भारत में पूर्व प्राथमिक शिक्षा
भारत में पूर्व प्राथमिक शिक्षा कोई भी सामान्य बालक 5-6 वर्ष की आयु पूरा करने पर ही स्पष्ट रूप से वाक्य बोल सकता है, लिखने के उपकरणों का ठीक ढंग से प्रयोग कर लेता है तथा मानसिक कार्यों में अपना ध्यान केन्द्रित कर सकता है। इसलिए पहले यह माना जाता था कि बालक 5 या 6 वर्ष की आयु का हो जाने पर ही ज्ञानार्जन योग्य बनता है तथा इसी आयु में बालक को औपचारिक शिक्षा के प्रथम सोपान अर्थात् प्राथमिक स्कूल में भेजा जाता था। परन्तु अब शिक्षाविज्ञों तथा बाल मनोवैज्ञानिकों के द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि सीखने की दृष्टि से बालक के जीवन के प्रथम पाँच-छः वर्ष अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा नैतिक विकास की आधारशिला इसी समय रखी जाती है। किशोरावस्था तथा प्रौढ़ावस्था में उत्पन्न होने वाली अधिकतर विसंगतियों का कारण शैशवावस्था में बालक के विकास में की गई अवधानियों में निहित होता है। इसलिए अब यह स्वीकार किया जाता है कि 5 या 6 वर्ष की आयु में बालक को प्राथमिक स्कूल में औपचारिक शिक्षा हेतु प्रवेश दिलाने से पूर्व भी बालक की देखभाल तथा शिक्षा की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे बालक को सर्वांगीण विकास के पथ पर ठीक ढंग से अग्रसारित करने के लिए तैयार किया जा सके तथा बालक के विकास को गति एवं वांछित दिशा दी जा सके। वर्ष 2002 • में किये गये 86वें संविधान संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 45 को बदलकर इसे शैशवपूर्व देखभाल एवं शिक्षा तक सीमित कर दिया है। इस संशोधन के उपरान्त राज्य का यह कर्तव्य हो जाता है कि यह सभी बालकों को उनके छह वर्ष की आयु पूरी कर लेने तक शैशवपूर्व देखभाल तथा शिक्षा की व्यवस्था करने का प्रयास करें। राज्य की नीति निदेशक सिद्धान्त के रूप में किये गये इस संवैधानिक संकल्प की दृष्टि से सभी को पूर्व प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने की महत्ता एवं आवश्यकता और भी अधिक बलवती हो जाती है।
परन्तु इस सबके बावजूद हमारे देश में पूर्व-प्राथमिक शिक्षा की स्थिति अत्यन्त निराशाजनक है। यद्यपि कुछ संवेदनशील अभिभावकगण अपने बच्चों की पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के प्रति कुछ जागरुक अवश्यक हैं परन्तु पूर्व-प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था संगठित ढंग से न हो पाने के कारण भारत में पूर्व प्राथमिक शिक्षा की वर्तमान अवस्था अत्यन्त दुर्दशाग्रस्त ही है। देश में बढ़ती औद्योगिक प्रगति तथा महिलाओं द्वारा बहुलता के साथ रोजगार के क्षेत्र में प्रवेश करने से पूर्व प्राथमिक शिक्षा की आवश्यकता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। परन्तु राज्य तथा केन्द्र के उपेक्षापूर्ण रवैये के कारण पूर्व-प्राथमिक शिक्षा को राज्य का सहयोग लगभग नहीं के बराबर है। ऐसी स्थिति में पूर्व-प्राथमिक शिक्षा व्यक्तिगत प्रयास व नियन्त्रण के रूप में एक व्यवसाय की तरह से तेजी से फलफूल रही है।
