बेबीलोनियन कला एवं स्थापत्य का विवरण प्रस्तुत कीजिए।

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बेबीलोनियन कला – बेबीलोनियानों में सृजनात्मक शक्ति का अभाव था, अतएव नवीन सृष्टियों को कौन कहे, सुमेरियन कला एवं स्थापत्य को भी थे जीवित न रख सके इसी कारण उनकी कलात्मक उपलब्धियाँ नगण्य ही रही वास्तुकला के क्षेत्र में बेबिलोनियनों के पिछड़े होने के दो कारण थे। सुमेरियनों की भांति इन्हें सम्बन्धित साधन सुलभ नहीं थे, अतएव जो भवन बनते थे वे शीघ्र नष्ट हो जाते थे। हम्मुराबी इससे अनभिज्ञ नहीं था इसलिए भवन धराशायी हो जाने पर सम्बन्धित शिल्पी के लिये कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई थी। बेबिलोनियन भवनों के जो अवशेष प्राप्त हुए है उनसे ज्ञात होता है कि उनमें प्रायः ईंटें प्रयुक्त की जाती थी प्रयोग के पूर्व ईंटों को कठोर बनाने के लिए धूप में सूखा लिया जाता था अथवा अग्नि में पका लिया जाता था। छतें गीली मिट्टी की सहायता से बनायी जाती थी। इनके भवन प्रायः एक मंजिले अथवा दो मंजिले होते थे। कभी-कभी इनमें तीन-चार मंजिले तक बनयी जाती थीं। भवनों में कमरों की संख्या पर्याप्त होती थी जो सड़क की ओर नहीं, बल्कि अन्तः प्रांगण की ओर खुलते थे।

दीवारों में खिड़कियों प्रायः नहीं होती थी। बेबिलोनियन वास्तुकला के अन्तर्गत इनके मन्दिर और विशेषकर जिगुरत का उल्लेख किया जा सकता है। बेबिलोनियन मन्दिरों में सौन्दर्य का अभाव था। वास्तव में बेबिलोनियन वास्तुकारों को सरलता एवं सादगी अधिक पसन्द थी। इसी लिए मन्दिरों को अलंकृत करने की दिशा में उन्होंने कभी भी कोई प्रयास नहीं किया। लेकिन सरल एवं अलंकरण विहीन बेबिलोनियन मन्दिर आकार प्रकार में छोटे नहीं होते थे। दूसरे शब्दों में ये सौन्दर्यहीन विशाल भवन थे। वास्तव में देवी एवं मानवीय आवश्यकताओं में समानता होने के कारण बेबिलोनियनों ने अपने देवालयों की रचना गृहों के रूप में ही की। सामान्य गृहों एवं देवालयों की वास्तुरचना में भेद केवल जिगुस्त में ही दिखायी पड़ता है। इनकी निर्माण योजना लगभग उसी प्रकार थी जैसी सुमेरियन जिंगुरतों की अर्थात् एक आधार वेदिका के उपर एक मन्दिर का निर्माण किया जाता था उपर की ओर इसकी मंजिले क्रमशः छोटी होती जाती थी।

उपर जाने के लिए सीढ़ी बनी होती थी। बेबीलोनियन निगुरतों के सम्बन्ध में यह तथ्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि इसमें मंजिलों की संख्या अधिक होती थी। बारसिप्पा (Barsippa) के जिगरत में सात तल्ले बने थे, इसी लिए इसे ‘सात सितारों का मंच नाम दिया गया था। प्रत्येक मंजिल किसी न किसी ग्रह एवं उसके रंग से सम्बन्धित थी सबसे नीचे की मंजिल शनि से सम्बन्धित थी और काले रंग से रंगी थीं इसके बाद क्रमशः शुक्र, बृहस्पति, बुध, मंगल, चन्द्र एवं सूर्य की मंजिलें थीं, जिन्हें क्रमशः श्वेत, बैंगनी, नीले, तात, रुपहले तथा सुनते रंग में रंग गया था। जिगुस्त उनके लिए दो दृष्टियों से विशेष उपयोगी थे। प्रथमतः वे उनके देवालयों के रूप में प्रतिष्ठत थे और द्वितीयतः वहीं बैठकर बे

