अलाउद्दीन के राजत्व सिद्धांत – अलाउद्दीन खिलजी अपने वंश का सबसे योग्य और महत्वकांक्षी शासक था। उसने अपनी योग्यता और दूरदर्शिता से न केवल तुर्क साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान किया बल्कि साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार भी किया। अलाउद्दीन पहला शासक था जिससे दक्षिण में आक्रमण करने का साहस किया और इसमें वह पूरी तरह सफल भी रहा। बाजार नियंत्रण और मूल्य निर्धारण में उसका कोई पूर्वागामी नहीं था। अपने राजस्व सिद्धांत के माध्यम से उसने अपने को निरंकुश और स्वेच्छाचारी बनाया। वह सुल्तान को अल्लाह का प्रतिनिधि मानता था। उसका सिद्धांत था कि सुल्तान की दृष्टि में देश के निवासी या तो उसके सेवक हैं या उसकी प्रजा । “राजा का कोई सम्बंधी नहीं होता”। उसका विश्वास था कि राजा ही सर्वोपरि है। राजा की इच्छा ही कानून है। उसके सब अफसर उसके अधीन थे, कोई उसे सलाह देने का साहस नहीं कर सकता था। प्रत्येक को राजा की आज्ञा का पालन करना होता था। वह कहा करता था
“राज्य के हित में जो भी मुझे ठीक लगता है मैं करता हूँ। इसका कयामत के दिन क्या परिणाम होगा यह मैं नहीं जानता।” अपने राजस्व के सिद्धांत को कार्यान्वित करने के लिए उसे निम्न कार्य किये
(1) राजनीति से उलेमाओं को अलग करना
उस समय शासन में इस्लामी विद्वानों अर्थात उलेमाओं का महत्वपूर्ण स्थान होता था। उन्हें शासन के किसी भी कार्य में सुल्तान को निर्देश देने का अधिकार था और वे शासक के अनुचित कार्यों की निंदा कर सकते थे। अलाउद्दीन ने उपरोक्त सिद्धांत को अस्वीकार दिया। उसका मत था कि राजत्व पर किसी का • अधिकार नहीं हैं इसको वे सभी प्राप्त कर सकते हैं जो इसे रखने की योग्यता एवं ताकत रखते हो। उसके अनुसार राजत्व में कोई धार्मिक सहयोग की आवश्यकता नहीं थी, इसलिए उसने न तो खलीफा से कोई प्रमाण-पत्र लिया न खलीफा के नाम का उपयोग करने की कोई इच्छा रखी। उसकी निगाह में धर्म और राजनीति अलग-अलग चीज़े थीं इसलिए वह मुल्ला और मौलवियों के प्रभाव से राजनीति को अलग रखना चाहता था। वह उलेमाओं के हस्तक्षेप को राज्य के कार्यों में सहन नहीं कर सकता था उसने उन्हें एक प्रकार से बिल्कुल सामान्य स्तर पर ला दिया। यही नहीं, अपराध के लिए उलेमाओं को भी कठोर दण्ड देने की व्यवस्था की इस प्रकार उसने मुस्लिम उलेमाओं को राजनीति से बिल्कुल पृथक कर दिया और उनके विशेषाधिकार भी समाप्त कर दिये थे।
(2) धार्मिक असहिष्णुता की नीति का पालन
अलाउद्दीन धार्मिक रूप से असहिष्णु बताया जाता है क्योंकि उसने हिन्दुओं के प्रति कठोर नीति अपनायी। उसका सिद्धांत था कि भगवान ने हिन्दुओं को इस्लाम का विरोधी एवं शत्रु बनाया है, इसलिए पैगम्बर ने आदेश दिया कि हिन्दुओं को या तो इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेना चाहिये या उनको दास के रूप में परिणित कर देना चाहिये। सुल्तान का यह भी मत था कि हिन्दुओं को जजिया कर अदा करना चाहिये। वास्तव में उसकी यह नीति धर्म से प्रेरित न होकर राजनीति से प्रेरित थी। जो भी उसकी सत्ता और साम्राज्य को संकट पैदा करने का प्रयास करता था सुल्तान उससे कठोरतम् व्यवहार करता था।
(3) दरबारियों व सरदारों का दमन
अलाउद्दीन ने अपने अध्यादेशों द्वारा अमीरों, सरदारों के उत्सव, सभा गोष्ठी, तथा पारस्परिक मिलन को बंद कर दिया था। उनकी धन सम्पत्ति पर अपना अधिकार कर लिया था। उन्हें इतना निर्धन बना दिया गया था कि वे जीविका साधन जुटाने में ही लगे रहते थे। विद्रोह का नाम लेने तक का उन्हें अवकाश नहीं था। वे आपस में सामाजिक बंधन भी नहीं रख सकते थे।
(4) साम्राज्य का केन्द्रीयकरण
अलाउद्दीन ने समस्त शक्ति अपने हाथ में केन्द्रित कर ली थी। सेना पर सम्पूर्ण अधिकार अलाउद्दीन का ही था। राज्य के हर विभाग की देख-रेख वह स्वयं करता था। अपने गुप्तचर विभाग द्वारा वह हर बात की जानकारी रखता था। वह सिकंदर के समान विश्व-विजय करने का स्वप्न भी देखा करता था और कभी-कभी अपने को संसार का सुल्तान अथवा पृथ्वी के शासकों का सुल्तान कहकर पुकारा करता था। उसने अमीरों तथा सरदारों का बुरी तरह दमन किया।
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(5) निरंकुश शासन
अलाउद्दीन खिलजी ने अपने राजत्व के सिद्धांत के अनुसार स्वेच्छाचारी शासन व्यवस्था स्थापित की। उसने दरबार में शान शौकत और कठोर अनुशासन द्वारा सुल्तान के पद की गरिमा स्थापित की। वह इस कठोरता द्वारा लोगों के दिलों में शासक के प्रति श्रद्धा और भक्ति उत्पन्ना करना चाहता था। निःसंदेह अलाउद्दीन का शासनकाल निरंकुशता की पराकष्ठा पर पहुंच गया था। परंतु यह उस समय की आवश्यकता थी जैसा कि उसके विषय में एलफिन्टन ने कहा है। वह सफल शासक था तथा उसने अपनी शक्ति का उचित प्रकार से प्रयोग किया था। निःसंदेह उसका शासनकाल गौरवशाली था।
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