Ancient History

अरबों के सिन्ध पर आक्रमण का विवेचन कीजिए।

अरबों के सिन्ध पर आक्रमण

हिन्दू राजवंश सातवीं शताब्दी में सिन्ध राज्य का शासन राय वंश के हाथों में था। इस वंश के छः राजाओं के नाम हमें ज्ञात होते हैं- राय दिवजी, राय सिंहरस, राय साहसी, राय सिहरस द्वितीय तथा राय साहसी द्वितीय राय सिहरस द्वितीय के समय में परसिया के निमकज ने सिन्ध पर आक्रमण किया तथा उसकी हत्या कर दी। पारसीकों के लौट जाने के बाद राय साहसी द्वितीय राजा बना। उसकी हत्या कर चाच नामक उसके एक ब्राह्मण मन्त्री ने राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। उसने राय साहसी की विधवा से विवाह किया तथा सूबेदारों ने विद्रोहों को दबाकर समस्त सिन्ध का शासक बन बैठा। उसने सिन्ध में ब्राह्मण वंश की स्थापना की उसने आधुनिक बलूचिस्तान स्थित मकरान का कुछ भाग जीत लिया तथा वहाँ कन्दविल में अननी सत्ता स्थापित कर दी। उसने अपना साम्राज्य कश्मीर तक विस्तृत कर लिया।

चाच के दो पुत्र थे- दाहिर तथा दाहरसिय- चाच के बाद उसका भाई चन्दर सिन्ध का राजा बना किन्तु शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो गयी। इसके बाद उसके पुत्र दुराज तथा बाहिर के बीच उत्तराधिकार युद्ध छिड़ा जिसमें अन्ततोगत्वा दाहिर की विजय हुई। फिर दाहिर तथा दहरसियने सिन्ध राज्य को आधा-आधा बाँट लिया। दाहरसिय की मृत्यु के बाद दाहिर समस्त सिन्ध का एकछत्र शासक। बन बैठा। दाहिर एक शक्तिशाली शासक था किन्तु सिन्ध में उसका विरोध बढ़ता गया। राजनीतिक उथल-पुथल तथा आन्तरिक कलह के कारण देश अत्यन्त निर्बल हो गया। राज्य के अत्चार से समाज के निम्नवर्ग के लोग थे। यहाँ के संसाधन भी सीमित थे। दाहिर के अपहर्त्ता होने के कारण राज्य की अधिकांश प्रजा उससे घृणा करती थी उसी के समय में सिन्ध पर अरबों के आक्रमण हुये।

अरब आक्रमण (मुहम्मद बिन कासिम )

अति प्राचीन काल से भारत तथा अरब के बीच वाणिज्यिक सम्पर्क रहा है। सातवीं शती में इस्लाम को अंगीकार करने के पहले भी अरब भारत के तटीय प्रदेशों में व्यापार के सिलसिले में आया करते थे तथा यहाँ के स्थानीय राजाओं एवं जनता द्वारा उनका स्वागत होता था। इस्लाम धर्म स्वीकार करने के उपरान्त अरबों के दृष्टिकोण में बड़ा परिवर्तन आया तथा अब उनका उद्देश्य व्यापार वाणिज्य के साथ साव धर्म प्रचार भी हो गया। खलीफा उमर के समय में सिन्ध की ओर अरबों का प्रथम अभियान 636 ई. में हुआ जिसका उद्देश्य बम्बई के पास थाना को जीतना था, लेकिन यह असफल रहा। तत्पश्चात् भड़ौच, देवल तथा बलूचिस्तान स्थित मकरान पर कई आक्रमण किये गये।

अपनी प्रारम्भिक पराजय तथा कठिनाइयों के बावजूद अरब सिन्ध की सीमा पर बल तथा जल मार्ग से धावे बोलते रहे तथा अन्नतः आठवीं शती के प्रथम दशक में सिन्ध के प्रदेश मकरान पर अधिकार जमाने में उन्हें सफलता प्राप्त हो गयी। इस अभियान का नेतृत्व इब्न अल-हरि अल-वहित्ती ने किया था। मकरान पर अधिकार हो जाने से सिन्ध विजय का मार्ग प्रशस्त हो गया। इराक के महत्वाकांक्षी अरब गवर्नर हज्जाज ने खलीफा उमर से इसके लिए अनुमति प्राप्त कर लीं। अरब आक्रमण का तात्कालिक कारण लंका से आने वाले कुछ अरब जहाजों को देवल के समुद्री डाकुओं द्वारा लूटना या डाकुओं ने मुस्लिम स्वियों और बच्चों को भी पकड़ लिया तथा उनके साथ बलात्कार किया।