अच्छी पूर्व प्राथमिक शिक्षा संस्थाओं के अभाव में तथा पूर्व-प्राथमिक शिक्षा की बढ़ती माँग को देखत हुए गली-गली में तथाकथित पूर्व-प्राथमिक स्कूल खुल गये हैं, तथा खुलते जा रहे हैं। इन स्कूलों में न तो छात्रों के बैठने के लिए साफ-सुथरे कमरे, उपकरण व अध्यापक हैं, न ही खेलने के प्रांगण हैं। खेल सामग्री, शिक्षण सामग्री, दृश्य-श्रव्य उपकरण, बैठने के समुचित साधन आदि की बात करना तो व्यर्थ है। इन स्कूलों में प्रायः अल्प शिक्षित, बाल मनोविज्ञान से अपरिचित, बेरोजगार युवा लड़कियाँ अत्यन्त अल्प वेतन पर शिक्षिका का कार्य करती हैं। अभिभावकों से अधिक शुल्क लेना, महँगी पुस्तकों व पोशाक के क्रय के लिए विवश करना, तथा बालकों को गृहकार्य के बोझ से लाद देना इन स्कूलों की विशेष उपलब्धियाँ होती है। निःसन्देह भारत में पूर्व-प्राथमिक शिक्षा की स्थिति अत्यन्त शोचनीय है। इस स्थिति में तत्काल सुधार की महती आवश्यकता है।
इसके अतिरिक्त वर्तमान में भारत में पूर्व प्राथमिक शिक्षा की सुविधाएँ मुख्यतः शहरी क्षेत्र तक ही सीमित हैं। अधिकांश पूर्व प्राथमिक स्कूल निजी संस्थाओं के द्वारा संचालित हैं, केवल कुछ ही पूर्व प्राथमिक शिक्षा केन्द्र राज्य या केन्द्र द्वारा संचालित है। यद्यपि कुछ राज्य उदार अनुदानों की सहायता से पूर्व प्राथमिक शिक्षा को कुछ सीमा तक प्रोत्साहित करते हैं तवापि पूर्व-प्राथमिक शिक्षा की वर्तमान दशा सन्तोषप्रद नहीं है। पूर्व प्राथमिक स्कूलों में केवल उच्च वर्ग के धन सम्पन्न परिवारों के बालक ही पढ़ पाते हैं। इन स्कूलों का शुल्क प्रायः बहुत अधिक होता है तथा कार्यक्रम का सम्बन्ध प्रायः सम्पन्न परिवारों के वातावरण से होता है। अधिकांश पूर्व प्राथमिक स्कूलों के पास न तो उपयुक्त भवन हैं और न ही आवश्यक शिक्षण सामग्री होती है। अप्रशिक्षित अध्यापकों का कार्य करना इन स्कूलों की सबसे बड़ी कमी है। अप्रशिक्षित अध्यापक शिशु मनोविज्ञान के मूल सिद्धान्तों के ज्ञान के अभाव में परम्परागत शिक्षण करते हैं जो कि शिशुओं के भाविक विकास में बाधा उत्पन्न करता है। पूर्व-प्राथमिक शिक्षा की वांछित प्रगति न होने के कारण कुकुरमुते की तरह से उगने वाले स्कूल भी हैं। यद्यपि पूर्व-प्राथमिक स्कूल बनाने होने के लिए बेसिक शिक्षा अधिकारी की अनुमति अवश्य होनी चाहिए परन्तु अधिकांश स्कूल बिना मान्यता प्राप्त किये चलाये जाते हैं। ऐसे स्कूलों के संचालन का मुख्य उद्देश्य एक-से-अधिक धन कमाना मात्र होता है। विद्यालय में आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध कराने तथा छात्रों को ठीक ढंग से शिक्षित करने की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जाता है।
