बहलोल लोदी के राज्योरोहण – बहलोल लोदी ने दिल्ली में लोदीवंश की स्थापना की। वह अफगानों की एक महत्वपूर्ण शाखा ‘शाहखेल’ से सम्बन्धित था। बहलोल ने सुल्तान मुहम्मद शाह को प्रसन्न करके अमीर का पद प्राप्त किया था। अपने चाचा इस्लामखों की मृत्यु के उपरान्त उसे सरहिन्द की सूबेदारी भी प्राप्त हो गयी। उसने आस-पास के क्षेत्रों को जीतकर अपनी शक्ति में वृद्धि की और सुल्तान मुहम्मद शाह से भी अधिक शक्तिशाली हो गया। मुहम्मद शाह ने मालवा के शासक महमूद खिलजी के आक्रमण के अवसर पर बहलोल से सहायता मांगी और महमूद खिलजी के वापस चले जाने के पश्चात उसे अपना पुत्र पुकारा तथा उसे ‘खाने जहाँ की उपाधि दी। उसके पश्चात बहलोल ने दो बार दिल्ली को जीतने का प्रयास किया परन्तु दोनों ही बार वह असफल रहा। जब सुल्तान अलाउद्दीन आलमशाह अपने वजीर हमीद खों से झगड़ा कर बदायूँ चला गया तब हमीद खाँ ने बहलोल को दिल्ली बुलाया। हमीद खाँ का विचार था कि बहलोल उसका समर्थक और अनुयायी बना रहेगा। परन्तु बहलोल इसके लिए तत्पर न था। जो कार्य वह शक्ति से न कर सका था वह अब स्वतः ही पूरा हो चुका था। एक दावत के अवसर पर अफगान सैनिक किले में प्रवेश कर गये और बहलोल के चचेरे भाई कुतुब खाँ ने हमीद खाँ को जंजीरों से बाँध दिया तथा कहा कि “राज्य की भलाई इसी में है कि आप कुछ दिन विश्राम करे।” इस प्रकार वजीर हमीद खाँ को कैद कर लिया गया और बाद में उसका वध कर दिया गया। बहलोल ने सुल्तान अलाउद्दीन को बदायूँ से दिल्ली आने का निमन्त्रण भेजा जिसे उसने अस्वीकार कर दिया। इस प्रकार बहलोल को दिल्ली का सिंहासन बिना किसी संघर्ष के प्राप्त हो गया और 19 अप्रैल 1451 ई. को बहलोल शाह गाजी के नाम से दिल्ली के सिंहासन पर बैठा और अपने नाम स
कार्य
बहलोल को सुल्तान की प्रतिष्ठा स्थापित करनी थी, अफगानों की श्रेष्ठता को कायम रखना था विद्रोही जमींदारों और सरदारों को दबाना था तथा शासन को व्यवस्थित करना था। वास्तव में दिल्ली के सिहांसन को प्राप्त करने से उसके राज्य की सीमाओं में कोई विशेष वृद्धि नहीं हुई हालांकि उसका उत्तरदायित्व बहुत बढ़ गया था। उसने अफगान सरदारों को संतुष्ट करने की नीति अपनायी उन्हें बड़ी-बड़ी जागीर दी और उसके प्रति सम्मान जनक व्यवहार किया क्योंकि वे ही उसके राज्य और शासन के आधार थे उसने अफगान को भारत आने के लिए आमंत्रित किया। उसने विद्रोही और उद्दण्ड सरदारों को दण्डित किया तथा उन पर सैनिक आक्रमण किये। उसने मेवात, सम्भल कोलरपरी, भोगाँव और ग्वालियर पर सैनिक आक्रमण किये तथा वहाँ के जागीरदारों और राजाओं को अपना आधिपत्य स्वीकार करने व राजस्व देने के लिए बाध्य किया। वह उनकी जागीरों में कमी करके भी उनकी शक्ति को दुर्बल बनाने में सफल हुआ। परन्तु इनमें से कुछ ऐसे भी थे जो कभी जीनपुर के शासक के साथ और कभी उसके साथ मिल जाते थे तथा वे उसकी पूर्ण अधीनता में तभी आये जबकि बहलोल ने जौनपुर राज्य को जीतने में सफलता प्राप्त की।
जौनपुर की विजय
जौनपुर के शर्की वंश के शासक महमूद शाह ने सैयद वंश के अन्तिम शासक अलाउद्दीन आलम शाह की पुत्री से विवाह किया था। अतः वह आलमशाह का दामाद होने के नाते दिल्ली पर अपना अधिकार भी मानता था। इस कारण उसने बहलोल के शासन के पहले ही वर्ष में दिल्ली पर आक्रमण किया। परन्तु युद्ध के पहले ही उसका सेनापति दरियाखाँ लोदी बहलोल के पक्ष में हो गया और दिल्ली के निकट नरला में महमूद शाह की पराजय हुई और उसे वापस लौटना पड़ा परन्तु महमूद शाह इस पराज्य को न भूला और कुछ समय पश्चात उसने इटावा पर आक्रमण किया इस बार भी उसे सफलता न मिली और दोनों पक्षों में सन्धि हो गयी। परन्तु शघ्र ही दोनों में शमशाबाद के आधिपत्य के प्रश्न पर युद्ध हुआ। दोनों में सन्धि भी हो गयी। क्योंकि युद्ध से कोई परिणाम न निकला। तत्पश्चात बहलोल ने जौनपुर पर आक्रमण किया परन्तु उसमें भी कोई लाभ न हुआ। 