भारत के राष्ट्रपति की आपात कालीन शक्तियों का वर्णन कीजिए।

राष्ट्रपति की आपात कालीन शक्तियाँ  – भारतीय संविधान की यह संकटकालीन व्यवस्था संविधान निर्माण के समय और उसके बाद कटु आलोचना का विषय रही है। जिस दिन संविधान सभा में यह व्यवस्था स्वीकार हुई, उस दिन श्री हरिविष्णु कामथ ने संविधान में कहा था ‘यह शर्मनाक दिन है। ईश्वर भारतीयों की रक्षा करे’ इस संकटकालीन व्यवस्था की प्रमुख रूप से निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है

(1) राष्ट्रपति अधिनायक बन सकता है

आलोचकों के अनुसार संकट की स्थिति में एकमात्र निर्णायक राष्ट्रपति ही है और राष्ट्रपति के द्वारा संसद की स्वीकृति प्राप्त किये बिना ही संकटकालीन घोषण एक माह के लिए लागू की जा सकती है। एक माह की अवधि में वह मन्त्रिमण्डल को पदच्युत तथा लोकसभा को भंग कर लगभग 5 या 7 माह तक तो मनमाना शासन कर ही सकता है। महात्वाकांक्षी राष्ट्रपति इस अवधि में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर अधिनायक बनने का प्रयत्न कर सकता है।

(2) संघात्मक रूप का अन्त

संविधान द्वारा भारत में एक संघात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना की गयी है लेकिन संविधान के ये संकटकालीन उपबन्ध संघात्मक शासन व्यवस्था का आधारभूत स्वरूप ही समाप्त कर देते हैं। संवैधानिक तन्त्र की विफलता के समय राज्य सरकार लगभग समाप्त ही हो जाती है और युद्धकालीन अथवा वित्तीय संकट की स्थिति में राज्य सरकारों पर केन्द्रीय सरकार का नियन्त्रण अत्यधिक बढ़ जाता है। परिणामतः राज्य सरकारों का रूप एक ऐसे एजेन्ट के समान हो जाता है जिसका कार्य संघीय सरकार के आदेशों का पालन करना भर हो।

(3) राज्यों में विरोधी दलों की सरकारों का दमन सम्भव है

अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत राज्यों में संवैधानिक तन्त्र की विफलता की स्थिति में संकटकालीन घोषणा की जो व्यवस्था की गयी है कि केन्द्र का शासनदल राष्ट्रपति के माध्यम से राज्यों में विरोधी दलों की सरकारों का दमन कर सकता है। अब तक इस प्रकार की शक्ति का जिस रूप में प्रयोग किया जाय, उससे भी इस प्रकार के भय की पुष्टि ही होती है।

(4) राज्यों की वित्तीय स्वतन्त्रता समाप्त हो जायेगी

संकटकाल में केन्द्रीय कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका को व्यापक वित्तीय अधिकार प्रदान किये गये हैं। राष्ट्रपति आर्थिक क्षेत्र में राज्य सरकारों को किसी भी प्रकार का आदेश दे सकता है और श्री हृदयनाथ कुंजरू के शब्दों में, “संकट काल के नाम पर राज्यों की वित्तीय स्वतन्त्रता समाप्त की जा सकती है।”

(5) मौलिक अधिकार अर्थहीन हो जायेंगे

संकटकालीन उपबन्धों के विरुद्ध सबसे बड़ी आलोचना यह की जाती है कि ये उपबन्ध संविधान द्वारा प्रदान किये गये मौलिक अधिकारी को समाप्त कर देंगे। श्री कामथ और श्री शिब्बन लाल सक्सेना के द्वारा इसे ‘भारतीय संविधान पर एक धब्बा’ कहा गया है।

निष्कर्ष – संविधान में दिए गए इन संकटकालीन उपबन्धों का अरुचिकर प्रतीत होना नितान्त स्वाभाविक है किन्तु साथ ही यह स्वीकार करना होगा कि संकटकाल के सम्बन्ध में की गयी यह व्यवस्था नवजात राष्ट्र की स्वतन्त्रता, एकता और प्रजातन्त्र की रक्षा के लिए नितान्त आवश्यक है। टी०टी० कृष्णास्वामी ने संविधान सभा में ठीक ही कहा था कि “संविधान के अन्तर्गत की गयी संकटकालीन व्यवस्था को एक आवश्यक बुराई के रूप में स्वीकार करना होगा, क्योंकि इन उपबन्धों के बिना संविधान निर्माण के हमारे सभी प्रयत्न ही अन्ततः असफल हो जायेंगे।” इस बात को दृष्टि में रखना संकटकाल में नागरिक अधिकारों की अपेक्षा राज्य की सुरक्षा अधिक महत्वपूर्ण होती है।

एक्वीनाश के राजनैतिक विचार की विवेचना कीजिए।

यह तथ्य है कि 1975 में लागू किए गए 19 माह के आपातकाल में आपातकालीन शक्तियों का बहुत अधिक दुरूपयोग किया गया। इस स्थिति को देखकर आपाताकलीन शक्तियों के दुरूपयोग पर अंकुश लगाने की आवश्यकता अनुभव की गयी। अतः 44 वे संवैधानिक संशोधन द्वारा ऐसी व्यवस्थाएं की गयी कि भविष्य में शासक वर्ग के द्वारा निजी स्वार्थों की रक्षा के लिए आपातकाल लागू नहीं किया जा सके और आवश्यक होने पर जब आपातकाल लागू किया जाए तब भी शासक वर्ग द्वारा शक्तियों का मनमाना प्रयोग न किया जा सके।

    Leave a Comment

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    Scroll to Top