सामाजिक वर्ग के विभाजन की प्रकृति पर प्रकाश डालिए।

सामाजिक वर्ग के विभाजन की प्रकृति- वर्तमान समाजों का संगठन प्रमुख रूप से विभिन्न वर्गों पर ही निर्भर है। औद्योगीकरण के इस युग में सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि होने के साथ ही सामाजिक वर्गों का महत्व भी निरंतर बढ़ता जा रहा है। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि सामाजिक स्तरीकरण के एक प्रमुख आधार के रूप में यहां पर वर्ग की धारणा का भी संक्षिप्त विवेचन किया जाये। वर्ग से हमारा तात्पर्य व्यक्तियों के उस समूह से होता है जिनकी सामाजिक स्थिति लगभग समान स्तर की होती है। इसका तात्पर्य है कि एक समान कार्य करने वाले, समान प्रकार के उपन्यास पढ़ने वाले अथवा सभी चित्रकार एक वर्ग का निर्माण नहीं करते, बल्कि समान सामाजिक पद के कारण जब कुछ व्यक्ति पारस्परिक सम्बन्धों की स्थापना करते हैं तब वे एक वर्ग का निर्माण करते हैं। इतना अवश्य है कि जातिगत भावना के समान सामाजिक वर्गों में भी एक वर्ग चेतना (Class Consciousness) पायी जाती है लेकिन यह चेतना किसी स्वार्थ को पूरा करने के दृष्टिकोण से विकसित होती है, पारस्परिक सहयोग की भावना से नहीं समाज के विभिन्न वर्गों की रचना एक पिरामिड (phyramid) के समान होती है, जिसमें सबसे ऊपर के वर्ग में सबसे कम सदस्य होते हैं और सबसे नीचे के वर्ग की सदस्य संख्या सबसे अधिक होती है।

प्रकृति – सामाजिक वर्ग की प्रकृति को अनेक प्रकार से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। हमारे सामने कठिनाई यह आती है कि हम वर्ग का आधार व्यक्ति की सामाजिक स्थिति को मानें, आर्थिक सफलताओं को, अथवा सांस्कृतिक विशेषताओं को ? विभिन्न विद्वानों ने इन्हीं में से किसी न किसी एक आधार पर सामाजिक वर्ग को परिभाषित किया है।

(क) सामाजिक आधार पर

आगबन का कथन है, “एक सामाजिक वर्ग की मौलिक विशेषता दूसरे सामाजिक वर्गों की तुलना में उसकी उच्च अथवा निम्न सामाजिक स्थिति है।” इस परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि एक सामाजिक वर्ग के सभी सदस्यों की सामाजिक स्थिति लगभग समान होती है। इस प्रकार सामाजिक स्थिति के आधार पर ही एक वर्ग को दूसरे से पृथक किया जा सकता है। मैकाइवर का कथन है, “सामाजिक वर्ग समुदाय का वह भाग है जिसे सामाजिक स्थिति के आधार पर शेष भाग से अलग कर दिया गया हो।” इस परिभाषा में आगवर्न के कथन को ही मान्यता दी गयी है।

जिसबर्ट के अनुसार, “एक सामाजिक वर्ग व्यक्तियों का समूह अथवा एक विशेष श्रेणी है जिसकी समाज में एक विशेष स्थिति होती है। यह विशेष स्थिति ही अन्य समूहों से उनके सम्बन्ध को निर्धारित करती है।” उदाहरण के लिए जो व्यक्ति प्रशासन में लगे हुए हैं उनकी समाज में एक विशेष स्थिति होने के कारण उनका एक पृथक वर्ग बन जाता है। उनकी इसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए माध्यम वर्ग अथवा श्रमिक वर्ग को उनसे कुछ विशेष प्रकार के सम्बन्धों की स्थापना करनी पड़ती है।

(ख) आर्थिक आधार पर

दूसरी श्रेणी उन विद्वानों की है जिन्होंने आर्थिक स्थिति को वर्ग के निर्धारण का प्रमुख आधार माना है। उनका कहना है कि किसी एक विशेष वर्ग में व्यक्ति की सदस्यता इस बात पर निर्भर है कि उसका उत्पादन के साधनों पर कितना अधिकार है अथवा सम्पत्ति के वितरण में उन्हें कितना हिस्सा प्राप्त होता है। इस विचारधारा के प्रमुख समर्थक मार्क्स और वेबर आदि है।