नर्सरी स्कूल चलाना एक ऐसा फायदेमन्द व्यवसाय हो गया है कि प्रत्येक सक्षम व्यक्ति अपने मकान के दो कमरों में स्कूल खोलने की इच्छा रखता है। एक ही व्यक्ति द्वारा अनेक नर्सरी स्कूल चलाये जाने के प्रचुर उदाहरण मिलते है। वस्तुतः भारत में पूर्व प्राथमिक शिक्षा अपेक्षित दिशा में प्रगति करने में पूर्णरूपेण असफल रही है। जनसाधारण तथा सरकार के उपेक्षित व्यवहार के कारण पूर्व-प्राथमिक शिक्षा की स्थिति दिन-प्रतिदिन और भी अधिक असन्तोषप्रद होती जा रही है। अधिकांश पूर्व प्राथमिक शिक्षा संस्थाओं में प्रदान की जा रही शिक्षा की गुणवत्ता अत्यन्त निम्न स्तर की है। वास्तव में पूर्व प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में अनेक समस्याएँ बुरी तरह से विद्यमान हैं जिनकी वजह से पूर्व प्राथमिक शिक्षा वांछित गति गति से अपेक्षित दिशा में प्रगति नहीं कर पा रही है। इनमें से कुछ समस्याएँ निम्नवत् हैं
(1) आर्थिक समस्या पूर्व-
प्राथमिक शिक्षा के लिए उचित धनराशि का उपलब्ध न हो पाना सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्या है। ग्रामीण क्षेत्रों में पूर्व प्राथमिक विद्यालयों के न होने से ग्रामीण बच्चे भी इस शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। प्रवेश शुल्क, शिक्षा शुल्क, पुस्तकें, स्टेशनरी, पोशाक आदि के अत्यधिक व्यवसाध्य होने के कारण पूर्व-प्राथमिक शिक्षा दिन-प्रतिदिन सामान्य नागरिकों के पाल्यों की पहुँच से दूर होती जा रही है। आवश्यकता है कि पूर्व-प्राथमिक शिक्षा की लागत को कम किया जाये। शिक्षा संस्थाओं को आर्थिक अनुदान देकर अभिभावकों से लिया जाने वाला प्रवेश शुल्क तथा शिक्ष शुल्क को कम किया जा सकता है। पूर्व प्राथमिक स्तर के छात्रों के लिए कम मूल्य की पुस्तकें व स्टेशनरी प्रदान करने की योजना बनाई जानी चाहिए। देशी सामग्री की सहायता से कम मूल्य के शिक्षण उपकरण विकसित करने के प्रयास भी शीघ्रातिशीघ्र किये जाने चाहिए।
(2) विस्तार की समस्या
वर्तमान में पूर्व प्राथमिक शिक्षा का विस्तार अत्यन्त सीमित है। अधिकांश पूर्व-प्राथमिक संस्थायें शहरों में रहने वाले अमीर वर्ग के बालक-बालिकाओं को पूर्व-प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध करा पाते हैं। ग्रामीण तथा मलिन बस्ती क्षेत्रों में रहने वाले वालकों के लिए पूर्व-प्राथमिक शिक्षा लगभग नहीं के बराबर उपलब्ध हो पाती है। आवश्यकता इस बात की है कि कामकाजी महिलाओं के सभी बच्चों तथा असन्तोषजनक पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले सभी बच्चों के लिए पूर्व-प्राथमिक शिक्षा सुविधा व्यावहारिक रूप से उपलब्ध हो सके। अतः सरकार को ग्रामीण व मलिन बस्तियों में पूर्व प्राथमिक स्कूल खोलने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेनी चाहिए। गाँवों के प्राथमिक स्कूलों में ही खेल केन्द्र खोलकर पूर्व प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की जा सकती है। कम छात्रों की स्थिति में परिवार दिवा परिचर्या केन्द्र खोला जाना लाभप्रद हो सकता है।
(3) उद्देश्यों की अस्पष्टता
