अनुलोम व प्रतिलोम विवाह क्या है?

(1) अनुलोम विवाह

अनुलोम विवाह में निम्न वर्ग या जाति की लड़की का विवाह उच जाति, वर्ण के लड़के से किया जाता है। दूसरे शब्दों में, यदि निम्न जाति की लड़की उच्च जाति में ब्याही जाती है तो उसे अनुलोम विवाह कहा जाएगा। डॉ० के० एम० कपाड़िया के अनुसार, “ब्राह्मण अपने वर्ण के अतिरिक्त अन्य तीनों वर्णों में विवाह कर सकता है, क्षत्रिय अपने वर्ण तथा अपने से नीचे के दो वर्णों में से पत्नी प्राप्त कर सकता है, वैश्य केवल दो वर्णों में से पत्नी प्राप्त कर सकता है और शूद केवल अपने वर्ण में से ही पत्नी प्राप्त कर सकता है।

प्राचीन काल से ही हिन्दू-समाज के अन्तर्गत अनुलोम विवाहों का प्रचलन रहा है, परन्तु जैसे-जैसे प्रत्येक जाति अनेक जातियों में विभाजित होती गयी अनुलोम विवाह की प्रथा समाप्त होती गयी और उसकी जगह सजातीय कुलीन विवाह स्पष्ट होता गया। सजातीय विवाह के अंतर्गत एक ही जाति के और नीच कुल की लड़की का विवाह उससे ऊँचे कुल में होता है। उदाहरणार्थ, अग्रवाल वैश्य (ऊँचा कुल) के लड़के का विवाह यदि माहेश्वरी या जैन वैश्य की लड़की से होता है तो वह जातीय कुलीन विवाह कहलाएगा। आज इस प्रकार के विवाहों का पर्याप्त प्रचलन है।

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(2) प्रतिलोम विवाह

प्रतिलोम विवाह का नियम अनुलोम विवाह के बिल्कुल विपरीत होता हैं। जब उच्च वर्ण या जाति की लड़की का विवाह नीचे वर्ण या जाति के लड़के से कर दिया जाता है। तो उसे प्रतिलोम विवाह की संज्ञा दी जाती है प्रतिलोम विवाह की हिन्दू समाज में अनुमति नहीं दी गयी है। परंपरागत रूप में विवाह के फलस्वरूप उत्पन्न सन्तानों को वर्णसंकर कहा जाता है और उन्हें निम्न कोटि का माना जाता है। डॉ० रामकृष्णन (Dr. Radhakrishnan) के अनुसार, “प्रतिलोम विवाह जिसमें ऊंचे वर्णों की स्त्रियाँ नीचे वर्णों के पुरुषों के विवाह करती हैं, निषि) थे, साथ ही ऐसे विवाह सं उत्पन्न बच्चे चारों वर्णों में सम्मिलित नहीं किए जाते थे, बल्कि चाण्डाल या निषाद हो जाते थे।

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