भारत में सामाजिक परिवर्तन
1. पारिवारिक जीवन में परिवर्तन-
वर्तमान युग में परिवार के परम्परागत कार्यों में परिवर्तन आया है। व्यक्ति के ऊपर से पारिवारिक नियन्त्रण धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है। परिवार के बड़े-बूढ़ों के प्रति मन में श्रद्धा व सम्मान की भावना क्रमशः कम होती जा रही है। शिक्षा का उत्तरदायित्व परिवार से स्कूल और कालेज को मिलता जा रहा है। मनोरंजन का केन्द्र परिवार था, परन्तु आज मनोरंजन करवाने का कार्य बाहरी समितियों के द्वारा पूरा होता है। इस प्रकार अनेकों परिवर्तनों ने परिवारों के ढाँचे को पूर्णतः बदल दिया है।
2. संयुक्त परिवार का विघटन
आज निरन्तर संयुक्त परिवार का विघटन हो रहा है। पहले कृषि युग में परिवार के सदस्यों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जाना पड़ता था और सभी सदस्य एक स्थान पर एक साथ रहकर खेती-बाड़ी करते थे। परन्तु औद्योगिकीकरण के कारण यह एकता नष्ट हो गई क्योंकि इसके फलस्वरूप नौकरी का क्षेत्र अब सारे देश में फैल गया और लोग अपना घर नौकरी की खोज में अलग-अलग स्थानों में जाकर बसाने लगे साथ ही औद्योगीकरण के कारण गाँवों से गृह उद्योग नष्ट हो गए और इनमें लगे कारीगर बेकार हो गए और नौकरी की खोज में गाँव से शहर में आकर बस गए। इससे भी संयुक्त परिवार व्यवस्था का विघटन हुआ।
3. जाति प्रथा में परिवर्तन
आधुनिक युग में जातिवाद की भावना धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। पहले जाति में जो खान-पान सम्बन्धी प्रतिबन्ध पाए जाते थे वे आज धीरे-धीरे शिथिल होते जा रहे हैं। अब लोग एक साथ बैठकर खाना खाते हैं। इस कारण जाति प्रथा सम्बन्धी नियम ढीले होते जा रहे हैं।
4. बाल विवाह में परिवर्तन
बाल विवाह प्रत्येक समाज के लिए एक अभिशाप है। बाल-विवाह नगरों की अपेक्षा ग्रामों में अधिक देखने को मिलते हैं। परन्तु आज नगर के साथ-साथ ग्रामीण युवक भी बाल विवाह से सम्बन्धित बुराईयों को समझने लगे हैं। इस कारण यह प्रथा निरन्तर ,घटती जा रही है। यदि ग्रामवासियों के दृष्टिकोण इसी भाँति परिवर्तित होते गए तो एक समय ऐसा आएगा “जब यह प्रथा देश से समाप्त हो जाएगी। सरकार ने भी बाल विवाह प्रथा की हानियों को देखते हुए बाल-विवाह निषेध कानून बनाए। इनमें शारदा एक्ट 1929 सबसे प्रमुख है।
5. विधवा-पुनर्विवा:-
आधुनिक समय में विधवा-विवाह के सम्बन्ध में लोगों के दृष्टिकोण में परिवर्तन होता जा रहा है। विधवा स्त्री समाज में अभागिन मानी जाती रही है, इसी कारण उन्हें नाना प्रकार के सामाजिक निर्योग्यताओं का शिकार बनकर दुःखद जीवन व्यतीत करना पड़ता था। इस स्थिति से देश की 3-16 करोड़ विधवाओं को मुक्ति दिलाने के लिए सन् 1856 में विधवा-पुनर्विवाह अधिनियम पास किया गया। इसके अतिरिक्त अपने नैतिक आधारों पर भी विधवा-विवाह को उचित ठहराया जाता है, और इसीलिए आज काफी संख्या में विधवा-पुनर्विवाह हो रहे हैं। जो कि वास्तव में भारतीय समाज में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन है।
6. दहेज प्रथा
दहेज प्रथा एक विकट समस्या है। इसके कारण समाज में अनेक दुष्परिणाम उत्पन्न हो गए हैं। आज पढ़े-लिखे शिक्षित लोग इस प्रथा को उचित नहीं मानते हैं। आज दहेज-प्रथा के प्रति उनका दृष्टिकोण परिवर्तित होता जा रहा है। सरकारी कानूनों ने इस दिशा में काफी सहायता की हैं इस प्रकार धीरे-धीरे दहेज-प्रथा के उन्मूलन की आशा की जा सकती है।
7. सामुदायिक जीवन का हास
भारत की सामाजिक सरंचना में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ है कि अब निरन्तर सामुदायिक भावना का हास होता जा रहा है। आज औद्योगीकरण व नगरीकरण के फलस्वरूप समूह के आकार में अत्यधिक वृद्धि हो रही है। जैसे-जैसे नगरों का आकार बढ़ रहा है वैसे-वैसे वैयक्तिक सम्बन्ध भी कम होते जा रहे है। अवैयक्तिक सम्बन्धों का अर्थ है घनिष्ठ सम्बन्ध या हम की भावना का अभाव। जब समुदाय में ‘हम’ की भावना समाप्त हो जाती है तो प्रत्येक समूह या व्यक्ति अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति में लग जाता है और उस अवस्था में उसे समाज के सामान्य स्वार्थों का नहीं अपितु केवल अपने ही स्वार्थों का ध्यान रहता है। सामुदायिक जीवन में यह एक महत्वपूर्ण परिवर्तन है।
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8. स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन
आज भारतीय सामाजिक संरचना में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन स्त्रियों की स्थिति में हुआ है। आज पहले की तरह स्त्री, पुरुष की दासी न होकर उसकी प्रिय बान्धवी है। वर्तमान समय में नौकरी के अवसर केवल पुरुष को न होकर स्त्रियों को भी उपलब्ध है। स्त्रियाँ भी पढ़-लिखकर इस लायक हो गई है कि वे नौकरी कर सकें। इसका परिणाम यह हुआ कि स्त्रियाँ घर से बाहर काम करने को जाती है और पैसा कमाती है। अब स्त्रियाँ आर्थिक तथा अन्य मामलों में परिवार पर कम निर्भर हो गई हैं। उनमें आत्म-विश्वास तथा आत्मसम्मान की भावना पनपी है। स्वतन्त्र होने की इच्छा ने पारिवारिक प्रतिबन्धों से उनकों विमुक्त कर दिया है, पर्दा प्रथा कम हो गई है और स्त्रियों को आत्मविकास का अवसर मिलता है।
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