अरस्तू के सम्पत्ति सम्बन्धी विचार- अरस्तू ने सम्पत्ति की परिभाषा करते हुए ‘राज्य के अथक प्रयोग में लाये जाने वाले साधनों का सामूहिक नाम बताया है।” बिना सम्पत्ति के कोई भी परिवार अपने जीवन को व्यवस्थित तथा आनन्दपूर्वक व्यतीत नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में साध्य और सुसंस्कृत परिवार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सम्पत्ति सम्बन्धी विचार व्यक्त करते हुए अरस्तू ने लिखा है कि सम्पत्ति परिवार का एक आवश्यक अंग है जिसके बिना दैनिक जीवन सम्भव नहीं है। मनुष्य की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए परिवार की भाँति सम्पत्ति की आवश्यकता भी स्वाभाविक है। सम्पत्ति, जो परिवार का आवश्यक अंग है, उसका स्वामित्व जरूरी है। सम्पत्ति और परिवार मानव को प्रकृति प्रदत्त है। मनुष्य को क्षुधा शान्त करने को भोजन चाहिए. निवास के लिए मकान एवं प्रकृति द्वारा अवस्थित सर्दी-गर्मी से बचने के लिए वस्त्र। ये सब सम्पत्ति के ही भाग हैं। अरस्तू ने सम्पत्ति को दो भागों में विभक्त किया है
- निर्जीव- इस सम्पत्ति में धन, मकान, खेत खलिहान आदि आवश्यक जड़ वस्तुओं का संग्रह है।
- सजीव- इस सम्पत्ति में दास, सेवक आदि आते हैं।
उपर्युक्त दोनों प्रकार की सम्पत्ति परिवार के लिए उपयोगी है। अरस्तु सम्पत्ति की दो विशेषताएँ बताता है-
- समाज में उसकी प्रतिष्ठा स्थापित। हो अर्थात् नागरिकों की दृष्टि में यह स्वीकृति प्राप्त कर चुकी है।
- राज्य की ओर से सम्पत्ति के संरक्षण की उचित व्यवस्था हो।
सम्पत्ति का उत्पादन
अरस्तू के अनुसार सम्पत्ति के उत्पादनों का दो ढंग है
1.मानवीय अथवा प्राकृतिक
इस प्रकार के सम्पत्ति उत्पादन में प्रकृति की सहायता लेकर मनुष्य अपने परिश्रम द्वारा अग्रसर होता है। भूमि में अनाज पैदा करके अथवा पशु चराकर मनुष्य इस सम्पत्ति का उपार्जन करता है।
2. दानवीय अथवा अप्राकृतिक
इस उपार्जन में प्रकृति का कोई हाथ नहीं होता पर लाभ के लालच में मनुष्य की सहायता से उसे प्राप्त किया जाता है। ऋण देकर ब्याज कमाना, व्यापार में लाभ कमाना आदि ऐसे रूप हैं जो सम्पत्ति अर्जन के दानवीय उदाहरण हैं।
सम्पत्ति का वितरण
अरस्तू के मतानुसार सम्पत्ति विभाजन के तीन प्रकार हैं
- सार्वजनिक अधिकार और सार्वजनिक प्रयोग,
- सार्वजनिक अधिकार और व्यक्तिगत प्रयोग एवं
- व्यक्तिगत अधिकार और सार्वजनिक प्रयोग।
परिवार सम्बन्धी विचार
अरस्तू के अनुसार परिवार सामाजिक जीवन का प्रथम सोपान है। यह वह आधारशिला है जिस पर सामाजिक जीवन का विशाल भवन स्थिर रहता है। यहाँ से व्यक्ति का जीवन प्रारम्भ होता है। परिवार नागरिकों की प्रथम पाठशाला है। परिवार में बालक माता की गोद और पिता के संरक्षण में पालित पोषित होकर नागरिकता की प्रथम शिक्षा ग्रहण करता है। यहीं पर उसे जीवन संग्राम से लड़ने के लिए तैयार किया जाता है। परिवार में की गयी तैयारी ही उसकी भावी सफलता या विफलता का कारण बनती है। अपने जन्म के समय से ही व्यक्ति समाज के सूक्ष्म भाग परिवार का अंग बन जाता है। वास्तव में परिवार एक छोटा समाज है जहाँ मननुष्य के जीवन को शिक्षित होने का अवसर मिलता है। व्यक्तित्व का विकास परिवार रूपी समाज में प्रस्फुटित होता है।
अरस्तू के अनुसार परिवार एक त्रिकोणात्मक सम्बन्धों का स्वरूप है। “पति और पत्नी, स्वामी और दास तथा माता-पिता और संतान इन तीन सम्बन्धों के परस्पर नियमानुसार व्यवहार का नाम ही परिवार है।” “परिवार के वृहत्तर रूप को ही हम राज्य कह सकते हैं क्योंकि राज्य एक ऐसा समुदाय है जिसमें अनेक परिवार होते हैं।” अरस्तू के अनुसार परिवार का स्वरूप पैतृक है और परिवार के समस्त सदस्यों का कार्य अलग-अलग होता है। पुरुष परिवार का संचालक और शासक है। वह स्त्री की अपेक्षा अधिक गुणवान और समर्थ होने के कारण परिवार पर पूर्ण नियंत्रण रखता है। परिवार के किसी भी सदस्य को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए। अरस्तू का कहना है कि कभी-कभी परिवार का आवश्यकता से अधिक मोह उसको मार्ग से विचलित कर देता है। अतः राज्य का कर्तव्य है कि वह परिवार को नियंत्रण में रखने के लिए यदा-कदा नियम बनाता रहे।
इस तरह अरस्तू यहाँ ‘मध्यमार्ग’ का अनुसरण करता है। एक ओर वह परिवार का दिल खोलकर समर्थन करता है और दूसरी ओर परिवार को पूर्ण स्वतंत्रता भी प्रदान करना चाहता है।
नागरिकता सम्बन्धी विचार अरस्तू ने अपनी कृति ‘पॉलिटिक्स’ की तीसरी पुस्तक में राज्य एवं नागरिकता सम्बन्धी विचार प्रकट किये हैं। उसने नागरिकता की परिभाषा देने का कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया है। उसने सर्वप्रथम यह बतलाया है कि कौन नागरिक नहीं हो सकते हैं। इस सम्बन्ध में उसने नागरिकता की तत्कालीन प्रचलित मान्यताओं का खण्डन किया है। उसने किसी मनुष्य के राज्य में निवास करते हुए भी नागरिक न होने की चार दशायें बतलायी हैं
उदग्र / शीर्ष गतिशीलता की विवेचना कीजिए।
- राज्य के किसी स्थान विशेष में निवास करने मात्र से नागरिकता नहीं मिल सकती क्योंकि स्त्री, बच्चे, दास और विदेशी जिस राज्य में रहते हैं, उन्हें वहाँ का नागरिक नहीं माना जाता।
- किसी पर अभियोग चलाने का अधिकार रखने वाले व्यक्ति को भी नागरिक नहीं माना जा सकता, क्योंकि संधि द्वारा यह अधिकार विदेशियों को भी दिया जा सकता है।
- उन व्यक्तियों को नागरिक नहीं माना जा सकता जिनके माता-पिता किसी दूसरे राज्य के नागरिक हैं, क्योंकि ऐसा करने से हम नागरिकता निर्धारण करने के किसी सिद्धान्त का निर्माण नहीं करते।
- निष्कासित तथा मताधिकार से वंचित व्यक्ति भी राज्य के नागरिक नहीं हो सकते।
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