मूर्तिकला

वास्तुकला की ही भाँति मूर्तिकला में भी बेबिलोनियनों की मौलिकता स्पष्ट नहीं हो पायी। इसका मूल कारण धार्मिक एवं राजनीतिक परम्पराओं को ही माना जा सकता है। परम्पराएँ इतनी प्रखर थी कि मौलिकता को मुखरित होने का सुयोग ही नहीं मिला। जो कुछ कलाकृतियाँ बनी भी उनके अल्प ही उदाहरण हमें मिल पाये। मूर्तियों के जो उदाहरण मिले हैं उनको देखने से लगता है कि सभी मुखाकृतियाँ लगभग एक-सी हूँ। शासक को लम्बे, चीड़े और गठीले बदन का दिखाया गया है। बेबिलोनियन मूर्तिकला के आदर्श उदाहरण रूप में ग्रेनाइट से बने हम्मुराबी के शीश तथा माटी से प्राप्त एक मूर्ति, जो संभवतः उर्वरता की देवी है और जिसके हाथ में गुलदस्ता है, का उल्लेख किया जा सकता है।

मूर्तिकला के क्षेत्र में भले ही बेबिलोनियनों ने उन्नति न की रही हो उद्भूत कला के क्षेत्र में उनकी प्रगति संदिग्धरहित है। इसका ज्वलन्त उदाहरण वह अविस्मरणीय शिलाखण्ड है जिस पर हम्मुराबी की विधि-संहिता उत्कीर्ण है। भावना का यथातथ्य प्रदर्शन तथा मानवीय अभिव्यंजना दोनों का इसमें यथोचित निर्वाह मिलता है। इस शिलाखण्ड पर दो आकृतियों तक्षित हैं। एक आकृति श्रद्धावनत मुद्रा में उत्कीर्ण है जिसका सम्बन्ध देवप्रिय सम्राट् हम्मुराबी से है। दूसरी में देवी तत्य आरोपित करने की यथासंभव चेष्टा की गई है जिसके प्रथम दर्शन से ही सूर्यदेव शमश का स्मरण हो जाता है। इसके साथ एक अन्य आकृति है जिसे हम्मुराबी उक्त देवता से ग्रहण करते हुए दिखाया गया है। यह हम्मुराबी की प्रसिद्ध विधि संहिता है। बेबिलोनियन कलाकारों ने मूर्ति-कला की अपेक्षा उद्द्भुत मूर्तियों में निस्संदेह अधिक सफलता प्राप्त कर ली थी, क्योंकि इनमें सजीवता अधिक है।

चित्रकला एवं अन्य गौण कलाएं

बेबिलोनियन चित्रकला कभी भी स्वतंत्र कला के रूप में न सम्बधित हुई। इसका सम्बर्द्धन सदा पूरक कला के रूप में ही किया गया। बेबिलोनियन चित्रकला के उदाहरण हमें दीवारों के अलंकरण में ही मिलते हैं। मिस्र की समाधियों अथवा क्रीट के महलों में प्रयुक्त भित्तिचित्रों में जैसी चित्रकला का प्रदर्शन किया गया था वैसे साक्ष्य हमें बेबिलोनिया में नहीं मिलते हैं। बेबिलोनिया तक्षण कला के अन्तर्त इनकी मुद्रा निर्माण कला का उल्लेख आवश्यक है। बेबिलोनिया में व्यापार वाणिज्य का अत्यधिक विकास किया गया था इसलिए मुद्रा की अधिक आवश्यकता पड़ती थी।

प्राचीन मिस्र के सामाजिक जीवन पर प्रकाश डालिये।

यहाँ सर्वसाधारण से लेकर सम्राट तक अपनी व्यक्तिगत मुद्रा रखते थे। लेन-देन तथा व्यापारिक पत्रों पर हस्ताक्षर के बदले यही मुद्रा अंकित कर दी जाती थी। ये मुद्राएं आयताकार अथवा वर्तुलाकार होती थीं। इन पर भाँति-भाँति के चित्र और उनके साथ व्यक्ति से सम्बन्धित नाम उत्कीर्ण रहते थे। इनकी शुचिता एवं सत्यता सत्यापित करने के लिए इन पर बेबिलोनियन देवताओं के नाम भी उत्कीर्ण कर दिये जाते थे। बेबिलोनियन संगीत में विशेष रूचि रखते थे। अतएव अनेक प्रकार के वाद्य यंत्र जैसे-बाँसुरी, बीन, सारंगी, ढोल, तुरही, झाँझ इत्यादि बनाये गए। संगीत के कार्यक्रम मंदिरों, महलों तथा समृद्ध व्यक्तियों के यहाँ आयोजित समारोहों में सम्पन्न किये जाते थे। धनी लोग सुन्दर टाइल्स, चमकीले पत्थर तथा अनेक प्रकार के फर्नीचरों से अपने गृहों को शोभा वृद्धि करते थे। वे आभूषण भी बनाते थे लेकिन उच्चकोटि की कलाकारिता नहीं मिलती।

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