अरस्तू के न्याय सम्बन्धी विचारों की व्याख्या कीजिये।

अरस्तू के न्याय सम्बन्धी विचार– अरस्तू ने अपने न्याय सम्बन्धी विचारों की व्याख्या अपने ग्रन्थ ‘पॉलिटिक्स’ में की है। उसके अनुसार “नेक कार्यों को व्यवहार रूप में प्रकट करना ही न्याय है।” अरस्तू ने अपने न्याय-विचार सम्बन्धी सिद्धान्तों को दो भागों में विभक्त किया है

(1) सामान्य न्याय-

अरस्तू के अनुसार, सामान्य न्याय के अन्तर्गत वे सभी कार्य आते हैं, जिनमें नैतिक गुण और अच्छाई सम्मिलित होती है। अरस्तू सभी सद्गुणों को कार्य रूप न्याय मानता है। अर्थात् अरस्तू ने अच्छाई के समस्त कार्यों, समस्त सद्गुणों तथा समग्र साधुता को ‘सामान्य न्याय’ माना है।

(2) विशेष न्याय

अरस्तू के अनुसार विशेष न्याय का तात्पर्य भलाई के विशेष रूप से है। अरस्तू ने विशेष न्याय का अर्थ यह बताया है कि जो कुछ, जिस व्यक्ति को मिलना चाहिये, उसे उसकी प्राप्ति अवश्य होनी चाहिये। अरस्तू विशेष न्याय को आनुपातिक समानता के अर्थ में लेता है। अरस्तू इस विशेष न्याय को भली प्रकार से समझाने हेतु इसको दो भागों में विभक्त करता है

(क) वितरणात्मक न्याय

अरस्तू के अनुसार, “अनेक विभिन्न व्यक्तियों में पदों का न्यायोचित वितरण करने में प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत गुणों का विचार विद्यमान रहना चाहिये।” अर्थात् राज्य में राजनीतिक पदों एवं उपाधियों का वितरण न्याय के अनुसार होना चाहिये।

सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न एवं लोकतांत्रिक गणराज्य” भारतीय संविधान की विशेषता है।

(ख) संशोधनात्मक न्याय

संशोधनात्मक अथवा सुरक्षात्मक न्याय से अरस्तू का आशय लोगों के पारस्परिक सम्बन्धों अथवा व्यवहार को नियंत्रित करके व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों में सुधार लाना है।

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