भारत में लैंगिक असमता
भारत में स्त्रियों एवं पुरुषों में लैंगिक असमता निम्न रूपों में देखी जा सकती है
(1) दहेज के कारण उत्पीड़न (Harassment due to dowery)
भारतीय समाज में स्त्री के लिए विवाह में देहज अनिवार्य है। इसलिए दहेज की समस्या एक भयंकर समस्या बनती। जा रही है। आए दिन समाचार-पत्रों में देहज की शिकार अभागी स्त्रियों के जलाने की घटनाओं का विवरण छपा होता है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसी घटनाओं का प्रतिशत बढ़ता ही जा रहा है। और दहेज का समाज के प्रत्येक समुदाय में प्रसार भी होता जा रहा है।
(2) वैधव्य के बारे में दोहरे मापदण्ड (Double standards about widowhood)
स्त्री के लिए वैधव्य सबसे भयानक शब्द है उसका सबसे बड़ा सौभाग्य सुहागिन बनना है। सूनी माँग मृत्यु से भी ज्यादा भयानक है। हिन्दुओं की उच्च जातियों में विधवा के पुनर्विवाह की परम्परा नहीं थी। विधवा से बड़े संयमी और तपस्वी जीवन व्यतीत करने की आशा की जाती थी। इस पर भी उसे अनिष्टकारी माना जाता था और घर की बड़ी-बूढ़ियाँ उसे डायन कहती थीं जो अपने सुहाग को खा गई उससे आशा की जाती थी कि यह यौन सम्बन्धी बातों से विमुख रहेगी, जबकि परिवार के नजदीकी रिश्तेदार और समाज में फिरते भूखे भेड़िए उसकी देह लूटने की चेष्टा करते हैं। यदि जाल में फँस गई तो सारा दोष उसी का है, पुरुष तो उस लांछन से छूट ही जाता है।
(3) महिला के प्रति हिंसा (Violence against women)
स्त्री अनेक रूपों में आज हिंसा का शिकार है। यह हिंसा दो रूपों में देखी जा सकती है प्रथम, घरेलू हिंसा तथा द्वितीय, घर से बाहर हिंसा। पहले रूप का सम्बन्ध घर-गृहस्थी में स्त्री का किया जाने वाला ‘शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न है। विवाह के समय स्त्री सुनहरे स्वप्न देखती है कि अब प्रेम, शान्ति व आत्म-उपलब्धि का जीवन प्रारम्भ होगा। परन्तु इसके विपरीत सैकड़ों विवाहित स्त्रियों के यह सपने क्रूरता से टूट जाते हैं। वे पति द्वारा मार-पीट और यातना की अन्तहीन लम्बी अँधेरी गुफाओं में अपने आपको पाती हैं जहाँ उनकी चीख-पुकार सुनने वाला कोई नहीं। दुःख तो यह है कि ऐसी मार-पीट का जिक्र करने में भी उन्हें लज्जा अनुभव होती है और यदि ये शिकायत भी करें तो खुद उन्हें ही दोषी माना जाता है या उन्हें भाग्य के सहारे चुपचाप सहने की सलाह दी जाती है। पड़ोसी ऐसे मामलों में प्रायः हस्तक्षेप नहीं करते क्योंकि यह पति-पत्नी के बीच एक निजी मामला समझा जाता है। यह पुलिस में रिपोर्ट करने जाएं तो वहाँ भी पुरुष प्रधान संस्कृति में पले पुलिस अधिकारी पहले स्त्री का ही मजाक उड़ाते हैं और रिपोर्ट लिखने में आनाकानी करते हैं। पुरुष को पत्नी की पिटाई का निरपेक्ष अधिकार है और आम आदमी यह मानकर चलता है कि वह पिटने लायक ही होगी, अतः पिटेगी ही।
