Medieval History

अलाउद्दीन की दक्षिण नीति का विस्तृत वर्णन कीजिए।

अलाउद्दीन की दक्षिण नीति– अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली का पहला सुल्तान था जिसने विन्ध्याचल पर्वतों को पार कर दक्षिणी प्रायद्वीप को जीतने का प्रयत्न किया। अलाउद्दीन खिलजी एक दूरदर्शी और कूटनीतिज्ञ शासक था, जब उसने मंगोलों एवं उत्तर भारत पर विजय प्राप्त कर ली और उसके पास एक बड़ी तथा शक्तिशाली सेना हो गयी तब वह दक्षिण भारत की विजय के लिए तत्पर हुआ। इस समय दक्षिण भारत में चार शक्तिशाली और सम्पन्न राज्य थे- देवगिरि, तैलंगाना, होयसल एवं पाण्ड्य राज्य विन्ध्याचल पर्वत के दक्षिण-पश्चिम में महाराष्ट्र को सम्मिलित करते हुए यादवों का देवगिरी राज्य था।

रामचन्द्र देव वहाँ का शासक और देवगिरी (आधुनिक दौलताबाद) उसकी राजधानी थी। दक्षिण पूर्व में तैलंगाना का काकतीय राज्य था जिसका शासक प्रताप रुद्रदेव द्वितीय था, उसकी राजधानी वारंगल थी। देवगिरि के दक्षिण और तैलंगाना के दक्षिण-पश्चिम में होयसल राज्य था जिसका शासक वीर बल्लाल तृतीय था, उसकी राजधानी द्वारसमुद्र थी। सुदूर दक्षिण में पाण्ड्य राज्य था जिसे मुसलमान इतिहासकारों ने ‘माबर’ (मलाबार) राज्य के नाम से पुकारा था। सुन्दर पाण्ड्य द्वारा अपने पिता का वध किये जाने के पश्चात् वीर पाण्ड्य और सुन्दर पाण्ड्य नामक भाइयों में मुसलमानों के आक्रमण के समय से संघर्ष चल रहा था। उसकी राजधानी मदुरा थी। अलाउद्दीन खिलजी के दक्षिण भारत को जीतने के दो उद्देश्य बताए जाते हैं (1) साम्राज्यवादी नीति, (2) धन लोलुपता उसने दक्षिण विजय के लिए अपने प्रसिद्ध सेनापति मलिक काफूर को नियुक्त किया था।

दक्षिण भारत के इन राज्यों पर आक्रमण करने में अलाउद्दीन का उद्देश्य धन और विजय लालसा दोनों ही था। फरिश्ता ने लिखा था कि “दक्षिण में गरीब से गरीब लोग भी सोने के आभूषण पहनते हैं और सोने चाँदी के बर्तनों में भोजन करते हैं।” इसी प्रकार दक्षिण के मन्दिरों में भी विपुल सम्पत्ति एकत्र थी। इस कारण अलाउद्दीन का प्रमुख उद्देश्य दक्षिण भारत की सम्पत्ति को लूटना था। परन्तु अलाउद्दीन इतने से ही संतुष्ट न था। दक्षिण भारत के राज्यों को अपनी अधीनता में लेने और वार्षिक कर देने के लिए उन्हें बाध्य करना भी उसका उद्देश्य था जिससे उसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है और उसे दक्षिण से निरन्तर धन भी प्राप्त हो सकता था। अलाउद्दीन एक व्यवहारिक राजनीतिक था। वह जानता था कि दक्षिण भारत को अपने राज्य में सम्मिलित करके उस पर शासन करना असम्भव है। इस कारण उसका दक्षिण के राज्यों को अपने राज्य में सम्मिलित करने का उद्देश्य कभी नहीं रहा। बल्कि जिन राज्यों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली और उसे वार्षिक कर दिया उनके शासकों के प्रति उसका व्यवहार सम्मानपूर्ण रहा।