बताया गया है कि ने स्त्रियों तथा बच्चे उन अरब व्यापारियों के थे जो लंका में मर गये थे तथा इन अनाथों को लंका के राजा ने जहाजों से हज्जाज के पास भेजा था। इनके साथ बहुमूल्य उपहार भी थे। लूट की इस घटना से इराक का शासक हज्जाज बड़ा क्रुद्ध हुआ तथा । उसने दाहिर से उन डाकुओं को दण्डित करने तथा क्षतिपूर्ति की माँग की। दाहिर ने दोनों ही प्रस्ताव को ठुकरा दिये। फलस्वरूप हज्जाज ने बारी-बारी से तीन सेनानायक दाहिर के विरुद्ध भेजे। इनमें प्रथम दो सेनानायकों उबैदुल्लाह तथा बुर्दत, को दाहिर ने मार डाला तीसरा सेनानायक मुहम्मद बिन कासिम था। उसने 712 ई. में सिन्ध पर आक्रमण किया। उसके पास पन्द्रह हजार की शक्तिशाली सेना थी जिसमें छः हजार अश्वारोही, इतने ही ऊँट सवार तथा तीन हजार की संख्या में भारवाहक बैक्ट्रियाई ऊँट थे। इन्हें भी युद्ध के निमित्त प्रशिक्षित किया गया था।

मकरान के पास मुहम्मद हारून के नेतृत्व में और सैनिक इसमें शामिल हो गये जबकि उसके तोपखाने को, जिसमें पांच शिला-प्रक्षेपक लगे कुछ थे तथा प्रत्येक में चार सौ प्रशिक्षित सैनिक कार्यरत थे, समुद्र के मार्ग से उससे देवल में मिलने के लिए भेज दिया गया। एक रक्षक सेना अस्वद जहाँ के नेतृत्व में सिन्ध की सीमा पर भेजी गयी। इस प्रकार कासिम के पास कुल पच्चीस हजार सैनिक हो गये। उसकी प्रारम्भिक सफलता के फलस्वरूप सैनिकों की संख्या बढ़ती गयी तथा यह लगभग पचास हजार तक हो गयी। मकरान पहुँचकर उसने वहाँ के राजा की सहायता प्राप्त की तथा दाहिर के शासन से असन्तुष्ट जाटों और मेड़ों को अपनी ओर मिला लिया।

विद्रोही बौद्धों ने भी उसकी सहायता की दूसरी ओर दाहिर की सेना संख्या तथा संसाधन दोनों में काफी कम थी। सर्वप्रथम मुहम्मद ने देवल पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में किया तथा 17 वर्ष से अधिक की आयु के समस्त पुरूषों की हत्या करा दी। उसके आक्रमण से दाहिर स्वयं बड़ा घबड़ा गया तथा उसने देवल में उसका सामना करने के लिए कोई सेना नहीं भेजी। यह उसकी बड़ी भूल थी। देवल के पुरुषों की हत्या के बाद कासिम ने वहाँ के मन्दिरों को भी ध्वस्त कर दिया। वहाँ लूट की अपार सम्पति एवं वस्तुयें उसके हाथ लगी। इस प्रकार बिना किसी प्रतिरोध के ही मुहम्मद को सिन्ध का दक्षिणी भाग प्राप्त हो गया। इसके बाद तिरून, सेहवन, सिसम की विजय करता हुआ उसने सिन्ध नदी पार कर लिया।

