अशोक की धार्मिक नीति :- अशोक के अभिलेखों को पढ़ने से पता चलता है कि उसने अपने धम्म में उन समस्त बातों को शामिल किया था जो मनुष्य के नैतिक और व्यावहारिक कल्याण के लिए आवश्यक थी। प्रत्येक अभिलेख में इस बात की चर्चा की गई है कि
- अपने माता-पिता की सेवा करनी चाहिए।
- गुरुजनों तथा श्रमणों का आदर करना चाहिए।
- ब्राह्मणों का सम्मान करना चाहिए।
- सदैव सत्य बोलना चाहिए।
- कठोर वचन नहीं बोलना चाहिए।
- सत्य का पालन करना चाहिए।
- चोरी नहीं करनी चाहिए।
- निर्दयता का त्याग करना चाहिए।
- दान और दया का विकास करना चाहिए।
- लोगों का अधिक से अधिक कल्याण करना चाहिए।
अशोक के अभिलेख में वर्णित उपरोक्त बातों को देखने से पता चलता है कि उसके अभिलेखों में वर्णित उपदेश किसी धर्म विशेष से सम्बन्धित नहीं है। वे वही समस्त बातें है, जो प्रायः सभी धर्माचार्य पहले से ही कहते आए हैं। अशोक अगर इसमें से किसी बात का उल्लेख करता है तो उसे किसी धर्म का पोषक नहीं मानना चाहिए क्योंकि उपरोक्त समस्त बातें समस्त धर्मों के मूल में है। अतः कहा जा सकता है कि अशोक का धम्म किसी धर्म से कम तथा नैतिकता से अधिक जुड़ा हुआ है।
अशोक ने लगभग सभी अभिलेखों में धम्म शब्द का प्रयोग किया है। (भद्र अभिलेख को छोड़ कर) मैकफेव लिखते हैं- “अशोक के धाम में कई धर्मों का अंश है। अहिंसा की धारणा जैन धर्म की है। पुनर्जन्म का विचार हिन्दू धर्म का केन्द्रीय विचार है। अशोक के समय तक बौद्ध धर्म, हिन्दू धर्म से पृथक नहीं माना जाता था। वह हिन्दू धर्म के अन्तर्गत एक पंथ या शाखा ही समझा जाता था। अशोक का धम्म जैसा कि अभिलेखों में लिखा है, सब धर्मो का सार था। उस पर सभी धर्मो का प्रभाव था। वह ऐसा व्यवहारिक धर्म था जो उसकी प्रजा के सभी वर्गों के अनुकूल था।
अशोक ने प्रजा के प्रति जो वात्सल्य भाव व्यक्त किए हैं, वह भारत में प्राचीन काल से चले आ रहे थे। अशोक द्वारा प्रतिपादित धर्म महाभारत के आदर्शों से मिलता-जुलता विशेषता थी वह समस्त प्रजा को धर्म मार्ग पर चलाना चाहता था।” है। परन्तु अशोक की यह
धम्म का क्या अर्थ है
इस प्रश्न पर विद्वानों में बहुत अधिक मतभेद है। धम्म शब्द का प्रयोग अशोक के अभिलेखों में कई बार हुआ है, अतः इसका समझना भी आवश्यक है। अशोक अपने दूसरे स्तम्भ लेख में स्वयं प्रश्न करता है कि
कियं च धम्मे अर्थात् (क्या है) अपने प्रश्न का उत्तर भी वह स्वयं देता है और कहता है, कि धम्म अपासिनवे बहुकथाने दया दाने सचे सोचये हैं। अर्थात् धम्म
अपासिनव (अर्थात् पापहीनता है) बहुकथान (अर्थात् कल्याण है), दया है, दान है, सच है (अर्थात् सत्यता है), सोचय (अर्थात् शुद्धि है)।
इस प्रकार अशोक का धम्म पापहीनता, बहुकल्याण, दया, दान, सत्यता और शुद्धि पर आधारित है। उसका यह धम्म रुद्रिवादी, कर्मकाण्डवादावादी व आदर्शमूलक न था। अशोक अपने दूसरे लघु शिलालेख में कहता है- माता-पिता की उचित सेवा, सभी प्राणियों के प्रति आदर का व्यवहार तथा सत्यता मुख्य सिद्धान्त है। धर्म गुणों की वृद्धि करना मानय का कर्तव्य है। इसी भाँति शिष्यों का गुरुओं का उचित आदर करना चाहिए तथा सम्बन्धियों के साथ उचित व्यवहार अपनाना चाहिए।
