बलबन के प्रारम्भिक जीवन के विषय में आप क्या जानते हैं? बलवन की प्रारम्भिक कठिनाइयों और उसके समाधान की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।

बलबन के प्रारम्भिक जीवन – ग्यासुद्दीन बलबन का जन्म इल्बरी तुर्क कबीले में हुआ था। उसके बचपन का नाम बहाउद्दीन था। बचपन से ही वह बहुत साहसी और कुशाग्र बुद्धि का था। यह बचपन में मंगोलों के द्वारा पकड़ा गया और उन्होंने उसे बगदाद ले जाकर गुलाम के रूप में बेच दिया। उसे ख्वाजा जमालुद्दीन नामक एक व्यक्ति ने खरीदा और उसे दिल्ली लाया इल्तुतमिश ने 1223 ई. में ग्वालियर की विजय के पश्चात् उसे खरीदा इल्तुतमिश उसकी योग्यता से प्रभावित हुआ और कुछ समय पश्चात् उसे ‘खासदार’ का पद प्राप्त हो गया। अपनी योग्यता और कार्यक्षमता के कारण रजिया के शासन काल में वह ‘अमीर-ए-शिकार’ के महत्वपूर्ण पद पर पहुंच गया।

जब बहराम शाह सुल्तान बना तो उसे ‘अमीर-ए-अखूर (अश्वशाला का प्रधान) का पद प्रदान किया गया। ‘अमीर-ए-अर’ के पद पर रहते हुए उसे मालिक बदरुद्दीन संकर रूमी की उस पर विशेष कृपा रही जिसके कारण उसे रेवाड़ी की जागीर दी गयी। बाद में उसे हाँ की सुबेदारी दी गयी। धीरे-धीरे राज्य की शक्ति बलबन ने अपने हाथों में केन्द्रित कर ली। मसूदशाह को सिंहासन से हटाकर नसिरुद्दीन महमूद को सुल्तान बनाने में मुख्य योगदान बलबन कही रहा। इस कारण नासिरूद्दीन से राज्य की सम्पूर्ण शक्ति बलवन के हाथों में सौंप दी। अगस्त 1249 ई. में बलवन ने अपनी पुत्री का विवाह सुल्तान नासिरूद्दीन से कर दिया। इस अवसर पर उसे ‘उलूग खां’ की उपाधि और ‘नाइब-ए-मामलिकात’ का पद दिया गया। इस प्रकार शासन के समस्त अधिकार उसे प्राप्त हो गये।

सन् 1266 ई. में सुल्तान नासिरूद्दीन महमूद की मृत्यु हो गयी। अब बलबन ने दिल्ली का सिंहासन प्राप्त कर सुल्तान का पद ग्रहण किया। इस प्रकार वह एक गुलाम से साम्राज्य के सर्वोच्च पद सुल्तान तक जा पहुंचा।

बलबन की प्रारम्भिक कठिनाइयां सिंहासन सम्भालने के बाद ग्यासुद्दीन बलबन के समक्ष निम्नलिखित समस्याएं थीं

(1) सुल्तान की प्रतिष्ठा का नष्ट होना

बलबन ने सुल्तान बनने के पूर्व ही यह समझ लिया था शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए यह आवश्यक है कि सुल्तान पद की गरिमा स्थापित रहे। उसने देखा कि राजकीय पद की गरिमा क्षीण हो रही है। इल्तुतमिश की मृत्यु के पश्चात् एक के बाद एक दुर्बल सुल्तानों के कारण सुल्तान का सम्मान नष्ट हो गया था। तुर्की गुलाम सरदारों और बाद के समय में स्वयं बलबन ने भी सुल्तान की शक्ति और सम्मान को नष्ट करने में योग किया था। इस कारण जिन साधनों और तरीकों का उपयोग बलबन ने अपनी शक्ति के निर्माण

के लिए किया था उन्हीं को अपनी शक्ति की रक्षा के लिए नष्ट करना आवश्यक हो गया। तुर्की सरदारों की शक्ति, प्रभाव को नष्ट करना और जन साधारण में सुल्तान के प्रति भय एवं सम्मान की भावना जागृत करना बलबन की प्रमुख समस्या थी।

(2) साम्राज्य की सुरक्षा

सुल्तान की दूसरी प्रमुख कठिनाई दिल्ली सल्तनत की सुरक्षा और उसका संगठन था। उसकी अन्य सभी कठिनाइयां इससे सम्बन्धित थी यद्यपि जलबन के समय में मंगोलों के द्वारा भारत की विजय का भय न था परन्तु मंगोल आक्रमणों से अपनी उत्तर-पश्चिम की सीमाओं की सुरक्षा करना बलबन की एक प्रमुख कठिनाई थी। उत्तर-पश्चिम पंजाब का सम्पूर्ण प्रदेश मंगोलों के हाथ में चला गया था मंगोल भारत में और भी अधिक प्रवेश न कर सके यह बलबन की एक प्रमुख चिन्ता थी।