भारतवर्ष में पूर्व प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं। यही कारण है कि भिन्न-भिन्न पूर्व-प्राथमिक स्कूलों में भिन्न-भिन्न प्रकार की शिक्षा का आयोजन किया जाता है। मोटे तौर पर पूर्व प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य शिशुओं का शारीरिक, मानसिक सामाजिक तथा संवेगात्मक विकास करना है। पूर्व प्राथमिक शिक्षा की सफलता के लिए इसके उद्देश्यों को स्पष्ट ढंग से निर्धारित करना आवश्यक है। कोठारी आयोग के अनुसार इस स्तर की शिक्षा के मुख्य उद्देश्य शारीरिक अंग संचालन व पेशीय समन्वय का विकास, वातावरण बोध की क्षमता, आत्म अभिव्यक्ति की योग्यता, वैयक्तिक सफाई व स्वच्छता की आदतें, सामान्य शिष्टाचार, जिज्ञासा तथा नैतिकता का विकास आदि होना चाहिए।
(4) दोषपूर्ण शिक्षण विधियाँ-
पूर्व-प्राथमिक स्कूलों में अमनोवैज्ञानिक व दूषित शिक्षण विधियों को प्रयुक्त करना भी एक बड़ी समस्या है। शिशु औपचारिक ढंग से पढ़ाये जाने वाले ज्ञान को समझ नहीं पाता है। अध्यापक प्रायः शिशुओं की भावनाओं के प्रति संवेदनशील नहीं रहते हैं तथा उन्हें अनावश्यक डाँटते-फटकारते रहते हैं। इससे शिशुओं की स्कूल आने की इच्छा समाप्त हो जाती है तथा स्कूल उन्हें एक बन्धन या जेल की तरह प्रतीत होता है। स्कूल में शिक्षण सामग्री व खेल सामग्री का भी अभाव रहता है। ऐसी परिस्थितियों में पूर्व प्राथमिक शिक्षा से लाभ कम तथा हानि अधिक होती है। शिशु अपने माता-पिता व परिवार के स्नेह व संरक्षण से वंचित हो जाता है। तथा उसका सर्वांगीण विकास अवरुद्ध हो जाता है अतः पूर्व-प्राथमिक स्कूलों की शिक्षण प्रक्रिया में सुधार लाने की आवश्यकता है। अध्यापकों को शिशु शिक्षा की शिक्षण कला में निपुण बनाकर तथा इन स्कूलों में खेल सामग्री व शिक्षण सामग्री की आवश्यक व्यवस्था करके शिक्षण प्रक्रिया में सुधार लाया जा सकता है। इस सम्बन्ध में कोठारी आयोग ने शिक्षण प्रशिक्षण में सुधार लाने, शिक्षण सामग्री का विकास करने तथा प्रयोगात्मक पूर्व-प्राथमिक स्कूल खोलने का सुझाव दिया था।
(5) पाठ्यक्रम की समस्या-
अधिकांश पूर्व प्राथमिक स्कूलों में पाठ्यक्रम अनिश्चित रहता है। यद्यपि औपचारिक शिक्षण की पूर्व प्राथमिक शिक्षा में कोई आवश्यकता नहीं होती है। फिर भी अधिकांश पूर्व-प्राथमिक स्कूलों में अत्यन्त बोझिल व पुस्तकीय पाठ्यक्रम बनाकर उसका औपचारिक ढंग से शिक्षण किया जाता है। प्राय: छोटे बालकों को नैसर्गिक विकास के प्राकृतिक अवसर न देकर उन्हें कड़े अनुशासन तथा नियन्त्रण में रखा जाना है। बाल मनोविज्ञान के विशेषज्ञों की सहायता से पूर्व प्राथमिक शिक्षा के लिए एक ऐसा पाठ्यक्रम बनाने की आवश्यकता है जो शिशुओं की शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक सभी प्रकार की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम हो। पूर्व प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में शिशुगीत, गिनती, खेल-कूद, व्यायाम, सामूहिक नृत्य, अभिनय, चित्रकारी, बागवानी, पालतू पशु-पक्षियों की देखभाल, आत्म-अभिव्यक्ति, व्यक्तिगत स्वास्थ्य, खान-पान के सामान्य नियम, शिष्टाचार, आदि बातों को सम्मिलित किया जा सकता है, परन्तु यह सब शिशुओं को अनौपचारिक ढंग से ही सिखाया जाना चाहिए।