अशोक का धम्म बड़ा ही व्यावहारिक तथा कुतृत्तियों से दूर था। कुवृत्तियों से दूर रहने का प्रमुख साधन अपासिनव (पाप) से दूर रहना है। अशोक का यह धम्म केवल मानव प्राणी के लिए ही न या प्रत्युत समस्त प्राणिमात्र के लिए था अशाक ने जो भी कार्य किया समस्त प्राणी के सुख के लिए किया। अशोक द्वारा प्रतिपादित धर्म आचार मूलक है जो समाज का प्रत्येक वर्ग सरलता से निर्वाह कर सकता है। यह नैतिक नियम है इसमें साम्प्रदायिकता सेश मात्र नहीं। वह ब्राह्मण धर्म के प्रति भी सहानुभूति रखता है। वह न तो किसी दार्शनिक सिद्धान्तों की व्याख्या करता है और न उन तमाम मतभेदों की ओर ही संकेत करता है जो उसके समय विभिन्न सम्प्रदायों के बीच व्याप्त थे। वह अपनी प्रजा की इहलोक और परलोक के लिए शुभ कामनाएँ करता है। अशोक ने जिन नैतिक नियमों का प्रतिपादन किया है, उनका कोई विरोध नहीं कर सकता। अशोक के साम्राज्य में विभिन्न विचार के सम्प्रदाय विद्यमान थे। अशोक इनमें परस्पर सद्भाव उत्पन्न करके एक सम्प्रदाय उत्पन्
अशोक के धर्म की विशेषताएँ (उपदेश) अशोक के मुख्य रूप से 6 धार्मिक उपदेश थे, जो निम्नांकित है
- अपयित- अपने माता-पिता, गुरुजनों, बड़ों, बूढ़ों की सेवा करना।
- सम्प्रातपत्रि ब्रह्मणों, श्रवण, मित्रबन्धुओं आदि के प्रति दान एवं उचित व्यवहार
- संचेय दया, दान एवं सत्य।
- सोचये चित्त में शुद्धि ।
- दधभक्ति संचय कृतज्ञता एवं साधुता
- मर्दो माधुर्य
धम्म की विशेषताएँ
अशोक के धर्म की कुछ मौलिक विशेषताएँ अग्रलिखित है
(1) सार्वभैमिकता-
अशोक के धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें साम्प्रदायिकता की भावना की कहीं भी झलक नहीं मिलती है। अशोक का धर्म सभी धर्मों का सर है, अतः सम्राट अशोक का धर्म सार्वभौमिक है।
(2) अहिंसा
अशोक के प्रथम शिलालेख से विदित होता है कि अशोक अहिंसा का महान उपासक था। उसने पशुबलि को भी बन्द करवा दिया। प्रथम शिलालेख में अशोक कहता है कि अब मेरी पाकशाला में केवल तीन जीव मारे आएँगे दो मोर और एक मृग और मृग भी सदैव नहीं। भविष्य में तीन जीव भी न मारे जाएँगे।
(3) नैतिक आदर्शों को प्रधानता
अशोक के धर्म में हमें आचरण की शुद्धता एवं नैतिकता पर अधिक बल दिखायी पड़ता है जिससे जनता को इहलोक और परलोक दोनों का सुख मिल सके।
(4) धार्मिक सहिष्णुता
अशोक स्वयं धार्मिक सहिष्णु सम्राट था, किसी भी धर्म के प्रति उसको ईर्ष्या न थी, वह प्रत्येक धर्म को समान समझता था। यह उसके धर्म की एक महान विशेषता थी।
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(5) व्यवहारिकता
अशोक का धर्म पूर्ण व्यावहारिक है, जो बाह्य आडम्बर से दूर जैसा कि आर. एस. नाहर ने लिखा है- ‘धर्म में दर्शन केवल विद्वानों एवं आचार्यों की • वस्तु होती है। धर्म का उद्देश्य अपने अनुयायियों के दार्शनिक ज्ञान का विकास करना ही नहीं है, अपितु उन्हें सत्य मार्ग पर चलाना ही उसकी उद्देश्य पूर्ति है। पर धर्म की प्रायोगिकता का बहुत बड़ा महत्व होता है। दर्शन को महत्व न देकर व्यावहारिक कर्तव्यों को प्रधानता देने का एक बहुत बड़ा फल यह हुआ कि अशोक ने विडम्बनाओं से लोगों की रक्षा की।
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