दुर्भाग्य की बात है कि ऊपर से शान्त और सम्मानित परिस्थिति वाले अनेक परिवारों में, जहाँ पति-पत्नी दोनों शिक्षित हैं और आत्म-निर्भर हैं; भी मार-पीट की घटनाएँ हो जाती हैं और यह नियमितता का रूप लेने लगती हैं। कहीं-कहीं पिता भी अपनी अविवाहित बेटियों के साथ बहुत मार-पीट करते हैं। ऐसी स्थिति में सामाजिक दृष्टि से स्त्री बड़ा असहाय महसूस करती है क्योंकि वह जहाँ कहीं शिकायत करे; चाहे पड़ोसी हो चाहे उसके सगे-सम्बन्धी, चाहे पुलिस, वकील या जज हो, सभी उसे समझौता करने की सलाह देते हैं। सोनल (Sonal) का कहना सही है कि इस घरेलू हिंसा के विरुद्ध संगठित प्रयास किया जाना जरूरी है। नगरों में स्त्रियों को परस्पर बातचीत करना सीखना चाहिए और एक-दूसरे के अनुभवों से फायदा उठाना चाहिए। सबसे बड़ी जरूरत तो ऐसे संरक्षण गृह की है जहाँ ऐसी परिस्थिति में सी अपने बच्चों के साथ सिर छिपा सके और फिर इसी दशा में आवश्यक कदम उठा सके। यहाँ यह बता दिया जाना आवश्यक है कि कानून की दृष्टि से स्त्री के प्रति यह घरेलू हिंसा एक अपराध है और पुलिस का यह दायित्व है कि ऐसे मामलों की जाँच करे। ऐसा न करना उनकी कार्य के प्रति लापरवाही समझी जाती है जो दण्डनीय है। किसी भी व्यक्ति के प्रति हिंसा निजी विषय नहीं हो सकता, यह तो सार्वजनिक मामला है।
स्त्रियों शारीरिक हिंसा की शिकार अनेक साम्प्रदायिक दंगों या युद्धों में सदा से होती रही है। यहाँ भी पुरुष प्रधान सांस्कृतिक दृष्टिकोण का दोष है। शत्रु को सबसे अधिक अपमानित करने, उसका हौंसला तोड़ने और उसे सबक सिखाने का सबसे कारगर तरीका यही समझा जाता है कि शत्रु की स्त्रियों का नग्न जुलूस निकाला जाए या उनसे सामूहिक बलात्कार किया जाए। यह पशुता मानवीय सभ्यता पर कलंक है। इस दिशा में स्वस्थ सांस्कृतिक पुनर्निमाण की आवश्यकता है। स्त्री का शारीरिक स्वशुचिता को ही सर्वाधिक मूल्य समझना मूर्खता है और उसे बलात्कार या यौन उत्पीड़न को भी शरीर सम्भोग के अपराध के रूप में बलात्कारी को अतिरिक्त रूप से दण्डित किया जाना चाहिए।
(4) स्त्री हत्या (Femicide)
स्त्री हत्या वह हत्या कहीं जा सकती है जो उस समय हो जबकि वह माँ के गर्भ में है, या जन्म लेने के बाद स्त्री-शिशु हत्या के रूप में है और चाहे जलती बहू या किसी अन्य प्रकार के उत्पीड़न के मारने के रूप में है। इतना ही नहीं, इसमें ऐसी घटनाएँ भी शामिल हैं जिनमें ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर दी गई हों कि स्त्री ने मजबूर होकर आत्महत्या कर ली हो। अब तो एक नया तरीका गर्भ में लिंग निर्धारण या मेडिकल परीक्षण है जिसे (Amniocentesis) कहा जाता है जिसके द्वारा यह पता चल जाता है कि गर्भ में लड़का है या लड़की, और हजारों की संख्या में लोग, यह पता लगने पर कि गर्भ में लड़की है, गर्भपात करा लेते हैं। जन्म लेने से पहले ही महिला की हत्या हो जाती है।
