आश्रम व्यवस्था- आश्रम का अर्थ है श्रम करने के बाद विश्राम करना। ऋग्वैदिक काल में एक हिन्दू के जीवन को चार भागों में बाँटकर उसे अलग-अलग आश्रमों से जोड़ा गया। जोबालोपनिषद् में सर्वप्रथम चारों आश्रमों का एक साथ उल्लेख मिलता है जिनका विवरण निम्नवत् हैं
(1) ब्रह्मचर्य आश्रम (25 वर्ष तक)
ब्रह्मचर्य आश्रम विद्याध्ययन का काल था जो उपनयन संस्कार से आरम्भ होता था। बौधायन धर्मसूत्र के अनुसार ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार गायत्री मंत्र के द्वारा वसंत ऋतु में 8 वर्ष की अवस्था में किया जाता था। क्षत्रिय बालक का उपनयन संस्कार ग्रीष्म ऋतु में त्रिष्टुप मंत्र द्वारा 11 वर्ष की अवस्था में होता था। इसी प्रकार वैश्य बालक का उपनयन संस्कार शरद ऋतु में जगती मंत्र द्वारा 12 वर्ष की अवस्था में होता था।
(2) गृहस्थ आश्रम ( 25 वर्ष से 50 वर्ष तक)
गृहस्थ आश्रम को सभी आश्रमों में श्रेष्ठ माना गया है। यह समाज के सभी वर्णों में मान्य था। गृहस्थ आश्रम में ही मनुष्य तीन ऋणों से मुक्ति पाता था। इसी आश्रम में ही पंच महायज्ञ तथा त्रिवर्ग का विधान था।
(3) वानप्रस्थ आश्रम (50 से 75 वर्ष तक)
जब मनुष्य लौकिक जीवन के कार्यों से मुक्ति पा लेता था तब वह पारलौकिक जीवन की तरफ उन्मुख होता था। अतः वानप्रस्थ भौतिक जीवन से मुक्ति का साधन था, परन्तु अब भी व्यक्ति का समाज से सम्बन्ध बना रहता था।
सामाजिक अनुशास्तियों (अभिमतियों) के प्रकार बताइए।
(4) संन्यास (75 से 100 वर्ष तक)
संन्यास का अर्थ है ‘पूर्ण त्याग’। इसमें मनुष्य घर का पूर्ण त्याग, मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से करता था।