भारत की राष्ट्रीय वन नीति
भारत की वनों के प्रबंधन के लिए सबसे पहली राष्ट्रीय वन नीति सन 1894 में बनायी गयी जिसमें वनों की संख्या (Preservation) तथा आरक्षित (reserved) और सुरक्षित (Protected) वनों के निर्माण की ठोस व्यवस्था थी। इस नीति के अनुसार
- पहाड़ी ढलानों पर के वनों की सुरक्षा होनी चाहिए।
- वनों का प्रबंध पूर्णतया व्यावसायिक होना चाहिए।
- जहां भी कृषि योग्य भूमि वन क्षेत्र में आती हो और उसे कृषि कार्य हेतु उपयोग में लानी चाहिए। साथ ही कृषि का स्थायी प्रकार भी होना चाहिए।
- स्थानीय लोगों के लाभ के लिए उत्कृष्ट प्रकार के वन तैयार करने चाहिए।
स्पष्ट है कि यह नीति विशेषतः कृषि के विकास की ओर इंगित थीं।
सन 1921 में वनों को राज्य अधीन कर दिया गया लेकिन जब तक ईंधन और लकड़ी की आवश्यकता की पूर्ति हेतु बहुत सा वन क्षेत्र प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) में नष्ट हो चुका था। दूसरे विश्व युद्ध (1939-15) में पुनः युद्ध की आवश्यकता के लिए वन कटे और रही सही वन कटने की प्रक्रिया लकड़ी से संबंधित खोले गये कारखानों की पूर्ति के लिए जारी रही। आजादी के बाद जब जमींदारी समाप्त हुई तो सभी प्रकार के वन राज्य सरकार ने अपने अधीन ले लिया और उस समय की वस्तुस्थिति के आधार पर सन 1952 में दूसरी राष्ट्रीय वन नीति घोषित हुई। इसमें यह प्रावधान था कि भू-भाग के 33.3 प्रतिशत में वन क्षेत्र होने चाहिए।
इस दूसरी राष्ट्रीय वन नीति (Second National Forest Policy) में विशेषतः यह बात इंगित की गयी कि प्रत्येक सरकार की भूमि को उसी प्रयोग के लिए आवंटित किया जाये जिस हेतु वह उपयुक्त है तथा जिससे अधिक से अधिक उत्पादन हो और भूमि की उपयोगिता भी बनी रहे। स्थानीय लोगों की आवश्यकताओं की यथासंभव पूर्ति का ध्यान रखा जाये और इस आवंटन प्रक्रिया में कोई काम ऐसा न हो जिससे न तो सरकार को हानि पहुंचे और न ही भावी पीढ़ी को कोई स्थायी अमाव उत्पन्न हो। इस नीति में निम्नलिखित मूल सिद्धांत निर्धारित किये गये
- वनों को कार्यमूलक आधार पर वर्गीकृत करना (आरक्षित वन, राष्ट्रीय वन, गाँव के वन आदि)
- स्थानीय तथा सामान्य लोगों के कल्याण के लिए कृषि एवं वन भूमि में संतुलन बनाये रखना
- वनों के अंधाधुंध कटाव को रोकना तथा वानिकी का विस्तार करना।
- विभिन्न आवश्यक एवं उचित उपयोग में लाने हेतु लकड़ियों की नियमित पूर्ति हेतु प्रयास करना।
- नदियों के उदगमस्थल भू-क्षरण वाले क्षेत्र तथा समुद्रतटीय रेल के टीलों को रोकने के लिए वहां के क्षेत्र में लकड़ी की कटाई एकदम रोकना तथा वृक्षारोपण करना।
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इस नीति में यद्यपि काफी वन संरक्षण की बात और मानव उपयोग की संकल्पना रखी गयी। थी पर फिर भी व्यावहारिक रूप से प्रत्येक स्तर पर कई कठिनायां उभर कर आयी और कई सुझाव संशोधन के लिए उठे। अतः इस हेतु विशेष रूप से बनायी गयी एक नवनिर्मित कमेटी ने 1976 में नयी राष्ट्रीय वन नीति के लिए संशोधन सहित सुझाव प्रस्तुत किये। श्री आर.एस. पठान के अनुसार सन 1988 में नवीनतम नीति में वनसंसाधनों के प्रबंधन में जनसाधारण की भागीदारी का प्रावधान है। स्वीकार करने के बाद यह तीसरी राष्ट्रीय वन नीति कहलाई। तब से वनों के प्रबंधन में बहुत कठिनाइयाँ आयी हैं, पर कोई नई वन नीति आज तक नहीं बन पायी है। प्रतिवर्ष कुछ सुझाव केवल कागजों तक सीमित रहते हैं।
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