भारतीय दर्शन में पुनर्जन्म का सिद्धान की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।

भारतीय दर्शन में पुनर्जन्म का सिद्धान- भारतीय दर्शन कर्म सिद्धान्त का कट्ट समर्थक है। कर्म सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्म का फल निश्चित रूप से भोगना पड़ता है। शुभ कर्मों के लिए सुख एवं अशुभ कर्मों के लिए दुःख झेलना पड़ता है। इस लघु जीवन में व्यक्ति द्वारा संपादित सभी कर्मों का फल भोगना सम्भव नहीं है। इसके लिए व्यक्ति को बार-बार जन्म लेना पड़ता है ताकि वह अपने पूर्वजन्म में किए गए कर्मों का फल प्राप्त कर सके। बार-बार जन्म लेना ही पुनर्जन्म है। इस प्रकार पुनर्जन्म का सिद्धान्त कर्म सिद्धान्त से जुड़ा हुआ है। यही कारण है कि भारतीय दर्शन में कर्मवाद के साथ-साथ पुनर्जन्म का भी जोरदार

मन हुआ है। भारतीय दर्शन में मोक्ष जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है। व्यक्ति अज्ञानवश एवं

कुत्सित कर्मों के कारण बन्धनग्रस्त होता है और उसे आवागमन के चक्कर में फँसना पड़ता है। बार-बार जन्म लेना और मरना ही आवागमन है। यह व्यक्ति के दुःखों का मूल कारण है। भारतीय दर्शन का दृष्टिकोण मुख्यत: व्यावहारिक है। मोक्ष की प्राप्ति ही इसका चरम लक्ष्य है। मोक्ष एक ऐसी अवस्था है, जहाँ व्यक्ति जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त हो जाता है। पुनर्जन्म का रुक जाना ही मोक्ष है। इस प्रकार, मोक्ष की सार्थकता सिद्ध करने के लिए पुनर्जन्म आवश्यक है। यदि व्यक्ति पुनर्जन्म के फेरे में न पड़े, तो फिर उसे मोक्ष की आवश्यकता ही क्या है? अतः पुनर्जन्म का विचार मोक्ष को सार्थक बनाने के लिए अपनाया गया है।

वेद भारतीय दर्शन के मूलस्रोत हैं। वेदों में भी पुनर्जन्म का सिद्धान्त पाया जाता है। वैदिक काल के विचारक मानते थे कि मूर्च्छा की अवस्था में आत्मा शरीर छोड़कर कुछ क्षण के लिए अलग हो जाती है। इसी आधार पर उनका कहना था कि मृत्यु के बाद आत्मा का शरीर से अलग होना सम्भव है। डॉ० राधाकृष्णन का विचार है कि वेदों में पुनर्जन्म का विचार नहीं पाया जाता है। डॉ० राधाकृष्णन का यह मत मान्य नहीं है। वेदों में पुनर्जन्म के विचार यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। यह बात सही है कि इनमें पुनर्जन्म के विचार अविकसित अवस्था में विद्यमान हैं, किन्तु पुनर्जन्म के विचार का सर्वथा अभाव बताना अन्यायपूर्ण है।

उपनिषदों में भी पुनर्जन्म के विचार का समर्थन पाया जाता है। जब शरीर क्षीण हो जाता है, तब आत्मा उसे छोड़कर नए शरीर में प्रवेश करती है, ऐसा ऋषि-मुनियों का विश्वास था। यहाँ उपमा के सहारे पुनर्जन्म की व्याख्या हुई है। अन्न की भाँति मरणशील प्राणी उत्पन्न होता है और उसी की भाँति पुनः जन्म लेता है। उपनिषदों में पुनर्जन्म के स्पष्ट विचार देखने को मिलते हैं। गृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है-“मृत्यु के बाद मनुष्य की रोशनी (आँख की) सूर्य में, साँस वायु में, वाणी अग्नि में, मन चन्द्रमा में, शब्द दिशाओं में, शरीर पृथ्वी में, जीव आकाश में, केश पौधों और वृक्षों में और रक्त जल में चला जाता है। व्यक्ति फिर रह क्या जाता है ? रह जाता है उसका कर्म। शुभ कर्म से वह शुभ और अशुभ कर्म से वह अशुभ फल भोगता है।”