1457 ई. में महमूद शाह की मृत्यु हो गयी। महमदशाह के पुत्र मुहम्मद शाह एवं हुसैन ने युद्ध जारी रखा। अंततः हुसैन शाह की पराजय हुई और वह बिहार में शरण लेने के लिए बाध्य हुआ। जौनपुर की विजय बहलोत की सबसे महत्वपूर्ण विजय थी। जौनपुर का राज्य सबसे अधिक समृद्ध और शक्तिशाली था। इस विजय के कारण उसके राज्य और सम्मान में वृद्धि हुई तथा विद्रोही सरदार ही उसके अधीन हो गये बल्कि कालपी, धौलपुर और बादी के शासकों ने भी उनकी अधीनता स्वीकार कर ली।
ग्वालियर विजय
बहलोल का अन्तिम आक्रमण स्वालियर पर हुआ। स्वालियर के राजा मानसिंह ने उसे 80 लाख टंका दिये। ग्वालियर से वापस आते हुए मार्ग में बहलोल बीमार पड़ गया और जुलाई 1480 ई. के मध्य में उसकी मृत्यु हो गयी।
मूल्यांकन
लोदी शासकों में बहलोल लोदी एक योग्य शासक सिद्ध हुआ। यह उसके परिश्रम और सैनिक प्रतिभा का परिणाम था कि लोदी वंश दिल्ली सल्तनत के इतिहास में एक स्थान पा सका। उसके पिता की मृत्यु के उपरान्त उसका लालन-पालन उसके चाचा ने किया था। उसने अपने जीवन का प्रारम्भ एक साधारण स्थिति में किया परन्तु अपनी सैनिक प्रतिभा के कारण उसने सुल्तान मुहम्मद शाह से मलिक की उपाधि प्राप्त की और अपने चाचा से सरहिन्द की सूबेदारी। जब उसने दिल्ली का सिंहासन प्राप्त किया तब दिल्ली सल्तनत का आधिपत्य केवल पालम तक सीमित था। बहलोल ने उसे वास्तविक राज्य का स्वरूप प्रदान किया। अपनी 80 वर्ष की वृद्धावस्था में जब उसकी मृत्यु हुई तब दिल्ली सल्तनत पंजाब से लेकर बिहार तक फैली हुयी थी, दिल्ली, बदायूँ, वरन, सम्भल स्परी आदि प्रमुख नगर उसके राज्य में सम्मिलित ये राजस्थान का कुछ भाग उसकी अधीनता में था तथा ग्वालियर, धौलपुर और बाड़ी के शासक उसे राजस्व देते थे। जब वह सिंहासन पर बैठा था तब तक दिल्ली के दुर्बल शासकों ने दिल्ली सल्तनत की शक्ति और प्रतिष्ठा का सर्वनाश कर दिया था, निकट के जागीरदार मुख्यतया दोआब के विद्रोही, उदण्ड बन चुके थे और जौनपुर के शक शासकों ने अन्तिम सैयद सुल्तानों को परास्त करके अपमानित किया था तथा शमशाबाद और इटावा तक अपने अधिकार क्षेत्र का विस्तार कर लिया था। बहलोल लोदी एक योग्य सेनापति सिद्ध हुआ। उसने विद्रोही जागीरदारों को दबाने में सफलता पायी तथा उसने उस जौनपुर को दिल्ली राज्य में सम्मिलित कर लिया जो 85 वर्षों से दिल्ली के सुल्तानों को चुनौती दे रहा था तथा शक्ति और साधनों में दिल्ली सल्तनत की तुलना में अधिक श्रेष्ठ था। दिल्ल
निःसन्देह बहलोल एक कट्टर सैनिक और योग्य सेनापति था। युद्ध को जीतना उसका एक मात्र लक्ष्य रहता था चाहे उसके साधन कुछ भी हो। वजीर हमीद खाँ और हुसैन शाह शर्की के प्रति उसका व्यवहार चालाकी का रहा। अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए वह आवश्यकतानुसार धोखेबाजी और चालाकी का सहारा लेता था परन्तु उसके चरित्र का यह पक्ष युद्ध तक ही सीमित था। युद्ध के पश्चात वह विपक्षी के प्रति उदार था। दो बार उसने हुसैन शाह की पत्नी को युद्ध में कैद किया परन्तु दोनों बार उसने सम्मान सहित उसके पति के पास भेज दिया यद्यपि वह जानता था कि वह स्वी उसकी और हुसैनशाह की रत्रुता की मुख्य कारण थी। डॉ. केदृएसद् लाल ने लिखा है कि “मध्य युग के भारत में विजयी मुसलमान सुल्तान का यह व्यवहार अद्भुत था। हुसैन शाह को भी उसने कुछ परगनों की आय के उपभोग का अवसर दे दिया था।