बहुत-से कुतर्की कहते हैं कि अगर पहले से ही किसी के कई लड़कियाँ है तो ऐसे माँ बाप का, जहाँ केवल लड़के की चाह है, ऐसा करना अनुचित नहीं है। अनचाहे शिशु को जन्म देने से क्या लाभ? परन्तु यह तर्क तो ऐसा है। जैसे यह कहना कि हम गरीबों को नहीं चाहते तो गरीबों को मार ही क्यों न दिया जाए या फिर जिस माता-पिता के पहले से कई लड़के हैं और गर्भ परीक्षण से पता चले कि गर्भ में फिर एक लड़का है तो क्या ऐसे में भी वह गर्भपात कराना चाहेंगे? कदापि नहीं। वास्तव में पुत्र या पुत्री में अन्तर किया जाना ही दोषपूर्ण है। सच तो यह है कि पुत्र या पुत्री के चरित्र व आचरण से परिवार का नाम चलता है न कि मात्र पुत्र के द्वारा।
(5) तलाक द्वारा उत्पीड़न (Harassment due to divorce)
पति-पत्नी के वैवाहिक सम्बन्धों का कानूनी दृष्टि से विच्छेद किया जाना तलाक है। तलाक के विभिन्न समुदायों में भिन्न-भिन्न आधार हैं परन्तु तलाक स्त्री के लिए पुरुषों की अपेक्षा अधिक कष्टकारी और आघातपूर्ण घटना है। अदालत की लम्बी प्रक्रिया, बच्चों का प्रश्न, स्वयं के जीवन निर्वाह का प्रश्न, सामाजिक अप्रतिष्ठिता और निन्दा का सामना यह सब स्त्री को भुगतना पड़ता है, पुरुष को नहीं। तलाक प्राप्त स्त्री भारतीय समाज में अप्रतिष्ठा का विषय है और उसके पुर्निववाह की समस्या भी कठिन है। इसलिए स्त्री के लिए तलाक एक महँगा सौदा है। परन्तु ऐसी अनेक परिस्थितियों आ जाती हैं, जैसे पति द्वारा क्रूर यातना दिया जाना, उसका व्यभिचार में लिप्त होना या घर छोड़र कहीं चले जाना आदि, जो तलाक को ही एकमात्र हल के रूप में प्रस्तुत करती हैं।
(6) यौन शोषण तथा यौन उत्पीड़न
पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों की निम्न स्थिति के परिणामस्वरूप उनकी सबसे प्रमुख समस्या उनका यौन शोषण और यौन उत्पीड़न है। यह हमें निम्नलिखित रूपों में दिखाई पड़ता है
(a) वेश्यावृत्ति
यह विश्व का सबसे पुराना व्यवसाय माना जाता है। शायद जब से संगठित समाज है तब से वेश्यावृत्ति है। 1959 ई. में स्त्रियों में अनैतिक व्यापार दमन का कानून पारित किया गया था परन्तु आज भी वेश्यावृत्ति संगठित रूप में पाई जाती है। प्रायः यह दो रूपों में प्रचलित हैं – एक ओर तो परम्परागत वेश्याएँ हैं जो जार में कोठों पर धन कमाने के लिए देह का व्यापार करती हैं और दूसरी ओर, वे श्वेतवस्त्रधारी तथाकथित सम्मानित स्त्रियाँ हैं जो धन के लिए या अन्य भौतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बड़े-बड़े होटलों में या किसी अन्य संगठित अड्डे पर यौन व्यापार करती हैं। इस दूसरी श्रेणी की स्त्रियों को कालगर्ल कहा जाता है।
(b) देवदासी
आज भी कनार्टक और आन्ध्र प्रदेश में येलम्मा और पोचम्मा के ऐसे मन्दिर हैं जहाँ बड़ी संख्या में प्रतिवर्ष देवदासियों के रूप में लड़कियों को समर्पित किया जाता है। परम्परा की दृष्टि से उसका कार्य देवता की सेवा करना है, परन्तु वास्तव में वे पुजारी और गाँवड के जमींदारों की यौन भूख का शिकार बनती है और आखिर में वेश्यावृत्ति द्वारा अपनी जीविका चलाती हैं। धार्मिक अन्धविश्वास गरीब लोगों को ऐसी प्रथा का पालन करने के लिए प्रेरित करते हैं।