उपनिषदों में इस बात की चर्चा पाई जाती है कि व्यक्ति किस प्रकार एक जन्म से अन्य जन्मों को प्राप्त करता है। कर्मफल के अनुसार ही प्राणियों को भावी योनियाँ निर्धारित होती हैं। यह कोई आवश्यक नहीं है कि मनुष्य पुनः मनुष्य योनि में जन्म ले। कर्मफल के अनुकूल व्यक्ति को किसी खास योनि में जन्म लेना पड़ता है। वृहदारण्यकोपनिषद में इसकी सविस्तार व्याख्या पाई जाती है कि व्यक्ति एक जन्म के बाद दूसरे जन्म में किस योनि में प्रवेश करेगा। शुभ कर्म करने से पुनर्जन्म का फेरा नहीं रहता। अशुभ कर्म करने से ही व्यक्ति को बार-बार जन्म-मरण की चक्की में पिसना पड़ता है। सत्यज्ञान होने पर ही व्यक्ति जन्म-मरण के जाल से मुक्त हो जाता है। जब तक व्यक्ति अज्ञ एवं कुकर्मी रहेगा, तब तक उसे आवागमन का कष्ट झेलना पड़ेगा।

गीता में पुनर्जन्म का स्पष्ट चित्रण पाया जाता है। यहाँ कहा गया है, “जिस प्रकार व्यक्ति पुराने वस्त्र को त्यागकर नवीन वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नए शरीर में प्रवेश करती है।” व्यक्ति की कामनाओं की पूर्ति पुनर्जन्म द्वारा ही सम्भव है, इसलिए उसे बार-बार जन्म लेना और मरना पड़ता है।

चार्वाकदर्शन आत्मा को शरीर से पृथक सत्ता के रूप में नहीं मानता। मृत्यु के बाद शरीर के साथ ही आत्मा का भी नाश हो जाता है। जब आत्मा नष्ट हो जाती है, तब इसके पुनः जन्म लेने का कोई अर्थ नहीं होता। इस प्रकार, भौतिकवादी चार्वाकदर्शन पुनर्जन्म का पूर्णतया खण्डन करता है।

बौद्ध मत– बौद्धदर्शन आत्मा की अमरता में विश्वास नहीं रखने पर भी पुनर्जन्म के विचार का समर्थन करता है। इसके अनुसार, जिस प्रकार एक दीपक से दूसरा दीपक जल उठता है, उसी प्रकार एक जीवनज्योति से दूसरी जीवनज्योति जल उठती है। एक जीवन को अंतिम साँस दूसरे जीवन की प्रारंभिक साँस बन जाती है। इस प्रकार, बौद्धों का पुनर्जन्म-सम्बन्धी विचार अन्य भारतीय दार्शनिकों के विचारों से सर्वथा भिन्न है।

जैन मत-जैनदर्शन भी पुनर्जन्म को स्वीकार करता है। व्यक्ति अपनी वासनाओं के अनुकूल ही एक शरीर त्यागकर दूसरा शरीर धारण करता है। यहाँ पुनर्जन्म कर्मों का फल माना गया है। जब तक व्यक्ति कर्म के जाल में फँसा है, तब तक उसे आवागमन से छुटकारा नहीं मिलता। मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार हो योनिविशेष में जन्म धारण करता है। मनुष्य अपने कर्मों के आधार पर ही पुनः देव, मनुष्य, पशु या पौधे आदि की योनि में जन्म ले सकता है। जैनदर्शन का लक्ष्य पूर्णता की प्राप्ति है। पूर्णता की प्राप्ति एक जीवन में सम्भव नहीं है, इसीलिए व्यक्ति को बार-बार जन्म लेना पड़ता है।

न्याय-वैशेषिकमत न्याय-वैशेषिक दर्शनों में पुनर्जन्म को प्रमाणित करने के लिए युक्तियों का सहारा लिया गया है। कोई नवजात शिशु जन्म लेते ही हँसने या रोने लगता है, तो यह स्वभावतः प्रश्न उठता है कि वह ऐसा क्यों करता है। इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि पुनर्जन्म में उसने निश्चय ही सुख-दुःख का अनुभव किया है, इसलिए यह जन्म लेते हो हँसना या रोना आरम्भ कर देता है। हंसना सुख का प्रतीक है और रोना दुःख का जब पुनर्जन्म सत्य है, तब पुनर्जन्म भी सिद्ध हो जाता है।

