बलबन का राजत्व सिद्धान्त,- ग्यासुद्दीन बलबन पहला तुर्क शासक था जिसने साम्राज्य की स्थायी स्वरूप प्रदान करने के लिए राजत्व सिद्धान्त प्रस्तुत किया। बलबन के राजत्व सिद्धान्त को निम्न रूप में समझा जा सकता है
(1) सुल्तान के पद की सर्वोच्चता
बलबन का राजत्व सिद्धान्त प्राचीन फारसी शासन व्यवस्था से प्रभावित था जिनमें राजत्व के देवी सिद्धान्त में विश्वास किया जाता था। बलवन भी इसी सिद्धान्त का समर्थक था। वह इसके द्वारा सुल्तान की सर्वोच्चता स्थापित करना चाहता था। बलबन सुल्तान को पृथ्वी पर अल्लाह का प्रतिनिधि (नियामते खुदाई) मानता था। उसके अनुसार सुल्तान का स्थान पैगम्बर के पश्चात् आता है। सुल्तान जिल्लै अल्लाह अर्थात ईश्वर का प्रतिबिम्ब है। वह अल्लाह के निर्देशानुसार ही शासन करता है। बलबन यह भी मानता था कि गुस्तान का हृदय ईश्वर कृपा का विशेष कोष है और समस्त मनुष्य जाति में उसके समान कोई नहीं राजत्व निरंकुशता का शारीरिक रूप है।
इस प्रकार की निरंकुशता सुल्तान की हत्या का खतरा उत्पन्न करती थी। अतः उसे अपने सुरक्षा के प्रति सावधान रहना चाहिये और जनता में अपने प्रति भय की भावना जागृत करनी चाहिये उसने अपने पुत्रों को भी इस बात की शिक्षा दी कि वे राजत्व के उच्च आदशों के अनुसार ही शासन करें। अपने व्यक्तित्व एवं चरित्र को आदर्शमय बनाएं जिसका अनुकरण अन्य व्यक्ति कर सके राजा के उत्तरदायित्वों और कर्तव्यों की भी उसने एक रूप रेखा तैयार की उसका एक मात्र उद्देश्य सुल्तान के पद की गरिमा एवं उसकी शक्ति को सुरक्षित बनाये रखना था।
बलबन के राजत्व के सिद्धान्त की विस्तृत जानकारी जियाउद्दीन बन द्वारा प्राप्त होती है। बर्नी के अनुसार बलबन ने अपने पुत्रों को निम्न निर्देश दिये थे
(i) जनता पर शासन करना बहुत मामूली और महत्वहीन कार्य नहीं है। अतः शासन का कार्य बहुत ही जिम्मेदारी गंभीरता और उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से निर्वाह करना चाहिए।
(ii) एक प्रजा पालक शासक सदैव अल्लाह के संरक्षण में उचित कार्य कर सकता है।
(iii) सुल्तान का दिल सदैव अल्लाह के नूर से प्रतिबिम्बित रहता है और यदि सुल्तान निरंतर ईश्वरीय ज्योति प्राप्त नहीं करता है तो शासक कभी भी अपने अति महत्वपूर्ण कर्तव्यों को पूर्ण नहीं कर सकता। अतः सुल्तान को अपने हृदय तथा आत्मा की पवित्रता के लिए प्रयत्न करना चाहिये और ईश्वर की दया के प्रति अनुग्रही रहना चाहिये।
(iv) सुल्तान को इस प्रकार जीवन व्यतीत करना चाहिये कि मुसलमान उसके प्रत्येक कार्य शब्द व क्रिया-कलाप को मान्यता दे और उसके कार्यों की प्रशंसा करें।
(v) सुल्तान को अपना जीवन इस प्रकार व्यतीत करना चाहिये कि उसके शब्दों कार्यों आदेशों व्यक्तिगत योग्यताओं व गुणों से लोग शरीअत के नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करने के योग्य हो सके।
( 2 ) निरंकुश शासन की स्थापना
बलबन ने राज्य के देवी सिद्धान्त के आधार पर निरंकुश शासन की स्थापना की। इसके लिए उसने दिखावटी मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा को आवश्यक अंग मान कर कुलीन और अकुलीन व्यक्तियों के विभेद पर बल दिया। सामान्य जन से सुल्तान का संपर्क समाप्त कर दिया गया। शासक सिर्फ कुलीन वर्ग वालों के लिए ही सुरक्षित कर दिया गया। अकुलीन व्यक्तियों से वह कोई सम्बन्ध नहीं रखता था। फारसी दरबार के तौर तरीकों को अपनाया गया। बलवन ने न्याय को राजत्व में महत्वपूर्ण स्थान दिया। बलबन ने खलीफा की राजनीतिक सत्ता भी स्वीकार की तथा सिक्को पर खलीफा का नाम खुदवाया एवं खुतवा में उनका नाम पढ़वाया उसने अपने को प्राचीन फारसी योद्धा अफरासियाब का वंशज बताया और पूर्णतः स्वेच्छाचारी शासन स्थापित किया।
