के स्वयं के प्रति और सम्पूर्ण समाज के प्रति कर्तव्यों को निर्धारित किया गया है और सामाजिक जीवन के सभी पक्षों को धर्म के साथ सम्बद्ध कर व्यक्ति को समाज के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु निर्देशित किया गया है। इसे निम्न बिंदुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है-
1. भारतीय मान्यता के अनुसार इस विश्व और ब्रह्माण्ड का सृष्टिकर्ता केवल एक ईश्वर है। मनु के अनुसार इस प्रकार यह सम्पूर्ण जड़ तथा चेतन जगत् सर्वशक्तिमान परमात्मा की अभिव्यक्ति है और मानव जीवन के लिए धर्म तथा कर्म क्षेत्र है। इसी संसार में अपने धर्मानुसार आचरण के द्वारा ही जीवन के परम लक्ष्य अर्थात् ‘परम सत्य’ की ओर बढ़ा जा सकता है।
2. उत्सव पर्व और त्यौहार सामाजिक जीवन के महत्वपूर्ण अंग हैं और इन पर भी हमें धर्म का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। नवरात्र, दशहरा, दीपावली नामपंचमी, गणेश चतुर्थी, जन्माष्टमी, तीज, करवाचौथ आदि हिन्दुओं के महत्वपूर्ण व्रत हैं और इनमें से प्रत्येक में किसी न किसी देवी-देवता को पूजने का विधान है।
3. भारतीय जीवन के सभी प्रमुख कर्तव्य धर्म आधारित है। हिन्दू जीवन दर्शन के अनुसार शास्त्र विहित कर्म ही धर्म है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, त्याग आदि सार्वभौम कर्त्तव्य हैं और इन सबका आधार धर्म ही है। जीवन के आधारभूत कर्तव्य कर्मों में यज्ञ का स्थान महत्वपूर्ण है।
4, व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक शुद्धि या सुधार के लिये किये जाने वाले अनुष्ठानों को ही संस्कार कहते हैं जिसके माध्यम से ही एक व्यक्ति समाज का पूर्ण विकसित सदस्य बन सकता है। जीवन पथ के ये सभी संस्कार किसी न किसी रूप में धर्म से सम्बन्धित व धर्म पर आधारित होते हैं।
5. सफल जीवन के लिए शिक्षा एक आवश्यक शर्त है और भारत में बच्चे के जीवन में यह विद्यारम्भ भी धार्मिक आधार पर ही होता है। हिन्दुओं में इस संस्कार के अवसर पर विधिवत् पट्टी पूजन किया जाता है। आज भी ग्रामीण समुदायों में कुछ लोग लिखना पढ़ना इस उद्देश्य में सीखना चाहते हैं कि वे धार्मिक पुस्तकों को पढ़ सके।
6, भारत में व्यक्ति का पारिवारिक जीवन भी धर्म पर आधारित है। पारिवारिक जीवन में प्रवेश पाने के लिये विवाह अनिवार्य है और हिन्दुओं में तो विवाह स्वयं ही एक धार्मिक संस्कार है। हिन्दुओं में पत्नी को धर्म-पत्नी व पति को पति-देवता कहा जाता है।
पुरुषार्थ
पुरुषार्थ का अर्थ मानव जीवन के उद्देश्यों एवं लक्ष्यों से संबंधित है जिसमें धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के रूप में चार पुरुषार्थों को शामिल किया जाता है-
- धर्म,
- अर्थ,
- काम,
- मोक्ष।
इन सभी पुरुषायों में धर्म को सर्वप्रमुख स्थान दिया गया है जिसके बिना अन्य किसी मी पुरुषार्थ को समुचित रूप से पूरा नहीं किया जा सकता। एक पुरुषार्थ के रूप में धर्म का तात्पर्य उन सभी कर्त्तव्यों से है जो लोकहितकारी हैं तथा जिनके द्वारा व्यक्ति को इस जीवन तथा पारलौकिक जीवन में ‘अभ्युदय’ की प्राप्ति होती है। इस पुरुषार्थ की प्राप्ति के लिए हिन्दू व्यवस्था में सभी व्यक्तियों के अनुकूल कर्तव्य निर्धारित किये गये हैं। वर्ण-धर्म, आश्रम- धर्म एवं विभिन्न स्थितियों में व्यक्ति के भिन्न-भिन्न कर्त्तव्यों के निर्धारण में भी पुरुषार्थ के रूप में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान है।
