भारत में ब्रिटिश कालीन शिक्षा का उल्लेख कीजिये।

भारत में ब्रिटिश कालीन शिक्षा – सर्वप्रथम भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना के समय से ब्रिटिश युगीन शिक्षा का आरम्भ माना जाता है। भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना से पहले ही अनेक देशी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षक एवं शिक्षार्थियों हेतु सुविधाओं का अभाव था। इस कारण इन विद्यालयों में शिक्षण अधिनियम की प्रक्रिया सुचारू रूप से सम्पन्न नहीं हो रही थी।

हमारे देश में अंग्रेज के आगमन का सर्वप्रथम उद्देश्य व्यापार था। लेकिन कालान्तर में अंग्रेजों ने आर्थिक लाभ की दृष्टि से भारत में अपने स्थायी उपनिवेश स्थापित करने की योजना को कार्यान्वित कर दिया। धीरे-धीरे अंग्रेज भारत की राजनीति में भी हस्तक्षेप करने लगे और भारतवासियों में एकता के अभाव में उन्होंने सम्पूर्ण भारत पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया और वे यहाँ के शासक बन गये। आरम्भ में अंग्रेजों द्वारा भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करने तथा आर्थिक लाभ उठाने पर ही ध्यान दिया गया और भिन्न क्षेत्रों में भारत की उन्नति के प्रति उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया, जिसका भारतवासियों ने कड़ा विरोध किया। भारतवासियों द्वारा किये गये प्रबल विरोध के कारण शनैः-शनैः अंग्रेजों का ध्यान विभिन्न क्षेत्रों की ओर आकर्षित हुआ।

इसी समय अंग्रेजों ने शैक्षिक विकास की दिशा में भी प्रयास करने आरम्भ किये। अंग्रेजों के अतिरिक्त, फ्रांसीसी, डच, डैन और पुर्तगालियों ने भी व्यापारिक दृष्टि से अपने उपनिवेशों की स्थापना भारतवर्ष में की। भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने हेतु इन समस्त विदेशी जातियों ने भारतवासियों को प्रभावित करना प्रारम्भ किया। इसीलिये भारत की शैक्षिक प्रगति में अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया।

इस समय शिक्षा की प्रगति की गति अत्यन्त मन्द थी। मिशनरियों ने विभिन्न स्थानों जैसे तंजीर, त्रिचनापल्ली, चिनसुरा आदि में विद्यालयों की स्थापना की। अधिकांशतः डच तथा डेनमार्क के मिशनरियों ने इन विद्यालयों की स्थापना की थी।

अंग्रेजों के प्रयासों के परिणामस्वरूप ही हमारे देश में सेन्ट मैरी, सोफिया, सेन्ट थॉमस आदि विद्यालयों का आरम्भ हुआ। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कर्मचारी, जिसका नाम चार्ल्स ग्रान्ट था, ने सन् 1972 में एक पुस्तक की रचना की। इसका नाम था ‘ग्रेट ब्रिटेन के एशियाई प्रजाजनों की सामाजिक स्थिति पर विचार इस पुस्तक में चार्ल्स ने भारतवासियों की शैक्षिक अवनति का सविस्तार वर्णन किया तथा शैक्षिक प्रगति के सम्बन्ध में सुझाव भी दिये, जैसे-पर्याप्त संख्या में विद्यालय, शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी यथावश्यक निःशुल्क शिक्षा देने तथा भारतवासियों को पाशात्य ज्ञान का प्रसार करना आदि।

सन् 1765 में सर्वप्रथम भारतीय शिक्षा नीति का निर्धारण किया गया। शैक्षिक प्रगति के लिये नियोजित प्रयासों को करना प्रारम्भ किया गया। सबसे पहले विभिन्न स्थानों पर प्रारंम्भिक विद्यालय

खोले गये। मुस्लिम शिक्षा के विकास के लिये वारेन हेस्टिंग्ज ने 1781 में कोलकाता में मदरसे की आधारशिला रखी और बनारस में हिन्दुओं के लिये संस्कृत कॉलेज की स्थापना ।

सन् 1813 में एक आज्ञा पत्र जारी किया गया। इस पत्र के माध्यम से भारतीय शिक्षा को नया स्वरूप देने की योजना बनाई गयी। इस पत्र के अनुसार इसका प्रमुख उद्देश्य भारत में शिक्षा का प्रचार करना पोषित हुआ। इसके साथ ही अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा का प्रसार करना, भारतीय संस्कृति का संरक्षण करना, भारत में ईसाई धर्म का प्रचार करना इत्यादि पर बल दिया गया। 1813 के आशा पत्र में उल्लिखित दो शब्दों ‘साहित्य’ तथा ‘विज्ञान’ पर उत्पन्न मतभेद का समाधान कालान्तर में मैकाले द्वारा विवरण पत्र में दिया गया।