दाहिर ने प्रारम्भ से ही सुरक्षात्मक युद्ध किया। यह उस समय ब्राह्मणवाद में था। खतरे का अन्दाजा लगाकर वह यहाँ से मुहम्मद का सामना करने के लिए रावर पहुँचा अरब के लेखकों के अनुसार उसके पास 50 हजार सैनिक थे 20 जून 712 ई. को दोनों सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ जिसमें अन्ततः अरबों की विजय हुई। दाहिर वीरतापूर्वक लड़ता हुआ मारा गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसकी विधवा रानीबाई ने किले के भीतर से अपने पन्द्रह हजार सैनिकों के साथ अरबों के विरुद्ध मोर्चा सम्हाला तथा पत्थरों एवं प्रक्षेपास्वों की वर्षा कर अरब सैनिकों को भारी नुकसान पहुँचाया। किन्तु सीमित साधनों के कारण उसका प्रतिरोध अधिक समय तक नहीं चला। अपनी पवित्रता को बचाने के लिए उसने राजपूत परम्परा का अनुसरण करते हुए जौहर करके प्राणत्याग किया। ब्राह्मणवाद में दाहिर के पुत्र जयसिंह ने भीषण मोर्चेबन्दी की जिसे अरब सैनिक तोड़ नहीं पाये किन्तु पाँच वर्ष तक शासन करने के बाद उसने स्वयं इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया। इसके बाद मुहम्मद ने ब्राह्मणवाद, अलोरा, सिक्का और मुल्तान पर अधिकार कर लिया। दाहिर वंश का विनाश हुआ तथा समस्त सिन्ध के ऊपर अरबों का अधिकार स्थापित हो गया। 715-16 ई. में मुहम्मद बिन कासिम की मृत्यु हो गयी।

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उसकी मृत्यु सम्बन्धी दो विवरण हमें प्राप्त होते हैं। पहले के अनुसार उसने दाहिर की दो पुत्रियों सूर्या तथा परमल देवी को खलीफा वलीद के पास उपहारस्वरूप भेजा। वहाँ पहुँचने पर दोनों ने यह बताया कि कासिम पहले ही उनका शीलभंग कर चुका है। इस पर खलीफा अत्यन्त क्रुद्ध हुआ तथा कासिम को मृत्यु दण्ड दे दिया। दूसरे विवरण के अनुसार खलीफा वलीद की मृत्यु के बाद (714 ई.) उसका भाई सुलेमान गद्दी पर बैठा। वह हज्जाज का प्रबल शत्रु था। चूँकि कासिम हज्जाज का दामाद था, अतः वलीद ने कासिम को बन्दी बनाकर मेसोपोटामिया भेज दिया। वहीं कारागार में यातना देकर उसे मार डाला गया।

मुहम्मद बिन कासिम ने सम्पूर्ण सिन्ध पर शासन किया था परन्तु अरब आक्रमणकारी सिन्ध के आगे नहीं बढ़ सके। कश्मीर के शासक ललितादित्य ने उन्हें परास्त कर उनका आगे प्रसार रोक दिया। 725 ई. में पुनः भारत पर उनका आक्रमण हुआ, किन्तु गुर्जर प्रतिहारों तथा बादामी के चालुक्यों ने उन्हें परास्त किया। गुर्जर-प्रतिहार इतने शक्तिशाली हो गये कि उन्होंने बराबर अरबों को दबाये रखा तथा उन्हें सिन्ध के पूर्व अथवा दक्षिण-पूर्व में कभी भी नहीं बढ़ने दिया सुलेमान भोज प्रथम को इस्लाम का सबसे बड़ा शत्रु कहता है इस प्रकार अरबों को भारतीय भूमि में कभी महत्वपूर्ण सफलता नहीं मिल सकी। मुहम्मद बिन कासिम की मृत्यु के बाद खलीफा हिशाम (724-743 ई.) के समय में जुनैद को सिन्ध का गवर्नर बनाया गया। उसने एक बार पुनः अरब सत्ता के विस्तार का प्रयास किया। बिलादुरी के अनुसार उसने उज्जैन, यहरीमद, अल्वीराज, गिरमाद, अमन्दल, पहना तथा वरवास नामक स्थानों पर आक्रमण किया तथा चैलमान एवं जुर्म को जीत लिया था, किन्तु उसकी सफलता स्थायी नहीं रही। सिन्ध के ऊपर भी ये अधिक दिनों तक अधिकार नहीं रख सके तथा नवीं शताब्दी के अन्त तक यहाँ पुनः हिन्दू राजाओं का अधिकार हो गया।

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