(c) अश्लील साहित्य
नग्न एवं अर्द्धनग्न महिला की तस्वीरों, काम चेष्टाओं और कुत्सित किस्सों पर आधारित अश्लील साहित्य भी बाजार में धन कमाने का एक सरल साधन बन गया है। अनेक पत्र-पत्रिकाएँ इस प्रकार की सामग्री द्वारा मानव की काम भावनाओं का शोषण करती हैं। अश्लील साहित्य किशोर-किशोरियों और युवाओं के नैतिक पतन का कारण बनता है और • गुमराह करता है।
(d) विज्ञापन
आज के व्यवसायों का मुख्य आधार विज्ञापन है और विज्ञापन स्त्री के अंग प्रदर्शन पर आधारित है। चाहे किसी वस्तु का नारी के जीवन से सीधा सम्बन्ध हो या न हो परन्तु उसके शरीर के उत्तेजक चित्रों के अभाव में विज्ञापन अधूरा समझा जाने लगा है। यही कारण है कि माडलिंग का व्यवसाय लोकप्रिय होता जा रहा है।
(e) चलचित्र अधिकांश
चलचित्र स्त्री के यौन शोषण के ज्वलन्त उदाहरण हैं। व्यावसायिक रूप से चलचित्र की सफलता के लिए यह आवश्यक समझा जाता है कि उसमें अर्द्धनग्न स्त्री के द्वारा कैबरे के दृश्य और असहाय स्त्री पर पुरुष के पुरुषत्व की ताकत को प्रकट करते हुए क्रूर बलात्कार के दृश्य अवश्य हों। अधिकतर चलचित्र पुरुष प्रधान होते हैं। नायिका तो प्रदर्शन के लिए एक गुड़िया मात्र दिखाई जाती है। जब लम्बे कामुक दृश्यों के द्वारा दर्शकों की कामवासना को उत्तेजित किया जाता है तो स्त्री का अपमान भी होता है।
( f ) कैबरे नृत्य
नगरों में रेस्तरों और होटलों में कैबरे नृत्य एक साधारण बात बनती | जा रही है जहाँ नृत्य के नाम पर स्त्री के अंगों का उत्तेजक रूप में प्रदर्शन होता है, और कहीं-कहीं तो धीरे-धीरे नाचते हुए कपड़े उतारते हुए पूर्ण नग्नता का भी प्रदर्शन किया जाता है। शराब का गन्ध, सिगरेट के धुएँ और मध्यम रोशनी में खचाखच भरे हाल के बीच उत्तेजक म्यूजिक के साथ | मांसल देह लिए थिरकती हुई स्त्री का उत्तेजक चेष्टाओं से सारा वातावरण ही कामुक बन उठता है।
(g) छेड़छाड़
स्त्री की दैहिक समस्याओं में सबसे प्रमुख समस्या उनका छेड़-छाड़ का शिकार होना है। बसों में, बाजारों में, स्कूल और कॉलेजों के प्रांगणों में वे पुरुष द्वारा छेड़-छाड़ का शिकार होती हैं। उन पर आवाज कसना, उन्हें स्पर्श करने की चेष्टा करना, कुत्सित इशारा करना, चोंटना- सोचना एक आम बात बन गई है।
(7) लिंग-भेदभाव : सामाजिक फन्दे का अत्याचार ( Sex Discrimination : The tyranry of social trap)
प्रत्येक परिवार का यह सामान्य लक्षण है कि वहाँ पुरुष की प्रधानता होती है और स्त्री का अवमूल्यन होता है। पुत्र मुक्तिदाता, बुढ़ापे का सहारा और घर की पूँजी है, जबकि पुत्री का जन्म एक दायित्व और कर्जा है। इसलिए जन्म से ही लिंग-भेदभाव शुरू हो जाता है। इनके लालन-पालन के तौर-तरीके बिल्कुल अलग-अलग हैं। लड़की तो अन्य को दी जाती है देने के तीन तरीके हैं दान, विक्रय तथा उत्सर्ग। दान विवाह के समय कन्यादान के रूप में होता है, विक्रय से आशय वधू-मूल्य लेकर कन्या बेचना है जबकि उत्सर्ग का आशय उसे त्याग देना है; जैसे- मन्दिर में देवदासी के रूप में देवी या देवता के चरणों में समर्पित कर देना। ईसाइयों में वे मठ में एक नन के रूप में रहती हैं।भारत
