भारत में मूल अधिकार एवं नीति निदेशक तत्वों के मध्य सम्बन्ध तथा अन्तर की विवेचना कीजिए।

मूल अधिकार एवं नीति निदेशक तत्व, यद्यपि इन दोनों का ही लक्ष्य भारत की प्रगति और भारतीय नागरिकों को विकास के अधिकतम अवसर प्रदान करना है और इस दृष्टि से ‘मूल अधिकार यदि साध्य हैं तो निदेशक तत्व साधन’ लेकिन परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित होते हुए भी इन दोनों में निम्नलिखित महत्वपूर्ण अन्तर हैं

(1) मूल अधिकार न्याय-योग्य (Justifiable) हैं, लेकिन निदेशक तत्व न्याययोग्य नहीं हैं- मूल अधिकार और नीति निदेशक तत्वों में सबसे प्रमुख अन्तर यह है कि मूल अधिकार न्याय-योग्य हैं, लेकिन निदेशक तत्व न्याय-योग्य नहीं है। यदि कोई कानून किसी मूल अधिकार का उल्लंघन करता है तो क्योंकि अनुच्छेद 32 ने सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय को अधिकार दिया है कि वे मूल अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कानूनों को अवैध घोषित कर सकते हैं, लेकिन यदि कोई कानून निदेशक सिद्धान्तों के प्रतिकूल है तो उसे अवैध नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि निदेशक सिद्धान्तों से न तो हमें कोई न्याय योग्य अधिकार प्राप्त होते हैं और न ही संविधान ने उनमें उल्लंघन पर कोई उपचार सुझाया है।

(2) मूल अधिकार निषेधात्मक हैं, जबकि निदेशक तत्व सकारात्मक निर्देश हैं- दूसरा अन्तर यह है कि मूल अधिकार राज्य के लिए कतिपय निषेधाज्ञाएं (Injunctions) जिनके द्वारा राज्य के कतिपय सकारात्मक (Positive) उत्तरदायित्व है और राज्य से आशा की गयी है कि वह नागरिकों के प्रति अपने इन दायित्वों को पूर्ण करेगा।

(3) मूल अधिकार नागरिकों के लिए हैं, नीति निदेशक तत्व राज्य के लिए हैं। ये तत्व राज्य के कर्तव्य निर्धारित करते हैं।

(4) मूल अधिकारों द्वारा राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना की गई है, नीति निदेशक तत्वों का लक्ष्य आर्थिक लोकतन्त्र तथा सामाजिक न्याय पर आधारित व्यवस्था की स्थापना करना है।

मूल अधिकार एवं निदेशक तत्व एक दूसरे के पूरक

“सामंजस्यपूर्ण संरचना (Harmonious Construction) का सिद्धान्त-

संविधान के भाग तीन में सम्मिलित मूल अधिकार एवं भांग चार में उल्लिखित निदेशक तत्व वास्तव में एक ही समूची व्यवस्था के अंग है तथा इन दोनों व्यवस्थाओं का लक्ष्य एक ही है और वह है व्यक्तित्व का विकास तथा लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना। भूतपूर्व न्यायाधीश के. सदानंद हेगड़े ने कहा है कि, “सिद्धान्ततः एक ही संविधान के दो भागों में कोई असंगति नहीं हो सकती। राज्य नीति के निदेशक तत्वों को अपना कर हमारे संविधान निर्माताओं ने कोई असंगति उत्पन्न नहीं की। उनका प्रयत्न वैयक्तिक अधिकार व सामाजिक कल्याण में समन्वय स्थापित करना था।”

प्रदत्त व्यवस्थापन (प्रयोजित विधायन) क्या है? इसके क्या गुण-दोषों का वर्णन कीजिये।

पायली, ग्रेनविल आस्टिन, के, सदानन्द हेगड़े तथा अन्य अनेक लेखकों ने अपनी पुस्तकों में इसी बात पर बल दिया है। वस्तुतः इनका परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध तथा ये एक-दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top