‘अर्थ’ दूसरा महत्वपूर्ण पुरुषार्थ है जिसके बिना वैयक्तिक, पारिवारिक तथा सामाजिक दायित्वों की पूर्ति नहीं की जा सकती। अर्थ का तात्पर्य उन सभी पदार्थों तथा साधनों से है जिनकी सहायता से व्यक्ति अपने विभिन्न सांसारिक दायित्वों को पूरा करता है। पुरुषार्थ की यह विशेषता है कि इसने व्यक्ति के सामने धर्म और मोक्ष का आदर्श प्रस्तुत करने के बाद भी उसे अन्य व्यक्तियों के प्रति अपने कर्तव्यों से पृथक हो जाने की अनुमति नहीं थे। इसी कारण ‘अर्थ’ को एक पुरुषार्थ का रूप देकर व्यक्ति को उद्यम करने को प्रोत्साहन दिया गया। परन्तु धन के संचय और आर्थिक समृद्धि की प्रतिस्पर्द्धा से सामाजिक संघयों की रक्षा के लिए व्यक्ति को केवल गृहस्थ आश्रम में ही आर्थिक क्रियाएं करने की अनुमति दी गयी। हमारे समाज में ‘अर्थ’ की प्राप्ति स्वयं में एक लक्ष्य न होकर, लक्ष्य प्राप्ति का एक साधन मात्र है। इसी आधार पर आर्थिक साधनों को उद्यम से प्राप्त करने का आदेश देकर भी इसे धर्म की धारणा से मिला दिया गया जिससे व्यक्ति ईमानदारी व न्यायोचित ढंग से आर्थिक साधनों को प्राप्त करे तथा सम्पत्ति का उपभोग और उत्पत्ति इस प्रकार हो कि सामान्य कल्याण में वृद्धि हो सके।
पुरुषायों के अन्तर्गत ‘काम’ को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। यद्यपि ‘काम’ को सांसारिक जीवन के आधार के रूप में स्वीकार किया गया लेकिन इसे सबसे निम्न कोटि का पुरुषार्थ माना गया। व्यापक अर्थों में काम का तात्पर्य उन सभी इच्छाओं से ही है जो इन्द्रियों की सन्तुष्टि से सम्बन्धित हैं और जो मनुष्य को भौतिक सुख की ओर प्रेरित करती है।
काम को एक पुरुषार्थ के रूप में तीन आधारों पर स्वीकार किया गया है। (1) जैविकीय आधार पर विभिन्न इच्छाओं के कारण व्यक्ति में उत्पन्न तनाव को जैविकीय क्रिया के द्वारा सन्तुष्ट करना। (2) सामाजिक आधार पर प्रजनन अथवा समाज की निरन्तरता बनाये रखने के लिए काम की पूर्ति, (3) धार्मिक आधार पर काम को केवल उसी सीमा तक मान्यता दी गयी है जहाँ तक यह व्यक्ति की अति आवश्यक इच्छाओं और इन्द्रियजन्य वासना को शान्त करने में सहायक है।
मोक्ष अंतिम और सर्वाधिक प्रमुख पुरुषार्य है जिसे हिन्दू जीवन का अंतिम उद्देश्य माना जाता है। व्यक्ति जब सात्विक ज्ञान प्राप्त कर लेता है तब उस पर पड़ा हुआ माया का आवरण हट जाता है और व्यक्ति स्वयं को माया से भिन्न अनुभव करने लगता है। इस स्थिति में प्रकृति अथवा माया व्यक्ति को प्रभावित नहीं कर पाती और इस प्रकार व्यक्ति ‘कैवल्यता’ (बन्धनों से पूर्ण छुटकारा) की स्थिति को प्राप्त कर लेता है।
उपरोक्त चारों पुरुषार्थों में माक्ष को मानव जीवन के अंतिम एवं सर्वोच्च लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया है जिसका संबंध अलौकिक जगत की सत्ता से है अर्थात् जीवन-मरण के चक्र से मुक्त होना, अर्थात् आत्मा का परमात्मा में विलीन होना ही मोक्ष माना गया है मोक्ष प्राप्ति के तीन मार्ग हैं-ज्ञान-मार्ग, भक्ति मार्ग और कर्म मार्ग व्यक्ति जब सभी प्राणियों में समानता का भाव रखता हुआ अपने मन को स्थिर कर लेता है अथवा आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है तब इसे ही मोक्ष का ज्ञान मार्ग’ कहा जाता है। इसी प्रकार ‘भक्ति-मार्ग वह है जिसमें ईश्वर के सगुण रूप की उपासना करता हुआ मनुष्य उसके प्रति अपने को पूर्णतया समर्पित कर देता है। कर्म मार्ग के अन्तर्गत मोक्ष प्राप्ति हेतु धर्म के अनुसार अर्थ एवं काम के लक्ष्यों की प्राप्ति पर बल दिया जाता है है।
