सामाजिक समस्याओं के निवारण के उपाय की विवेचना कीजिए।

विश्व के सामाजिक समस्याओं के इतिहास का अवलोकन करने पर पता चलता है कि वास्तव में बहुत सी सामाजिक समस्याओं को समय-समय पर हल किया गया।

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गुलामी की प्रथा से लोगों को मुक्त कराया जा सका। प्रतिदिन बारह घण्टे और सप्ताह में सात दिन तक मजदूरों से काम लेने की समस्या को हल किया जा सका। इसी प्रकार बाल श्रम की समस्या का निवारण संभव हुआ। आज अनेक देशों ने निर्धनता की स्थिति पर काफी नियंत्रण प्राप्त कर लिया है और बहुत से देश इस दिशा में आगे बढ़ रहे है। वर्तमान में अनेक बीमारियों की रोकथाम का भी सफलतापूर्वक प्रयत्न किया जा सका है। कुछ विद्वानों की यह भी धारणा है कि परिस्थितियों के बदलने के साथ-साथ समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। ऐसी स्थिति में पुरानी समस्याओं का स्थान नवीन समस्याएं ले लेती हैं।

सामाजिक समस्याओं को हल करने के लिए तीन उपागमों पर विचार करना आवश्यक है-

  1. बहुकारकवादी उपागम
  2. पारस्परिक सम्बन्ध
  3. सापेक्षिकता उपागम

(1) बहुकारकवादी उपागम (Multiple Factors Approach )

इसके अनुसार यह माना जाता है कि किसी भी सामाजिक समस्या का जन्म अनेक कारकों के परिणामस्वरूप होता है। सामाजिक समस्या के लिए कोई एक कारक उत्तरदायी नहीं है। उदाहरण के रूप में यह नहीं माना जा सकता कि केवल निर्धनता के कारण ही संपत्ति के विरुद्ध अपराध होते हैं। यदि ऐसा होता है तो अनेक धनी व्यक्तियों के द्वारा अपराध क्यों किये जाते हैं? इसी प्रकार बेकारी अथवा छात्र असंतोष के पीछे कोई एक ही कारण नहीं पाया जाता।

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(2) पारस्परिक संबंध (Inter-related approach)

इस उपागम का तात्पर्य विभिन्न सामाजिक समस्याओं के एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से संबंधित होने से है। यदि हम किसी एक समस्या को पृथक रूप से सुलझाना चाहे तो यह संभव नहीं है। उदाहरण के रूप में, अस्पृश्यता निवारण के लए यह आवश्यक है कि अस्पृश्य या अछूत समझे जाने वालों को आर्थिक और सामाजिक प्रगति के अवसर प्रदान किये जायें। किंतु इसके साथ ही यह भी अनिवार्य है कि अन्य जातियों के लोगों में उनके प्रति पायी जाने वाली पूर्व निर्धारित धारणाओं को दूर किया जाय। यह शिक्षा के माध्यम से अज्ञानता को दूर करने से ही संभव है। इसके साथ ही अस्पृश्यता निवारण से संबंधित कानून को कठोरतापूर्वक लागू करने की आवश्यकता भी है।

(3) सापेक्षिकता उपागम (Relativity Approach)

इस उपागम का तात्पर्य यह है कि सामाजिक समस्या का स्थान एवं समय के साथ गहरा संबंध पाया जाता है। यह संभव है कि आज भारत में जिस स्थिति को एक सामाजिक समस्या के रूप में माना जाता है, वह कुछ समय पूर्व उस रूप में नहीं मानी जाती हो। उदाहरण के रूप में आज अस्पृश्यता को एक गंभीर सामाजिक समस्या माना जाता है परंतु भूतकाल में यह समस्या नहीं समझी जाती थी। अमरीका एवं अफ्रीका में प्रजातीय भेदभाव समस्या (Problem of Racial Descrimination) के रूप में है, किंतु भारत में नहीं आज जिसे लोग सामाजिक समस्या के रूप में देखते है, संभव है वहीं स्थिति निकट भविष्य में सामान्य स्थिति बन जाय और लोग उसे समस्या नहीं माने।

किसी सामाजिक समस्या का समाधान करने में नेताओं की प्रमुख भूमिका होती है। वे स्वयं के उदाहरण द्वारा जनता को समस्या के निराकरण के संबंध में स्वस्थ विचार प्रदान कर और समस्या को हल करने में सफलता प्राप्ति के पूर्व सफलता की एक हवा या वातावरण तैयार कर लोगों में एक सामूहिक अभिरुचि कर सकते है। ऐसा होने पर लोगों में आवश्यक धारणाएं निर्मित हो पायेगी एवं सामाजिक समस्याओं के निराकरण में वे सक्रिय योगदान कर सकेंगे।

सामाजिक समस्या की अवधारणा, अर्थ एवं परिभाषा।Concept of Social Problem-Meaning and Definition

सामाजिक समस्याओं के निवारण या हल करने में समाजशास्त्रीय अति महत्वपूर्ण भूमिकायें निर्वाह कर सकते हैं। इस संदर्भ में उनकी कुछ महत्वपूर्ण भूमिकाये निम्नलिखित हैं :-

  1. समाजशास्त्री कार्य-कारण-संबंधों का पता लगाने की दृष्टि से शोध (Research) कर सकते हैं और इस प्रकार सामाजिक समस्याओं के संबंध में अपने ज्ञान में वृद्धि कर सकते हैं।
  2. एक उच्च स्तरीय शिक्षक के रूप में अपनी भूमिका के माध्यम से और सामान्य जनता के लिये अपने भाषण एवं लेखन से वे लोगों के सामाजिक समस्याओं के प्रति जागरूक बना सकते हैं।
  3. समाजशास्त्री परिवार, विवाह, स्थानीय समुदाय के विकास एवं उद्योग से संबंधित समितियों आदि में सलाहकार के रूप में कार्य कर सकते हैं।
  4. वे विशिष्ट समस्याओं का समाधान करने के लिये कार्यक्रम सुझा सकते हैं।
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