बहलोल कूटनीतिज्ञ और परिस्थितियों को समझने वाला था। जौनपुर के अतिरिक्त उसने किसी अन्य राज्य को जीतने का प्रयत्न नहीं किया। इससे स्पष्ट है कि वह अपनी शक्ति की सीमाओं को समझता था। इससे भी अधिक व्यवहारिकता का परिचय उसने अपने अफगान सरदारों के साथ व्यवहार करते हुए दिया। उसने उनमें विश्वास उत्पन्न किया, बड़ी मात्रा में उन्हें अपनी सहायता के लिए एकत्रित किया, उन्हें सम्मान प्रदान किया, उन्हें बड़ी-बड़ी जागीरें दी, उन्हें दिल्ली से लूटी हुई सम्पत्ति में से बराबर का हिस्सा दिया, उनके साथ समानता का एवं मित्रता का व्यवहार किया, उनके साथ बैठकर भोजन किया, कालीन पर बैठकर दरबार किया, उनकी बीमारी अथवा उनके असंतुष्ट होने पर घर गया और इस प्रकार उन्हें संतुष्ट करके उन्हें अपनी शक्ति का आधार बनाया।
फिरोज तुगलक के राज्यारोहण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
निःसन्देह उसकी इस नीति और व्यवहार से हानिकारक परिणाम निकले। इससे सुल्तान सरदारों में से एक बढ़ा सरदार मात्र रह गया। यह स्थिति अफगानों के राजत्व सिद्धान्त के अनुकूल तो थी परन्तु इसके आधार पर एक केन्द्रीय राज्य और सुल्तान की प्रतिष्ठा का निर्माण नहीं किया जा सकता था। इससे स्वतन्त्र प्रवृत्ति की अफगानों की महत्वाकांक्षाएं बलवती हुई और उनकी बड़ी-बड़ी जागीरों ने शक्तिशाली एवं साधन सम्पन्न बनाया। जिसके कारण उसके उत्तराधिकारियों को कठिनाई हुई जो सुल्तान और सरदारों के संघर्ष में परिवर्तित होकर लोदी वंश के पतन का मुख्य कारण बनी। परन्तु बहलोल लोदी के पास इसके अतिरिक्त मार्ग नहीं था। उसका राज्य और शक्ति उसके समर्थक अफगान सरदारों के ऊपर निर्भर करती थी। बहलोल ने अपने अफगान सरदारों का सहयोग प्राप्त किया और उन्हें अपने नियन्त्रण में रखने की सफलता प्राप्त की भविष्य की घटनाओं को न तो वह समझ सकता था न तो उस पर नियन्त्रण रख सकता था इस कारण भविष्य की घटनाओं के लिए उसे दोषी नहीं माना जा सकता है। उसके समय में उसके अफगान सरदारों ने उसके लिए एक राज्य को स्थापित करने और उसकी प्रतिष्ठा को बनाये रखने में पूर्ण सहयोग दिया। इसी में बहलोल लोदी की मुख्य सफलता थी। एक शासक की दृष्टि से बहलोल न तो योग्य था और उसे न एक व्यवस्थित शासन व्यवस्था स्थापित करने का अवसर मिला। इस दृष्टि से उसका एक कार्य उल्लेखनीय है। उसने बहलोल सिक्का चलवाया जो अकबर से पहले तक उत्तर भारत में विनिमय का मुख्य साधन बना रहा। परन्तु शासक की दृष्टि से उसे न्यायप्रिय और उदार शासक माना गया है।
अपनी प्रजा के प्रति वह कठोर न था उसके कष्टों को दूर करने के लिए सदैव तत्पर रहता था और राज्य के धन का अपव्यय अपनी शान-शौकत व्यक्तिगत व्यसन तथा बाहय प्रतिष्ठा के प्रदर्शन हेतु नहीं करता था। व्यक्ति की दृष्टि से बहलोल धार्मिक, उदार, साहसी, ईमानदार, परिश्रमी और दयावान था। वह कुशाग्र बुद्धि वाला और वाकपटु था। बहलोल धर्म में आस्था रखता था परन्तु वह धर्मान्ध न था। उसने हिन्दुओं के प्रति धार्मिक कट्टरता का व्यवहार नहीं किया बल्कि उसके सरदारों में कई प्रतिष्ठित हिन्दू सरदार थे, जैसे राय प्रताप सिंह, राय करनसिंह, राय नरसिंह, राय त्रिलोक चन्द्र और राय दाँदू। दिल्ली सल्तनत के इतिहास में बहलोल का स्थान जौनपुर की विजय, विद्रोही सरदारों के दमन और दिल्ली सल्तनत की खोई हुई प्रतिष्ठा की पुनः स्थापना करने के कारण सम्मान से लिया जाता है।