(6) प्रशिक्षित अध्यापकों की समस्या-
पूर्व प्राथमिक शिक्षा के गिरने स्तर का मुख्य कारण अयोग्य व अप्रशिक्षित अध्यापक-अध्यापिकाओं द्वारा शिक्षण कार्य कराया जाना है। शिशु मनोविज्ञान व शिक्षण कला के समुचित ज्ञान व विशेष प्रशिक्षण की सहायता से तथा शिशुओं के प्रति स्नेह, ममता व आत्मीयता की भावना से युक्त अध्यापक ही पूर्व-प्राथमिक शिक्षा का सफलतापूर्वक आयोजन कर सकते हैं। निःसन्देह महिला अध्यापिकायें ही शिशुओं की अधिक अच्छे ढंग से देखभाल कर सकती हैं, क्योंकि उन्हें नैसर्गिक रूप से बाल स्वभाव का सम्यक् ज्ञान होता है। परन्तु अविवाहित नवयुवतियाँ मातृत्व के अनुभव व प्रशिक्षण के अभाव में जब कम पारिश्रमिक पर इन स्कूलों में अध्यापन कार्य करती है तो वे शिशुओं को वांछित स्नेह व आत्मीयता नहीं दे पाती है तथा विवाह होने अथवा अधिक वेतन वाला कार्य मिलने पर शिक्षण कार्य छोड़ देती हैं। इस समस्या के समाधान के लिए पर्याप्त संख्या में पूर्व प्राथमिक शिक्षिकाओं के प्रशिक्षण की आवश्यकता है। राज्य सरकार को पूर्व प्राथमिक शिक्षिकाओं के प्रशिक्षण का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेना चाहिए। इसके साथ ही पूर्व-प्राथमिक स्कूलों में कार्य करने वाले अध्यापक-अध्यापिकायें इन स्कूलों को छोड़कर अन्य व्यवसायों में जाने के इच्छुक न रहें इसके लिए उनके वेतन व अन्य सुविधाओं को आकर्षक बनाने की आवश्यकता है। कोठारी आयोग (1964-66) ने भी इस स्तर पर शिक्षण प्रशिक्षण की आवश्यकता पर विशेष बल दिया था।
(7) प्रबन्ध की समस्या
पूर्व प्राथमिक शिक्षा की प्रवन्ध व्यवस्था अत्यन्त शोचनीय स्थिति में है अधिकांश पूर्व प्राथमिक स्कूल व्यक्तिगत प्रबन्ध तन्त्र के द्वारा चलाये जा रहे हैं। केन्द्र सरकार, राज्य सरकार अथवा स्थानीय निकाय का इस स्तर की शिक्षा लगभग कोई हस्तक्षेप नहीं है। किसी भी उच्चस्तरीय शिक्षा संस्था से असम्बद्धता एवं सरकारी शिक्षा विभाग से मान्यता विहीनता की स्थिति ने पूर्व प्राथमिक शिक्षा को दयनीय स्थिति में ला दिया है। पूर्व प्राथमिक शिक्षा की बढती माँग को पूरा करने के लिए व्यक्तिगत प्रबन्ध के अधीन खोले गये अधिकांश स्कूल वास्तव में शिक्षा की सस्ती दुकानें बन कर रह गये हैं। अध्यापिकाओं का आर्थिक व नैतिक शोषण तथा अभिभावकों का घोहन इन स्कूलों की सामान्य दिनचर्या होती है। पूर्व प्राथमिक शिक्षा की कुव्यवस्था को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकारों को इसका समुचित प्रबन्ध करने की कोई व्यवस्था करनी चाहिए। इन स्कूलों को मान्यता देने तथा इन पर नियन्त्रण रखने की भी आवश्यकता है। कोठारी आयोग ने राज्य तथा जिलास्तर पर पूर्व प्राथमिक शिक्षाकेन्द्र खोलने की अनुशंसा की थी।