न्याय-वैशेषिक ने एक और युक्ति का सहारा लिया है। विश्व में कुछ सुखी हैं, तो कुछ लोग दुःखो। शुभ कर्म करनेवाले लोग कभी-कभी दुःख झेलते पाए जाते हैं और इसी प्रकार दुर्जन सुख भोगते देखे जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति अपने पूर्वजन्म में किए कर्मों का फल इस जीवन में भोगता है, इसीलिए सज्जन अपने पूर्वजन्म में किए गए कुकर्मों के लिए इस जीवन में कष्ट झेलते हैं। इसी प्रकार, दुर्जन अपने पूर्वजन्म में किए गए शुभ कर्मों के लिए इस जीवन में सुख भोगते हैं। इस तरह पूर्वजन्म का अस्तित्व प्रमाणित होता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि वर्तमान जीवन अतीत का आवश्यक परिणाम कहा जा सकता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि वर्तमान जीवन का भावी जीवन के रूप में प्रतिबिंबित होना स्वाभाविक है।

सांख्य-योग मत-सांख्य-योग के अनुसार शरीर के दो प्रकार होते हैं- (क) स्थूल शरीर और (ख) सूक्ष्म शरीर पंचभूत से बने शरीर को स्थूल शरीर कहते हैं। यह शरीर सबको दिखाई पड़ता है। सूक्ष्म शरीर सूक्ष्मताओं, पंचज्ञानेन्द्रियों, पंचकर्मेंद्रियों एवं अंत:करण (बुद्धि, अहंकार और मन) से निर्मित होता है। सांख्य योग का कहना है कि स्थूल शरीर के नष्ट होने पर सूक्ष्म शरीर रह ही जाता है। स्थूल शरीर के विनाश और सूक्ष्म शरीर के पुनर्जन्म के मध्य की स्थिति को ‘अधिष्ठानशरीर’ कहते हैं। इससे पुनर्जन्म की पुष्टि होती है। सूक्ष्म शरीर ही अन्य शरीर धारण करता है।

सांख्ययोगमत अन्य भारतीय मतों से यहाँ भिन्न हो जाता है। अन्य भारतीय दर्शनों के अनुसार आत्मा ही शरीर के नष्ट होने पर पुनः नए शरीर में प्रविष्ट होती है। किन्तु, सांख्य योग का कहना है कि आत्मा पुनः जन्म धारण नहीं कर सकती, क्योंकि यह शाश्वत, चिरंतन एवं अपरिवर्तनशील सत्ता है। पुनः जन्म धारण करना आत्मा का गुण नहीं कहा जा सकता। इसके अनुसार सूक्ष्म शरीर ही पुनः जन्म धारण करता है, न कि आत्मा।

मीमांसा मत-मीमांसकों के अनुसार धर्म-अधर्म ही पुनर्जन्म के कारण कहे जा सकते हैं। इस दर्शन में कर्म सिद्धान्त को अत्यधिक महत्व प्रदान किया गया है। आत्मा को अपने कर्मों के अनुकूल फल पाने के लिए बार-बार जन्म धारण करना पड़ता है। शुभ कर्म करने से ‘धर्म’ होता है और अशुभ कर्मों के संपादन से ‘अधर्म’ की उत्पत्ति होती है। धर्म और अधर्म के कारण ही आत्मा को बार-बार जन्म धारण करना पड़ता है। जब धर्म-अधर्म का नाश हो जाता है, तब पुनर्जन्म का चक्र भी रुक जाता है।

वेदांतमत शंकराचार्य (के) पुनर्जन्म की स्थापना के लिए किसी नई युक्ति का सहारा नहीं लेते। इनके अनुसार, व्यक्ति जब तक अज्ञानवश यह सोचता है कि आत्मा ब्रह्म से भिन्न है, तब तक वह पुनर्जन्म के चक्कर में फँसा रहता है। इस प्रकार, माया के वशीभूत होकर व्यक्ति बार-बार जन्म-मरण के चक्र में घूमता रहता है।

रामानुज (विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक) का कहना है कि जीव सुख भोगने की कामना से इतना प्रभावित रहता है कि उसे बार-बार जन्म लेना पड़ता है। व्यक्ति की सुख की इच्छाएँ इस जीवन में पूर्ण नहीं हो सकर्ती, इसलिए उसे अन्य जन्म धारण करना पड़ता है।