मार्क्स का कथन है,” एक सामाजिक वर्ग को उसके उत्पादन के साधनों और सम्पत्ति के वितरण के साथ स्थापित होने वाले सम्बन्धों के संदर्भ में ही परिभाषित किया जा सकता है। ” मार्क्स का समर्थन करते हुए वेबर (Max Waber) का विचार है कि वर्तमान युग में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति को निर्धारित करने वाला आधार भी उसकी आर्थिक स्थिति ही है। इस प्रकार आर्थिक आधार को महत्व दिये बिना सामाजिक वर्ग को सही प्रकार से परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसी विचारधारा के एक समर्थक गोल्डनर का कथन है, “एक सामाजिक वर्ग उन व्यक्तियों अथवा परिवारों की समग्रता है जिनकी आर्थिक स्थिति लगभग समान होती है।”

(ग) सांस्कृतिक आधार पर

अनेक विद्वानों ने सामाजिक वर्ग को सांस्कृतिक आधार पर परिभाषित किया है। इनमें गिंसबर्ग, लेपियर तथा ओल्सेन द्वारा दी गयी परिभाषाओं को प्रमुख स्थान दिया जा सकता है।

गिंसबर्ग का कथन है, “एक सामाजिक वर्ग ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो व्यवसाय, धन, शिक्षा, जीवनयापन की विधियों, विचारों, भावनाओं, मनोवृत्तियों और व्यवहारों में एक-दूसरे के समान होते हैं अथवा इनमें से कुछ आधारों पर एक-दूसरे से समानता अनुभव करते हुए अपने को एक समूह का सदस्य समझते हैं।”

लेपियर के शब्दों में कहा जा सकता है, “सामाजिक वर्ग एक सांस्कृतिक समूह है जिसे सम्पूर्ण जनसंख्या में एक विशेष स्थिति अथवा पद प्रदान किया जाता है।” इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि एक सामाजिक वर्ग को केवल आर्थिक आधार पर इसलिए स्पष्ट नहीं किया जा सकता कि समान आर्थिक स्थिति वाले व्यक्तियों की सांस्कृतिक विशेषताएं अथवा विचार एक-दूसरे से भिन्न हो सकते हैं, जबकि एक वर्ग के सभी सदस्यों में सांस्कृतिक विशेषताओं का समान होना। आवश्यक है।

ओल्सेन का कथन है, “सामाजिक वर्गों का निर्माण उन व्यक्तियों के द्वारा होता है जिन्हें लगभग समान मात्रा में शक्ति, सुविधाएं और सम्मान मिला होता है।” वास्तव में यह परिभाषा आर्थिक और सांस्कृतिक आधार को समान महत्व देते हुए सामाजिक वर्ग की व्याख्या करती है। उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर सामाजिक वर्गों की प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए उनकी कुछ सामान्य विशेषताओं का उल्लेख किया जा सकता है।

सामाजिक वर्गों की विशेषताएं

(1) एक निश्चित संस्तरण-

वर्ग-व्यवस्था में सभी सामाजिक वर्ग समान रूप से महत्वपूर्ण नहीं होते। वास्तव में सभी वर्ग कुछ श्रेणियों में विभाजित होते हैं जिनमें कुछ का स्थान ऊँचा और दूसरे वर्गों का स्थान उनकी तुलना में नीचा होता है। उच्च वर्गों में सदस्यों की संख्या सबसे कम होती है लेकिन उन्हें सबसे अधिक शक्ति और प्रतिष्ठा मिली होती है। दूसरी ओर सबसे निम्न वर्ग के सदस्यों की संख्या सबसे अधिक होती है, लेकिन फिर भी वे अधिकांश सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं। इस प्रकार सामाजिक वर्गों की संरचना एक पिरामिड की तरह होती है जिसमें ऊपर का भाग बहुत छोटा और नीचे का हिस्सा बहुत बड़ा होता है।

(2) वर्ग चेतना-

एक वर्ग के सदस्यों में लगभग समान मनोवृत्तियां और व्यवहार के समान तरीके पाये जाते हैं। इसी के फलस्वरूप उनमें ‘समानता की चेतना’ उत्पन्न होती है। अनेक विद्वानों ने इसी चेतना को ‘वर्ग चेतना’ के नाम से सम्बोधित किया है। यह वर्ग-चेतना एक विशेष वर्ग के सदस्यों को अपने अधिकारों में वृद्धि करने का ही प्रोत्साहन नहीं देती बल्कि उन्हें दूसरे वर्गों से प्रतिस्पर्द्धा करने की भी प्रेरणा देती है।

