संस्था और समिति में अन्तर स्पष्ट कीजिए।

संस्था और समिति में निम्नलिखित अन्तर पाये जाते हैं

(1) संस्था स्थायी एवं समिति अस्थायी होता है- संस्था की अपेक्षा समिति का जीवन अल्पकालिक होता है। हमारे देश में मण्डल कमीशन बना और उसने पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण की व्यवस्था की सिफारिश की। इसके बाद यह कमीशन भंग हो गया। इसी भांति मुम्बई में बम विस्फोट के लिये कृष्णन समिति या कमीशन बना और सरकार को अपनी सिफारिशें देने के बाद समाप्त हो गया। समितियाँ बनती हैं, अपने उद्देश्य पूरे करती है और केवल अतीत की घटना होकर ओझल हो जाती है। समिति की तुलना में संस्था का जीवन लम्बा होता है। आज भी यद्यपि परम्परागत पंचायतें हाशिये पर आ गयी हैं, पर इनका स्थान वैधानिक पंचायतों ने ले लिया है। स्थायी होते हुए भी संस्थाएँ बदलती हो न हो, ऐसा नहीं है। परिस्थति के दबाव में इनमें थोड़ा बहुत परिवर्तन तो आता ही है।

(2) व्यक्ति समिति का सदस्य हो सकता है, संस्था का नहीं – मैकाइवर ने संस्था और समिति में अन्तर स्पष्ट करते हुए कहा है कि व्यक्ति समितियों का सदस्य होता है, संस्था का नहीं। इसका मतलब यह हुआ कि हम यानी व्यक्ति समिति के सदस्य बन सकते हैं। आखिर समिति व्यक्तियों का एक समूह ही तो है, लेकिन हम संस्था के सदस्य नहीं हो सकते। यह इसलिए कि संस्था मनुष्य नहीं है। यह तो नियम उपनियमों, परम्परा और ऐसे ही अमूर्त साधन हैं जिनकी सदस्यता नहीं हो सकती। इन नियम-उपनियम को तो जो बेजान और अमूर्त है, समझा जा सकता है, व्यवहार में लाया जा सकता है। लेकिन कोई भी व्यक्ति इनका सदस्य नहीं बन सकता। हम परिवार के सदस्य हैं, भारतीय गणराज्य के सदस्य हैं, पर विवाह या भारतीय संविधान के सदस्य नहीं हैं।

परमार नरेश वाक्पति मुंजराज’ की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।

(3) समिति का निर्माण आसान तथा संस्था का कठिन होता है– व्यक्ति समितियों को जन्म देने वाला होता है। जब एक समान उद्देश्य को लेकर व्यक्ति एकत्रित हो जाते हैं, तो समिति बनने में दे नहीं लगती है। आर्थिक सहायता के इच्छुक कृषक जब निर्णय लेते हैं, तो कृषक सहकारी समिति का निर्माण हो जाता है। इस भौरि समिति की स्थापना में अधिक देर नहीं लगती, पर उससे जुड़ी हुई संस्थाओं और परम्पराओं का निर्माण लम्बी अव जाकर होता है। पहले कुछ व्यक्तियों के मन में किसी व्यवहा के विषय में विचार आते हैं। ये विचर धीरे -धीरे दोहराए जाते हैं, सुद्ध होते जाते हैं और इस भौति ये समिति की पद्धति बन जाते हैं। जनरीतियों का निर्माण भी कुछ इसी तरह होता है। आगे चलकर जनरीतियाँ, प्रथाओं का रूप ले लेती हैं। प्रथाएँ लोगों में अपना घर बना लेती है और इससे रूढ़ियाँ बन जाती हैं। ये रूढ़ियाँ ही कालान्तर में चलकर संस्था बन जाती हैं।

(4) संस्था समिति की एक पद्धति है- प्रत्येक समिति अपने हेतुओं और लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये कुछ पद्धतियाँ निर्धारित करती है। इस अर्थ में लक्ष्य साध्य है और पद्धतियाँ साधन पद्धतियाँ लिखित और अलिखित दोनों स्वरूपों में होती हैं। अलिखित पद्धतियाँ रीतिरीवाजों, परम्पराओं, प्रथाओं आदि के रूप में भी देखी जाती है। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि संस्था तो और कुछ न होकर रीति-रिवाजों और नियमों की एक गठरी है। परिवार की संस्था विवाह है। प्रजातंत्र की संस्थाएँ शासन की पद्धति, न्यायालय, राजनीतिक दल, धार्मिक सम्प्रदाय, मंदिर- चर्च इत्यादि हैं।

(5) समिति में सदस्यता होती है, संस्था में पद्धति – समिति या संस्था के अन्तर को करना, बहुत सरल है। हम कहते हैं कि परिवार एक समिति है तो इससे हमारा यह आशय है कि परिवार पति-पत्नी, दादा-दादी पोता-पोती का संगठन है। यदि हम कहें कि परिवार एक संस्था है, तो हमारे कहने का आशय यह है कि इसमें यौन सम्बन्ध, विवाह पद्धति की एक व्यवस्था और परम्परा है। इसी तरह यदि हम कहें कि अस्पताल एक समिति है तो इससे हमारा मतलब है कि इसमें डॉक्टर, नर्स, मरीज आदि एक जैसे हेतुओं की पूर्ति के लिये सम्मिलित है। इसी अस्पताल को हम जब संस्था कहते हैं तो हमारा तात्पर्य है। कि इसमें डॉक्टर, नर्स, मरीज आदि के काम करने की एक पद्धति है।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top