अरस्तू की क्रान्ति सम्बन्धी धारणा – अरस्तू के विचार से संविधान राज्य के ‘पद की व्यवस्था’ है। राज्य के पदों की प्राप्ति की आकांक्षा विविध वर्गों में विद्यमान रहती है। इसी उद्देश्य से वे न्याय की विविध प्रकार से व्याख्या करते हैं। उदाहरणार्थ वर्गतंत्री असमानता को सब क्षेत्रों में न्याय संगत मानते हैं, जो प्रजातंत्रवादी समानता को ही न्याय मानते हैं। दोनों पक्ष न्याय की अशुद्ध व्याख्या करते हैं। इसलिए उनके मध्य कलह बनी रहती है जो विद्रोह को उत्पन्न करती है। अरस्तू के संविधान में किसी प्रकार के परिवर्तन के कारण कानूनी, आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तन की क्रान्ति भावना है। अरस्तू की क्रान्ति सम्बन्धी धारणा को स्पष्ट करते हुए ‘मैकिलवेन’ ने लिखा है; अरस्तू क्रान्ति को कानूनी परिवर्तन के बजाय राजनैतिक परिवर्तन अधिक मानता है। क्रान्ति केवल राज्य के कानूनी आधार की ही नहीं, वरन् नैतिक, सामाजिक और आर्थिक स्तरों में भी परिवर्तन करती है।
अरस्तु की धारणा है कि क्रान्तियाँ साधारणतया समकालीन स्थिति के प्रति असंतोष के परिणामस्वरूप होती है। कभी-कभी विद्रोह का परिणाम क्रान्ति न होकर तत्कालीन शासन व्यवस्था में कुछ मनुष्यों की स्वार्थपरता और महत्त्वाकांक्षा होती है। अरस्तू की क्रान्ति सम्बन्धी धारणा पर प्रकाश डालते हुये ‘सिनक्लेयर’ ने लिखा है, “चूंकि राज्य का नैतिक आधार न्याय और मैत्री है इसलिए असंतोष और अस्थिरता का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण अन्याय और द्वेष है।… समाज का एक वर्ग जब वह समझने लगता है कि उसे अपने उचित अधिकारों से वंचित किया जा रहा है तब सद्भावना नहीं रह सकती है।” ये सभी परिस्थितियाँ क्रान्ति को जन्म देती हैं।
क्रान्तियों के कारण-
अरस्तू ने क्रान्तियों को दो भागों में विभक्त किया है सामान्य कारण एवं विशिष्ट कारण।
1.समानता या असमानता की भावना
समानता या असमानता की भावना क्रान्ति का अधिक महत्त्वपूर्ण कारण है। अरस्तू के शब्दों में “समानता की भावना क्रान्ति का मूल कारण है। क्रान्ति का कारण सदैव असमानता में मिलता है।
2. न्याय या अन्याय की भावना
अरस्तू का कहना है कि यदि जनता के बहुत बड़े भाग में अन्याय की भावना विद्यमान है तो यह भी क्रान्ति का कारण बन जाती है।
अरस्तू समानता और असमानता की भावनाओं को क्रान्ति का जन्मदाता होने के पक्ष में अनेक उदाहरण देता है। उसने लिखा है कि “मनुष्य ऐसे होते हैं जिनके मस्तिष्क समानता की भावना से ओत-प्रोत होते हैं। अतः वे यह कहकर विद्रोह करते हैं कि यद्यपि वह अधिक सम्पत्तिशाली | व्यक्तियों के समान हैं पर उनको कम सुविधाएँ प्राप्त हैं। उनके विपरीत जिन मनुष्यों के मस्तिष्क असमानता की भावनाओं से भरे रहते हैं वे यह कहकर विद्रोह करते हैं यद्यपि वे अन्य मनुष्यों से श्रेष्ठ हैं पर उनको उन मनुष्यों के बराबर न मिलकर कम मिलता है।
अरस्तू का कथन है कि “इस प्रकार छोटे मनुष्य बराबर होने के लिए और स्थिति वाले मनुष्य बड़े होने के लिए विद्रोही बन जाते हैं।”
अरस्तू के अनुसार क्रान्तियों के विशिष्ट कारण निम्नलिखित हैं-
- सत्ताधारियों में दूसरों के प्रति घृणा तथा व्यक्तिगत लाभ की आकांक्षा,
- सम्मान व असम्मान,
- श्रेष्ठता व निम्नता,
- घृणा।
- विरोधी विचारधाराएं,
- भय,
- राज्य के एक वर्ग की असाधारण वृद्धि,
- निर्वाचन षड्यंत्र,
- नियुक्तियों में लापरवाही,
- अल्प परिवर्तनों की उपेक्षा,
- विदेशियों का आगमन,
- प्रजातियों की विभिन्नता,
- शक्ति संतुलन,
- राज्य की भौगोलिक स्थिति,
- सामाजिक अन्तर,
- मध्य वर्ग की अनुपस्थिति
क्रान्तियों को रोकने के उपाय
1. कानून का पालन
अरस्तू का कथन है कि कानूनहीनता क्रान्ति का कारण बन जाया करती है। इसलिए राज्य को समान कानूनों का निर्माण करना चाहिए।
2. विरोधी वर्गों के हाथों में सत्ता
क्रान्ति पर नियंत्रण रखने के लिए राज सत्ता सदैव विरोधी वर्गों के वयक्तियों के हाथ में होनी चाहिए। शासन पदों पर इन दोनों वर्गों धनी और निर्धन तथा प्रतिभाशाली और सामान्य व्यक्ति की संख्या समान अनुपात में होनी चाहिए। | अरस्तू का मत है कि “इस प्रकार की नीति से असमानता के कारण उत्पन्न होने वाले विद्रोहों की समाप्ति हो जायेगी।”
3. मध्यवर्ग की शक्ति में वृद्धि
दो विरोधी वर्गों में संतुलन रखकर क्रान्ति को रोका जा सकता है। इसके लिए मध्यवर्ग की शक्ति में वृद्धि होती रहनी चाहिए
4. पदाधिकारियों का धनोपार्जन पर नियंत्रण
पद्यधिकारियों द्वारा अनुचित ढंग से धन का उपार्जन किये जाने के कारण जनता कुपित होकर क्रान्ति कर सकती है।
5. शासक वर्ग का उत्तम व्यवहार
शासक वर्ग को जनता के प्रति समानता की भावना से व्यवहार करने से क्रान्ति का जन्म नहीं हो पाता है।
6. अल्पकालीन पदाधिकार की नीति
अरस्तू का मत है कि राज्य के अधिकारियों का कार्य काल कम से कम होने के कारण क्रान्ति की सम्भावना नहीं रहती।
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7. शासन व नागरिक जीवन में अनुरूपता
अरस्तू का कथन है कि “मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन की परिस्थितियों के कारण क्रान्तिकारी बन जाते हैं। अतः शासन व्यवस्था के अनुरूप जीवन व्यतीत न करने वाले व्यक्तियों पर नियंत्रण होना चाहिए, ताकि वे क्रान्ति न कर सकें।
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