दक्षिण विजय

तेलंगाना पर पहला आक्रमण

दक्षिण भारत में अलाउद्दीन द्वारा सबसे पहला आक्रमण फखरूद्दीन जूना तथा मलिक छज्जू के नेतृत्व में 1303 ई. में तेलंगाना पर बंगाल एवं उड़ीसा के मार्ग से किया गया था। परन्तु वहाँ के काकतीय शासक प्रतापरुद्रदेव ने इस सेना को परास्त करके अव्यवस्थित रूप से पीछे लौटने को मजबूर कर दिया था। उसके पश्चात् अलाउद्दीन खिलजी कुछ वर्षों तक दक्षिण की ओर ध्यान नहीं दे सका।

देवगिरि पर आक्रमण

अलाउद्दीन ने अपने चाचा तथा श्वसुर जलालुउद्दीन खिलजी के शासन काल में सन् 1295 ई. में देवगिरि पर आक्रमण किया था। उसने वहाँ के राजा रामचन्द्र को दिल्ली साम्राज्य की अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य कर बहुत धन प्राप्त किया तथा वार्षिक कर देने को बाध्य किया परन्तु 1305 ई. अथवा 1306 ई. में उसने उस वार्षिक कर को दिल्ली नही भेजा। अलाउद्दीन वार्षिक कर की हानि को बदार्शत करने के लिए तत्पर न था। फलतः देवगिरि को फतह करने के लिए अलाउद्दीन द्वारा सन् 1306-07 ई. में एक सेना सल्तनत के नाइब मलिक काफूर के नेतृत्व में देवगिरि भेजी गयी। मालिक काफूर ने देवगिरि पर आक्रमण किया जिसमें रामचन्द्रदेव को पराजित होकर आत्मसर्पण करना पड़ा। उसे दिल्ली लाया गया। दिल्ली में अलाउद्दीन से उससे मित्रवत व्यवहार किया तथा उसे “रायराहन” की उपाधि देकर उसका राज्य उसे राजस्व देते रहने के वचन पर वापस कर दिया। यह मित्रता अलाउद्दीन को दक्षिणी भारत की अन्य विजयों में सहायक सिद्ध हुयी। डॉ. यू. एस. राय ने लिखा है कि “निःसन्देह देवगिरि दक्षिण और सुदूर दक्षिण में खिलजी के सैनिक अभियानों का आधार बना।”

तेलंगाना पर पुनः आक्रमण

देवगिरी पर आक्रमण की सफलता ने अलाउद्दीन को तेलंगाना पर पुनः आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया। 1 नवम्बर 1309 ई. को मलिक काफूर को तेलगाना पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया। मलिक काफूर ने तेलंगाना पर अचानक आक्रमण करके तेलंगाना के शासक प्रताप रूद्रदेव को समर्पण करने के लिए बाध्य कर दिया। समर्पण के बाद युद्ध क्षति की पूर्ति के लिए तेलंगाना के शासक ने मालिक काफूर को 100 हाथी, 7000 घोड़े तथा अत्यधिक मात्रा में नगद धन, सोना, चाँदी, रत्न-जवाहरात आदि भेट किये और इसके साथ दिल्ली के सुल्तान को वार्षिक कर देना भी स्वीकार किया। खाफ़ी खां के अनुसार रूद्रदेव ने मलिक काफूर को कोहिनूर हीरा भी भेट किया था।

होयसल पर आक्रमण

काफूर को तेलगाना से वापस हुए अभी कुछ माह ही हुये थे कि अलाउद्दीन ने 1310 ई. में उसे एक विशाल सेना के साथ होयसल राज्य को जीतने के लिए भेजा। काफूर ने देवगिरि के रास्ते से होते हुए होयसल राज्य की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में उसे देवगिरि के शासक रामचन्द्रदेव ने हथियारों और रसद की ही सहायता नहीं दी, बल्कि अपनी दक्षिण सीमा के सेनापति परसराम (पारस देव) को भी उसकी सहायता के लिए नियुक्त किया। जिस समय काफूर होयसल राज्य की सीमा पर पहुंचा, उस समय वीर पाण्ड्य और सुन्दर पाण्ड्य के पारस्परिक झगड़े से लाभ उठाने के लिए वीर बल्लाल तृतीय पाण्ड्य राज्य की सीमाओं पर आक्रमण करने हेतु गया हुआ था। यह सूचना पाकर काफूर ने उसकी राजधानी द्वारसमुद्र पर आक्रमण कर दिया। वीर बल्लाल तुरन्त लौट आया परन्तु मालिक काफूर ने तीव्रता से प्रस्थान कर होयसल के शासक वीर बल्लाल को घेर लिया। दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में बीर बल्लाल पराजित हुआ और होयसल पर मलिक काफूर का अधिकार हो गया। काफूर ने नगर में मन्दिरों को लूटा व नष्ट कर दिया। होयसल राजा वीर बल्लाल को बाध्य होकर युद्ध का भारी हर्जाना चुकाना पड़ा तथा दिल्ली के सुल्तान की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। युद्ध व्यय के रूप में उसने मालिक काफूर को बड़ी संख्या में हाथी, घोड़े, तथा सोना-चांदी, जवाहरात आदि अर्पित किये तथा दिल्ली के सुल्तान को वार्षिक कर देना स्वीकार किया, एवं पाण्डेय राज्य पर आक्रमण करने में सहायता प्रदान करने का आश्वासन भी दिया।

पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण

पाण्ड्य राज्य भारत के दक्षिणी प्रायद्वीप के अन्तिम छोर पर स्थित था। उस समय पाण्ड्य राज्य में सिंहासन के लिए वीर पाण्ड्य व सुन्दर पाण्ड्य नामक दो भाइयों में संघर्ष चल रहा था। सुन्दर पाण्ड्य ने वीर पाण्ड्य द्वारा पराजित होकर मलिक काफूर से सहायता मांगी थी जो उस समय दक्षिण में ही था। मलिक काफूर ने 1311 ई. में पाण्ड्य राज्य की सीमा में प्रवेश किया। काफूर ने मदुरा पर आक्रमण किया किन्तु वीर पाण्ड्य वहाँ से जा चुका था और छुप-छुप कर स्थान-स्थान पर उसने शत्रु की सेना से युद्ध किया। काफूर ने उसे पकड़ने के लिए बहुत प्रयास किया किन्तु वह अन्त तक उसके हाथ नहीं आया। अन्त में पाण्ड्य राज्य पर मलिक कापुर का अधिकार हो गया लेकिन उसने उसे अपने साम्राज्य का अंग नहीं बनाय और अपार धन सम्पत्ति लेकर दिल्ली लौट आया।

देवगिरि पर पुनः आक्रमण

रामचन्द्रदेव की मृत्यु 1312 ई. में होने के बाद उसका पुर शंकरदेव देवगिरि के सिंहासन पर बैठा और काफूर के दिल्ली लौट जाने के बाद वार्षिक कर देना बन्द कर दिया। इसलिए 1313 ई. में अलाउद्दीन ने शंकरदेव को दण्ड देने के लिए काफूर को पुनः देवगिरि पर आक्रमण करने के लिए भेजा। शंकरदेव और काफूर के बीच भयंकर युद्ध हुआ और इस युद्ध में शंकरदेव मारा गया। अलाउद्दीन खिलजी ने अब देवगिरि के अधिकांश भाग को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।

पानीपत के प्रथम युद्ध में बाबर की सफलता के क्या कारण थे?

अलाउद्दीन की दक्षिण नीति का परिणाम

अलाउद्दीन की दक्षिणी नीति के फलस्वरूप समस्त दक्षिण भारत पर दिल्ली का प्रभुत्व स्थापित हो गया और साम्राज्य भी अत्यधिक विशाल हो गया। दक्षिण के अधिकांश राज्यों से दिल्ली को वार्षिक कर प्राप्त होने लगा। समुद्रगुप्त की तरह अलाउद्दीन ने भी दक्षिण भारत को अपने साम्राज्य में नहीं मिलाया। वह जानता था कि इतने बड़े साम्राज्य पर उन दिनों एक केन्द्र से शासन करना सम्भव न था । इसलिए विजित राज्यों को उसने उनके शासकों को लौटा दिया। इससे यह विदित होता है कि वह एक दूरदर्शी एवं यथार्थवादी सुल्तान था।

इस प्रकार अलाउद्दीन खिलजी की दक्षिण नीति पूर्णतः सफल रही जिसके कारण दिल्ली सल्तनत को विशाल धनराशि युद्ध व्यय के रूप में प्राप्त हुयी तथा वार्षिक कर भी प्राप्त होता रहा।

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