(8) अभिभावकों में जागरूकता की कमी
पूर्व प्राथमिक शिक्षा के प्रति अभिभावकों में। आवश्यक जागरूकता की कमी भी इस स्तर की शिक्षा की प्रगति में बाधक है। माता-पिता अपने पाल्यों की पूर्व प्राथमिक शिक्षा की आवश्यकता तथा महत्व को अभी भी पहचान नहीं पाये है जिसकी वजह से वे अपने शिशुओं की शिक्षा में कोई रुचि नहीं लेते हैं। पूर्व प्राथमिक शिक्षा के समुचित प्रसार के लिए माता-पिता का सहयोग आवश्यक है। अनेक माता-पिता अपने शिशुओं को इसलिए घर से दूर नहीं करना चाहते हैं, क्योंकि उनके विचार में स्कूल में शिशुओं को स्नेह, सहानुभूति तथा पोषण नहीं मिल पाता है जो वे स्वयं पर पर अपने बच्चों को देते हैं। इस समस्या के समाधान के लिए यह आवश्यक है कि पूर्व प्राथमिक स्कूलों तथा अभिभावकों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध बनाया जाये तथा समाज शिक्षा के कार्यक्रमों के द्वारा अशिक्षित माता-पिता को इस दृष्टि से सजग व बालक के वास्तविक हितैषी माता-पिता बनाने का राष्ट्रव्यापी प्रयास किया जाये।
(9) अनुसन्धान व नवाचारों की कमी पूर्व-
प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में अनुसन्धान व नवाचारों की भी पर्याप्त कमी है। सतत् अनुसन्धान व प्रयोगों से प्राप्त परिणामों की सहायता से ही पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के विभिन्न पक्षों में सुधार लाया जा सकता है। अतः शिक्षा संस्थानों, अनुसन्धानकर्ताओं तथा सरकारी तन्त्र को पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में बहुआयामी अनुसन्धान के उचित कार्यक्रम बनाने चाहिए जिससे शिशु शिक्षा के उद्देश्यों, शैक्षिक कार्यक्रमों, शिक्षण विधियों, पाठ्यक्रमों, शिक्षण सामग्री, अध्यापक प्रशिक्षण आदि से सम्बन्धित नवीन ज्ञान प्राप्त हो सके तथा इस स्तर की शिक्षा संस्थाओं के संख्यात्मक व गुणात्मक विकास में इस ज्ञान का उपयोग किया जा सके।
पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्यों पर प्रकाश डालिए।
उपर्युक्त कमियों के बावजूद भी यह सन्तोष का विषय है कि आम जनता तथा सरकार दोनों ही धीरे-धीरे पूर्व प्राथमिक शिक्षा के महत्व को स्वीकार करने लगे हैं। अतः आवश्यकता इस बात की है कि केन्द्र व राज्य सरकारें व शिक्षाविज्ञ पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के प्रसार की व्यापक योजना बनायें जिससे सभी शिशुओं को पूर्व-प्राथमिक शिक्षा का लाभ मिल सके। केन्द्र व राज्य सरकारें निजी संस्थाओं को उदार अनुदान देकर, पूर्व-प्राथमिक अध्यापकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था करके, तथा राज्य स्तर पर पूर्व प्राथमिक शिक्षा के लिए उपयुक्त साहित्य की रचना व पुस्तकों का प्रकाशन करवा कर तथा अनुसन्धान के स्तर पर पूर्व प्राथमिक शिक्षा के लिए अल्पव्यापी शिक्षण विधियों का विकास या कर इस दिशा में योगदान कर सकती हैं।
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