अन्ततः स्पष्ट हो जाता है कि भारत और पश्चिमी देशें से पहले व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हुए थे। पश्चिमी देशों में भारतीय वस, रत्न, विलास की सामग्री कलाकृतियों आदि की बहुत माँग थी। भारतीय सामान के बदले में पश्चिमी देशों से भारत में चाँदी, मूंगा आदि आते थे 15वीं शताब्दी में तुर्कों ने दक्षिण-पश्चिम एशिया में विजय प्राप्त कर ली। इस प्रकार भारत यूरोप के स्थल मार्ग पर आना जाना बन्द हो गया। यूरोप के व्यापारियों ने समुद्री मार्ग की खोज करना प्रारम्भ किया। 27 मई 1498 को वास्कोडिगामा ने भारत के लिये जल मार्ग खोज निकाला। 16 वीं शताब्दी में अनेक यूरोप की व्यापारिक कम्पनियों की स्थापना हुई। इन कम्पनियों में 1600 ई. में इंग्लिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी, 1602 ई. में डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी और 1664 ई. में डेन कम्पनी की स्थापना हुई थी।

12वीं पंचवर्षीय योजना के उद्देश्य को स्पष्ट कीजिए।

भारतीय शिक्षा को मिशनरियों की देन

मिशनरियों के योगदान भारतीय शिक्षा के इतिहास में सदैव चिरस्मरणीय रहेंगे। यद्यपि मिशनरियों के विरुद्ध, परोपकारिता की भावना से स्कूल संचालित नहीं किये थे। इनका उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार करना था फिर भी इन लोगों ने स्कूल की कार्य प्रणाली तथा संगठन में कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण सुधार किए जिसके कारण स्कूल के स्वरूप तथा संरचना के विषय में हमारी धारणायें स्पष्ट हो सकी।

(1) मिशन स्कूलों में जो शिक्षा प्रदान की जाती थी वह पूर्णतया निःशुल्क थी। इस प्रकार से मिशनरियों ने भारत में सबसे पहले निःशुल्क शिक्षा की प्रथा चलाई जिसके लिए हम आज भी प्रयत्नशील हैं।

(2) सर्वप्रथम मिशनरियों ने हम लोगों को स्कूल, एक नवीन अवधारणा प्रदान की। इसके पहले स्कूल क्या और किसे कहते हैं? इन प्रश्नों के सम्बन्ध में हमारे विचार सुस्पष्ट नहीं थे। मिशनरियों के पूर्व की देशी पाठशालाओं की स्थिति अत्यन्त सोचनीय थी।

ये पाठवतायें अधिकांशतः टूटे-फूटे मकानों, गोशाला, अस्तबल या किसी जमींदार अप ताल्लुकेदार के मकान के एक हिस्से में लगा करती थीं। इस प्रकार स्कूल क्या है और स्कूल के कार्य क्या हैं ये बातें जन-साधारण को समझने में नहीं आती थीं। मिशनरियों ने सबसे पहले स्कूल को सर्वाधिक शिक्षा का केन्द्र माना और भारत में सर्वाधिक शिक्षा की बुनियाद डाली।

(3) मिशनरियों ने भारतीयों के सामने स्कूल की स्पष्ट रूप-रेखा रखी और विशेष रूप से पाठशाला की रूपरेखा या नक्शा हम लोगों के सामने सर्वप्रथम रखा। पाठशाला भवन कैसे होने चाहिए? खेल का मैदान, पुस्तकालय, विज्ञान के लिए प्रयोगशाला आदि बातों को हम लोगों ने इन लोगों से भीखा और लिया है।

(4) शिक्षा तथा धर्म प्रचार के लिए इन लोगों ने स्थान-स्थान पर मिशन स्कूलों की स्थापना की जिससे अंग्रेजी भाषा के माध्यम से स्कूलों में बालकों को शिक्षा दी जाती थी। ऐसे मिशन स्कूल आज भी भारतवर्ष में विद्यमान है, जहाँ की कार्य कुशलता तथा कार्यपद्धति अब भी हम लोगों के लिए अनुकरणीय है।

(5) मिशनरियों के पूर्व भारत में मौखिक शिक्षा का प्रचलन था किन्तु इन लोगों की शिक्षा। लेखन एवं पुस्तक अध्ययन पद्धति द्वारा होती थी। इन लोगों ने प्रेस भी स्थापित किया। इसलिए मुद्रित पुस्तकें तथा लेखन सामग्री आदि की व्यवस्था सबसे पहले मिशनरियों ने ही की जिनका अनुसरण हम आज भी कर रहे हैं।

(6) इनका पाठ्यक्रम विस्तृत, व्यावहारिक एवं उपयोगी था जिसमें ईसाई धर्म के साथ-साथ अंग्रेजी, स्थानीय भाषायें, व्याकरण, गणित, इतिहास तथा भूगोल आदि विषय सम्मिलित थे।

(7) पाठशाला प्रबन्ध तथा प्रशासन के विषय में भी मिशनरियों का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। टाइम-टेबुल, डेस्क, बेन्च, चाक, डस्टर आदि का प्रयोग इन लोगों ने ही किया और हम लोगों को सिखाया।

(8) इन लोगों ने भारत में निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली का प्रारम्भ किया। परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाले छात्र को ही अग्रिम कक्षा में प्रवेश दिया जाता था।

(9) इन लोगों ने ही हमें टाइम-टेबुल की भी अवधारणा सबसे पहले प्रदान की।

(10) पाठशाला में प्रवेश से लेकर परीक्षा तक के विभिन्न रिकार्ड किस प्रकार रखने चाहिए इसकी सीख हमें मिशनरियों से ही मिली। उपस्थित रजिस्टर, प्रवेश पत्र आदि प्रपत्रों को हम लोगों ने इन्हीं से ग्रहण किया है।

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