(3) प्रजापालक और न्यायप्रिय शासन की स्थापना
अपने राजत्व सिद्धान्त के अन्तर्गत उसने न्यायप्रिय और प्रजाहितकारी शासन की स्थापना की। उसने बिना पक्षपात के न्याय पर आधारित शासन व्यवस्था स्थापित की न्याय के मामलों में उसने अपने सगे सम्बन्धियों को भी दण्ड देने में संकोच नहीं किया।
(4) लौह एवं रक्त की नीति
बलवन ने अपने राजत्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत लौह एवं रक्त की नीति का अनुपालन किया। इसके अन्तर्गत उसका मानना था कि विद्रोहियों, शत्रुओं और षडयंत्रकारियों आदि का दमन इतनी क्रूरता से करना चाहिए कि उनमें सदैव के लिए भय व्याप्त हो जाये और वे पुनः विरोध करने की स्थिति में न रहे। बलबन ने इसी नीति का पालन अपने शासनकाल में अपने समस्त शत्रुओं के साथ किया। उसने अपने शासनकाल में एक प्रकार से आतंक का राज्य स्थापित कर दिया। लेकिन यह आतंक उसके विरोधियों और साम्राज्य के शत्रुओं के लिए ही था आम जनता के लिए नहीं बल्कि आम जनता को उसकी इस नीति से लाभ ही हुआ।
बलबन ने सत्तारूढ़ होते ही दिल्ली के आस-पास के इलाके से डाकुओं के आतंक को समाप्त करने के लिए क्रूरतापूर्वक डाकुओं को मरवाया। तत्पश्चात् रुहेलखण्ड के हिन्दुओं के विद्रोह को भी उसने निर्ममतापूर्वक कुचला। उसने अनेक विद्रोहियों को हाथियों से कुचलवा दिया। उसने बंगाल में तुगरिक खां के विद्रोह का भी उसने क्रूरतापूर्ण ढंग से दमन किया। इसी प्रकार उसने मंगोलों के आक्रमण का भी सामना किया और शाही सेनाओं के माध्यम से मंगोलों का कत्लेआम करवाया। मंगोल भी उसके इस कृत्य से भयभीत हो गये और पांच वर्षों तक उन्होंने भारत पर आक्रमण करने का साहस नहीं किया।
बलवन ने अपनी राजत्व नीति का स्वयं कठोरता से पालन किया और अपने दरबारियों से भी पालन करवाया। बलवन दिखावटी मान मर्यादा और प्रतिष्ठा पर बहुत अधिक बल देता था। साधारण व्यक्तियों से वह नहीं मिलता था। वह एकांत में रहना पसंद करता था। हर्ष या शोक से यह उद्वेलित या विचलित नहीं होता था अपने निजी सेवकों के सामने भी यह अपनी भावनाएं प्रकट नहीं करता थी। अपने पुत्र मुहम्मद की मृत्यु पर भी उसने किसी के सामने अपना दुख प्रकट नहीं किया जबकि एकांत में वह फूट-फूट कर रोता था उसने शराब पीना एवं आमोदपूर्ण कार्यों में भाग लेना बंद कर दिया था। वह कुरान के नियमों का कड़ाई से पालन करता था। फारसी परम्पराओं के आधार पर उसने दरबार से सिजदा (लेटकर सलाम करना) एवं पैबोस (सुल्तान का पैर चूमना) की प्रथा आरम्भ की। दरबार में उसके अंगरक्षक नंगी तलवारें लिए खड़े रहते थे।
परमार वंश का प्रसिद्ध शासक आप किसे मानते हैं।
उसके सामने बैठने, यहाँ तक कि बात करने एवं मुस्कुराने की भी अनुमति नहीं थी। दरबारियों को विशेष प्रकार का वस्व पहनकर ही दरबार में उपस्थित होना पड़ता था। अपने इस कार्यों द्वारा बलवन ने सुल्तान की विलुप्त प्रतिष्ठा एवं गरिमा को पुनः प्रभावशाली बनाया तथा सब पर भय और आतंक स्थापित कर दिया। यद्यपि बलबन ने अपने क्रूरशासन और अत्यन्त कठोर नियम द्वारा दरबारियों तक को आतंकित कर दिया था तथापि यह समयानुकूल और उचित था। बलबन की इसी नीति ने तुर्क साम्राज्य की न केवल रक्षा की बल्कि इसे सुदृढ़ भी किया। सुल्तान पद की गरिमा जो इल्तुतमिश के बाद लगभग समाप्त हो गयी थी उसे पुनः गौरवान्वित करने का श्रेय बलबन को ही है।
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