(3) हिन्दू-शासकों का विद्रोह

इल्तुतमिश की मृत्यु के पश्चात् हिन्दुओं की आक्रमण शक्ति बढ़ गयी थी। राजस्थान, दोआब, मालवा, बुन्देलखण्ड आदि सभी ऐसे प्रदेश थे जहाँ हिन्दू शासक अपनी शक्ति को पुनः स्थापित अथवा विस्तृत करने का प्रयत्न कर रहे थे। बलवन के लिए हिन्दू शासकों की इस आक्रमणकारी शक्ति को नष्ट करना आवश्यक था।

( 4 ) डाकुओं एवं लुटेरों का आतंक

डाकुओं और लुटेरों ने साम्राज्य के अन्दर आतंक फैला रखा था। उन्होंने जनता को लूटने और हत्या करने का बाजार गर्म कर रखा था। जिससे आम जनता में दहशत व्याप्त थी। दिल्ली के निकट मेवों का इतना अधिक आतंक हो। गया था कि कोई भी राजमार्ग सुरक्षित न था। दिल्ली नगर का पश्चिमी फाटक दोपहर की नमाज के बाद बन्द कर दिया जाता था। इतिहासकार बरनी ने लिखा है कि-“दोपहर की नमाज़ से पहले भी वे (मेव) उन पानी भरने वाली दासियों को लूटते थे जो तालाब से पानी लेने जाती थीं। वे उनके कपड़े उतार कर ले जाते थे और उनको नग्न छोड़ जाते थे।” इन डाकुओं एवं लुटेरों से जनता को मुक्ति दिलाना भी बलबन के लिए अति आवश्यक था।

(5) ‘चालीस के दल को कुचलना

इल्तुतमिश द्वारा बनाया गया चालीस गुलामों का दल बहुत शक्तिशाली हो गया था और वह शासन के मामलों में हस्तक्षेप करने लगा था अतः सुचारू रूप से शासन करने के लिए यह अति आवश्यक था कि इस दल का अन्त किया जाये।

नन्द वंश के पतन पर प्रकाश डालिए।

बलवन द्वारा कठिनाइयों का समाधान

सिंहासन प्राप्त होते ही बलबन ने अपने समक्ष उपस्थित उपरोक्त समस्याओं का सफलतापूर्वक समाधान किया।

(1) सबसे पहले सुल्तान पद की गरिमा को बहाल कर दिया। इसके लिए उसने देवी सिद्धान्त का सहारा लिया। इसके लिए अनुसार सुल्तान में ईश्वर का अंश विद्यमान रहता है और वह ईश्वर का प्रतिरूप है। उसने शासन चलाने के लिए लौह और रक्त की नीति का अनुसरण किया। इसके लिए उसने कठोर नियम बनाये और गंभीरता धारण की जो इन नियमों को नहीं मानता था उन्हें कठोर दण्ड दिया जाता था। इससे दरबार में सुशासन स्थापित हुआ।

(2) बलवन ने चालीस गुलामों के दल का विनाश कर दिया जिससे दरबार में शासकीय कार्यों में उनका हस्तक्षेप समाप्त हो गया। इसके लिए उसने चालीस के दल के सदस्यों को कठोर दण्ड दिये।

(3) बलबन ने उलेमाओं को शासन से बिलकुल अलग रखा क्योंकि वह राजनीति में उलेमाओं का हस्तक्षेप पसन्द नहीं करता था।

(4) बलबन को लूटेरों और डाकुओं से साम्राज्य की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण कार्य किये। किया। उसने दिल्ली के आस-पास के जंगलों को कटवाया और इन लुटेरों का क्रूरतापूर्वक दमन

(5) मंगोलों से साम्राज्य को सुरक्षा हेतु उसने उत्तर पश्चिम सीमा पर दुर्ग बनवाये और पुराने दुर्गों की मरम्मत करवायी। वहीं अनुभवी और योग्य सैनिकों की नियुक्ति की। इससे मंगोलों का खतरा बहुत कम हो गया।

बलबन के उपरोक्त प्रयासों से साम्राज्य सुदृढ़ और सुरक्षित हो गया देश में शान्ति स्थापित हुई। सुल्तान के पद की गरिमा स्थापित हुई। दरबार में षड्यंत्रों का अन्त हुआ और दरबारियों में अनुशासन की भावना उत्पन्न हुई।

निःसंदेह बलबन ने साम्राज्य विस्तार की ओर ध्यान न देकर साम्राज्य के सुदृढीकरण पर विशेष ध्यान दिया। यह उसकी सूझबूझ और योग्यता का ही परिचारक था कि उसने मंगोलों से

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