(3) उपवर्गों का निर्माण-

यद्यपि समाजशास्त्रियों ने तीन प्रमुख वर्गों अर्थात् उच्च, मध्यम और निम्न वर्ग का ही उल्लेख किया है, लेकिन इनमें से प्रत्येक वर्ग अनेक उपवर्गों में विभाजित होता है। उदाहरण के लिए, मध्यम वर्ग में भी सभी व्यक्तियों की आर्थिक स्थिति, प्रतिष्ठा, शक्ति अथवा सुविधाएं समान नहीं होतीं। ऐसी स्थिति में एक ही वर्ग के अंदर अनेक उपवर्ग बन जाते हैं और सभी उपवर्गों में पृथक-पृथक वर्ग चेतना पाई जाती

(4) सामान्य जीवन

प्रत्येक वर्ग के सदस्य एक विशेष ढंग से जीवन व्यतीत करते हैं, जैसे धनाढ्य वर्ग वस्तुओं का अधिक अपव्यय करना अपनी श्रेष्ठता का प्रतीक मानता है, जबकि मध्यम वर्ग के सदस्य रूढ़ियों और प्रथाओं से जकड़े रहकर ही अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर देते है। निम्न वर्ग का जीवन इन दोनों वर्गों की अपेक्षा बिल्कुल भिन्न प्रकृति का होता है।

(5) खुलापन तथा उतार-चढ़ाव –

वर्गों की प्रकृति खुली हुई होती है अर्थात् एक विशेष योग्यता अथवा कुशलता होने पर कोई भी व्यक्ति किसी भी वर्ग का सदस्य हो सकता है, अथवा भिन्न-भिन्न आधारों पर एक साथ अनेक वर्गों का सदस्य बन सकता है। इसके अतिरिक्त वर्ग की स्थिति में उतार-चढ़ाव होते रहना भी एक सामान्य नियम है। व्यक्ति की आर्थिक स्थिति में परिवर्तन होने से उसकी वर्गपत स्थिति में भी परिवर्तन हो जाता है। इसी आधार पर वर्ग को उद अथवा शीर्ष समूह भी कहा जाता है।

(6) आर्थिक स्थिति का महत्व-

वर्ग-निर्माण का सबसे प्रमुख आधार व्यक्ति की आर्थिक स्थिति है। यद्यपि राजनीतिक अथवा बौद्धिक सफलता से भी व्यक्ति को उच्च वर्ग की सदस्यता प्राप्त हो सकती है लेकिन ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है। मार्क्स ने तो आर्थिक आधार को ही वर्ग निर्माण का एकमात्र कारक मानते हुए सभी व्यक्तियों को उच्च, मध्यम तथा श्रमिक जैसे तीन प्रमुख वर्गों में विभाजित कर दिया है। वर्तमान समाज में लिंग अथवा आयु का वर्ग की सदस्यता से अधिक सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि आर्थिक रूप से समृद्ध व्यक्ति किसी भी आयु या लिंग का होने पर भी उच्च वर्ग की सदस्यता प्राप्त कर लेता है।

(7) पूर्णतया अर्जित

साधारणतया एक विशेष वर्ग की सदस्यता व्यक्ति की योग्यता और कार्य कुशलता पर अधिक निर्भर होती है। वर्ग की सदस्यता व्यक्ति को अपने आप नहीं मिलती बल्कि इसके लिए उसे प्रयत्न करने पड़ते हैं। कुछ समय के लिए योग्यता न होने पर व्यक्ति को उच्च वर्ग प्राप्त हो सकता है लेकिन स्थायी रूप से उसे वही वर्ग प्राप्त होता है जिसके अनुरूप उसमें योग्यता होती है। यही कारण है कि उच्चवर्ग के सदस्य बाद में निम्न वर्ग में पहुंच सकता है और निम्न वर्ग में जन्म लेने वाला एक श्रमिक अपने प्रयत्नों और योग्यता से उच्च वर्ग का सदस्य बन सकता है।

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(8) वर्गों की उपस्थिति आवश्यक है-

प्रत्येक समाज में सभी सदस्यों की योग्यता, बुद्धि और रुचियों में अन्तर होता है। ऐसी स्थिति में समाज में विभिन्न वर्गों का होना भी आवश्यक हो जाता है जिससे सभी व्यक्तियों को अपनी योग्यता के अनुसार पद मिल सके तथा इस प्रकार सामाजिक व्यवस्था स्थायी रह सके। इस आधार पर यह विश्वास किया जाता है कि सामाजिक रूप से सभी व्यक्तियों को कितना ही समान क्यों न कर दिया जाये लेकिन उनकी बुद्धि और कुशलता उन्हें एक-दूसरे से उच्च अथवा निम्न जरूर बना देगी।

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