लड़के को घर से बाहर का जीव माना जाता है, उसे व्यावसायिक तैयारी करनी होती है, उसे जीवन की कठिन प्रतियोगिता के लिए तैयार किया जाता है, जबकि लड़की का जीवन उसके घर की चहारदीवारी है, वह रसोई, घर के रख-रखाव व बच्चों के लालन-पालन के लिए समाजीकृत की जाती है। उसे घर के कैदखाने का एक ऐसा कैदी बनाया जाता है जो आगे चलकर अपनी कैद को प्यार करने लगे और उसे ही इज्जत और सतीत्व का लक्ष्य मान अपना जीवनयापन कर सके।
• वह ‘पराया धन’ है इसीलिए उसकी शिक्षा या स्वास्थ्य पर धन व्यय करना अपव्ययमाना जाता है। लड़के पर व्यय करना आवश्यक है। वह पूर्वजों के लिए पिण्डदान करता है, पूर्वजों का नाम आगे चलाता है और बुढ़ापे में सहारा देता है। स्त्रियों के लिए कहा जाता है कि वे संकुचित दृष्टिवाली और कलहप्रिय होती हैं। अनेक पुरुष एक-साथ रह सकते हैं पर नारियाँ दो भी साथ नहीं रह सकतीं। उनकी वृद्धि तो गुद्दी के पीछे होती है।
भारतीय समाज ने इस लिंग-भेदभाव की बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। समाज लगभग पचास प्रतिशत इन महिलाओं के योगदान से वंचित रहा है। कुण्ठित और दुःखी माताओं की गोद में पले शिशु भी वीर और प्रगतिशील नहीं हो सकते। कहते हैं चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी के साथ सोलह हजार स्त्रियों ने अलाउद्दीन के साथ युद्ध में पराजय के समय जलती चिताओं में कूदकर ‘जौहर’ किया था।
(8) शिक्षा में असमानता
स्त्री शिक्षा से सम्बन्धित सबसे प्रमुख समस्या यह है कि प्राथमिक तथा माध्यमिक स्तर पर स्त्रियों के बीच पढ़ाई छोड़ने की दर बहुत ऊँची है। गरीब माँ बाप लड़कियों को आगे पढ़ा नहीं पाते क्योंकि उन्हें या तो घरेलू काम-काज में सहायता देनी पड़ती है, अपने छोटे बहिन-भाइयों को देखना पड़ता है या बाहर धनोपार्जन में लगना पड़ता है। दूसरी समस्या यह है कि परम्परागत रूप से स्त्री की शिक्षा एक फिजूलखर्चा समझा जाता है क्योंकि अन्ततः उसका विवाह हो जाना है और उसे वहाँ भी गृहस्थी का ही कामकाज देखना है। तीसरे, घर से स्कूल तक यातायात के साधन की समस्या है कि वे वहाँ तक कैसे जाएँ और आएँ। चौथे, ज्यों-ज्यों वे बड़ी होने लगती हैं उनकी सुरक्षा का प्रश्न भी जटिल होता जाता है।। अन्तिम रूप से, उनकी शिक्षा का पाठ्यक्रम भी जीवन की वास्तविकताओं से दूर है। वह न ते उन्हें जीविकोपार्जन के लिए तैयार करता है और न एक आदर्श गृहिणी या माँ की भूमिकाओं से ही जोड़ पाता है। जहाँ व्यावसायिक शिक्षा का भी प्रबन्ध किया गया है वहाँ भी सिलाई-कढ़ाई, गृह-सज्जा, नर्सिंग, सौन्दर्यीकरण आदि तक ही उनके लिए कोर्स हैं जो सभी उनके परम्परागत रूप तक ही सीमित हैं तथा आज के औद्योगिक युग की माँग से सम्बन्धित नहीं हैं।