आश्रम व्यवस्था
हिन्दू दर्शन में सामाजिक संगठन बनाये रखने एवं व्यक्ति के जीवन को संगठित एवं व्यवस्थित करने के लिए आश्रम व्यवस्था के रूप में व्यक्ति के पूरे जीवनकाल को इस तरह नियोजित किया गया ताकि व्यक्ति एवं समाज के बौद्धिक, आध्यात्मिक तथा व्यावहारिक प्रगति को अधिकतम किया जा सके। इस प्रकार हिन्दू दर्शन के अनुसार आश्रम व्यवस्था सामाजिक नियोजन की एक
ऐसी व्यवस्था है जिसमें व्यक्ति के जीवन को इस तरह नियोजित किया जाता है कि वह अपने आयु के विभिन्न स्तरों में अलग-अलग सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए मोक्ष के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कर सके।
इस व्यवस्था के अंतर्गत जीवन को 100 वर्ष मानकर इसे चार आश्रमों में बांटा गया हैं और प्रत्येक आश्रम में संबंधित व्यक्ति के दायित्वों एवं कर्त्तव्यों का निर्धारण किया गया है। ये । निम्न है-
- ब्रह्मचर्य आश्रम (1-25 वर्ष) अध्ययन कार्य करते हुए शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से व्यक्ति के व्यक्तितत्व का विकास।
- गृहस्थ आश्रम (25 से 50 वर्ष) – विवाह संस्कार द्वारा गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर विभिन्न यज्ञों का सम्पादन करना तथा गृहस्थ जीवन से संबंधित दायित्वों का निर्वाह करना। से पृथक
- वानप्रस्थ आश्रम (50 से 75 वर्ष) परिवार से अलग रहकर सांसारिक मोह-माया होने का प्रयास करना।
- संन्यास आश्रम (75 से 100 वर्ष) भ्रमण करते हुए संसार के कल्याण में लगना । एक हिन्दू के जीवन के उपर्युक्त चारों चरणों को मिलाकर आश्रम व्यवस्था का निर्माण होता है।
कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धान्त
कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धान्त हिन्दू सामाजिक संगठन का प्रमुख आधार है जिसकी मान्यता है कि कर्म केवल भौतिक क्रिया नहीं है बल्कि इसके अंतर्गत मानसिक, आध्यात्मिक एवं भावनात्मक सभी क्रियाएँ आती हैं (कायिक, वाचिक और मानसिक) और इस कर्म से उत्पन्न शक्ति द्वारा कर्म फल उत्पन्न होता है।
कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धान्त इस बात पर भी बल देता है कि अच्छे कर्म का अच्छा और बुरे कर्म का बुरा फल होता है, किए गये कर्म का फल नष्ट नहीं होता है और बिना कर्म के फल नहीं मिलता है तथा कर्म का चक्र अनन्त है और मनुष्यों को अपने किए गये कर्म का फल भुगतना ही पड़ता है।
कर्म सिद्धान्त का महत्व एवं दोष बताइए।
इस सन्दर्भ में तीन प्रकार के कर्मों की चर्चा की गई है-
- संचित कर्म (वह कर्म जो इस जीवन में किया जा रहा है)
- प्रारब्ध कर्म (अतीत का कर्म जिसका फल हम भुगत रहे हैं)
- संचयीमान कर्म (वह एकत्रित कर्म जिसका फल हमें भविष्य में भुगतना है ।)
इस सिद्धान्त की मान्यता है कि आत्मा अमर है तथा पुनर्जन्म होता है और इसका सम्बन्ध कर्म फल से होता है। सद्कर्मों द्वारा व्यक्ति के भाग्य में सुधार संभव है। प्रमुख सद्कर्म- यज्ञ, तप, दान, अध्ययन आदि माने गये हैं।
हिन्दू दर्शन में जीवन व्यतीत करने के दो मार्ग बताए गए हैं-
- संन्यासी का मार्ग
- गृहस्थ का मार्ग
इनमें से गृहस्थ के मार्ग को ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है जिसको कर्मयोग के नाम से जाना जाता है।