समाज दर्शन के क्षेत्र बताइये।

आधुनिक भारतीय मत

आधुनिक काल में भी डॉ० राधाकृष्णन, रवीन्द्र, महात्मा गाँधी, स्वामी विवेकानंद, अरविंद आदि भारतीय विचारकों ने पुनर्जन्म में अपना अखण्ड विश्वास व्यक्त किया है। डॉ० राधाकृष्णन ने इसके लिए यह प्रमाण दिया है-“दो प्रेमी प्रथम दृष्टि में हो एक दूसरे से प्रेम करने लगते हैं और वे आपस में इतने घुलमिल जाते हैं, मानो उनका साथ जन्म-जन्मांतर से हो।” राधाकृष्णन का कहना है कि पूर्वजीवन में वे दोनों प्रेमी अवश्य ही घनिष्ठ सम्बन्धी रहे होंगे, तभी उनमें अकस्मात प्रेम एवं आकर्षण का प्रभाव दीख पड़ता है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘साधना’ में पुनर्जन्म का समर्थन किया है।

स्वामी विवेकानंद, अरविंद और गाँधी ने भी अपने-अपने ढंग से पुनर्जन्म का समर्थन किया है। महात्मा गाँधी का इस विषय में यह विचार है-मान लें कि किसी व्यक्ति ने अथक परिश्रम करके विद्योपार्जन किया है। साँप के हँसने से अकस्मात उसकी मृत्यु हो जाती है। अब प्रश्न उठता है क्या उसकी विद्या भी उसकी मृत्यु के साथ समाप्त हो गई ? गाँधीजी का कहना है कि मृत्यु के साथ अर्जित विद्या का नाश नहीं होता। उस विद्या का उपभोग करने के लिए उस व्यक्ति को पुनः जन्म लेना पड़ता है। इस प्रकार, उन्होंने पुनर्जन्म को सिद्ध करने का प्रयास किया है।

पुनर्जन्म सिद्धान्त की आलोचना

कुछ लोगों ने पुनर्जन्म के विरुद्ध कई आक्षेप प्रस्तुत किए हैं। यहाँ प्रमुख आक्षेप इस प्रकार हैं-

(i) पुनर्जन्म का विचार काल्पनिक एवं भ्रान्तिपूर्ण है, क्योंकि व्यक्ति अपने पूर्वजन्म की कोई घटना याद नहीं रख पाता। यह आक्षेप निराधार है। हम अपने वर्तमान जीवन की भी सभी घटनाओं का स्मरण नहीं रख पाते, किन्तु इस आधार पर वर्तमान जीवन को काल्पनिक एवं भ्रांतिपूर्ण नहीं कहा जा सकता। अत: यह आवश्यक नहीं कि जिस विषय की हमें चेतना या यादगारी हो, केवल वही वास्तविक है और जिसके विषय में हम स्मरण न कर सकें, वह मिथ्या है।

(ii) पुनर्जन्म का विचार वंशपरम्परा सिद्धान्त का खण्डन करता है। वंशपरम्परा- सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य के मन और शरीर अपने माँ-बाप के अनुकूल ही प्राप्त होते हैं। इस प्रकार, इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य अपने पूर्वजन्म के कर्मों का परिणाम न होकर अपनी वंशपरम्परा की उपज है।

यह आक्षेप भी निराधार है। यदि वंशपरम्परा के आधार पर मनुष्य के निर्माण की व्याख्या की जाए, तो फिर उसके उन गुणों की व्याख्या कैसे होगी, जो उसके पूर्वजों में नहीं थे। इस प्रकार, वंशपरम्परा का सिद्धान्त यहाँ पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। पुनर्जन्म का सिद्धान्त ही मानव के. निर्माण की व्याख्या में समर्थ है।

(iii) पुनर्जन्म का सिद्धान्त व्यक्ति को इस लोक की अपेक्षा परलोक के लिए अधिक चिन्तनशील बना देता है। यह आपेक्ष भी निराधार है। यदि व्यक्ति यह समझ ले कि उसका भावी जीवन वर्तमान जीवन पर ही आधृत होगा, तो वह निश्चय ही शुभ कर्मों द्वारा अपने भविष्य को सुधारने का प्रयास करेगा। वर्तमान जीवन को सुधारकर ही सुंदर भविष्य की इमारत खड़ी की जा सकती है। इस प्रकार, पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानने पर वर्तमान जीवन की उपेक्षा करने का कोई प्रश्न नहीं उठता। यह सिद्धान्त आशावाद का प्रसार करता है।

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