(9) स्वास्थ्य एवं पोषण सम्बन्धी सुविधाओं में असमानता
स्त्रियों में अस्वास्थ्य और कुपोषण की भी भारी समस्या है। बचपन से ही लड़कियों को वह पोषक पदार्थ नहीं दिए जाते जो लड़कों को दिए जाते हैं। वे स्वयं ही अपने शरीर की रक्षा और स्वास्थ्य पर बहुत कम ध्यान देती है। प्रायः घर में वही स्त्री, जो अपने पति और बच्चों के लिए अच्छे से अच्छा भोजन बनाती है, बाद में जो बच जाता है उसे खाती है और अगर बासी भोजन रखा है तो पहले उसे खाती है। मातृत्व का भार भी उस पर सबसे ज्यादा है। शारीरिक व्यायाम की तो उन्हें शिक्षा ही नहीं दी जाती। ज्यादातर उनमें खून की कमी रहती है। एक ओर गरीब निर्धन स्त्रियों को तो उचित चिकित्सा एवं पोषण मिलना ही दुश्वार है तो, दूसरी ओर, धनी स्त्रियों के लिए समस्या इससे उलटी है। वहाँ अत्यधिक दवाइयों का सेवन या आलसी जीवन एक समस्या बन गया है।
ज्यादातर स्त्रियाँ असंगठित कार्य-क्षेत्र में लगी हैं जहाँ उनके स्वास्थ्य का कोई ध्यान नहीं रखा जाता। बहुत से व्यवसाय विशेषतः स्त्री के लिए हानिकारक हैं, परन्तु वहाँ भी उनको देखभाल का कोई प्रबन्ध नहीं है। घर के मार-पीट के वातावरण और तनावभरी जिन्दगी के बीच स्त्री का स्वास्थ्य गिरता ही जाता है।
(10) रोजगार में असमानता
(a) कृषि क्षेत्र में, जहाँ कि 80 प्रतिशत स्त्रियाँ काम का रही हैं, स्त्री श्रम को पुरुषों की अपेक्षा कम मजदूरी मिलती है तथा वहाँ भी वे असंगठित हैं और मौसमी रोजगार के उच्चावचन से पीड़ित हैं।
(b) घरेलू उद्योगों, जैसे अगरबत्ती, बीड़ी या दियालसाई बनाना, चटाई बनाना, पापड़ उद्योग आदि में न रोजगार की सुरक्षा है और न निश्चित दर पर मजदूरी है। वहाँ के काम के घण्टे अधिक हैं और श्रम कल्याण की कोई व्यवस्था नहीं है। इतना ही नहीं, वहाँ उनके यौन शोषण का भी भय बना रहता है।
(c) संगठित उद्योगों में स्त्रियाँ निम्न स्तर पर ही कार्य कर रही हैं। साथ ही कुछ पुराने उद्योगों, जैसे जूट, कपड़ा या खाद्यान्नों में उनका प्रतिशत घट रहा है। नए उद्योगों, जैसे इलैक्ट्रोनिक या कम्प्यूटर में भी वे प्रवेश नहीं कर पा रही हैं क्योंकि इस सम्बन्ध में उनके पास पर्याप्त शिक्षा के अवसर नहीं हैं। इसलिए ज्यादातर वे रिसेप्शनिस्ट, टाइपिस्ट, स्टेनोग्राफर, निजी सचिव आदि के रूप में कार्य कर रही हैं।
सांस्कृतिक सापेक्षवाद (Cultural Relativism) क्या है?
(d) हर्ष का विषय है कि स्त्रियों के लिए कुछ नए क्षेत्र, जैसे माडलिंग, पत्रकारिता, प्रशासनिक सेवाएँ, दूरदर्शन कलाकार आदि भी व्यवसाय के रूप में पनप रहे हैं। परन्तु यहाँ भी उन्हें पुरुष प्रधानता का सामना करना पड़ता है और वहाँ भी वे व्यावसायिक प्रगति के सोपान की निचली सीढ़ियों पर ही पहुंच पाई हैं।
(e) वृत्ति समूहों की दृष्टि से स्त्रियाँ सर्वाधिक शिक्षण में हैं, चिकित्सा और नर्सिंग के क्षेत्र में भी स्त्रियाँ प्रवेश कर चुकी हैं।
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