वैदिक काल में “शिक्षा’ शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में हुआ है- शिक्षा के लिए विद्या, प्रबोध एवं विनय आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता था। शिक्षा शब्द की उत्पत्ति “शिक्ष’ धातु से होती है। इसका अर्थ है “शिक्ष विधोपादाने’ अर्थात् विद्या को प्राप्त करना। साहित्य में शिक्षा के लिए “विनय’ पद का भी प्रयोग हुआ है। इस पद की संरचना वि + नी + अच् विनय। जिसका अर्थ है “किसी विशेष दिशा में ले जाना विनय पद के अन्तर्गत दोनों प्रकार के भाव है-
(1) विशेष विद्यालओं को सीख लेना
(2) चरित्र का निर्माण करना। शिक्षा के अन्तर्गत आचार्यों ने चरित्र निर्माण को अधिक महत्व दिया था। संस्कृत में एक सूक्ति है “विद्या ददाति विनयम्’ इसका अभिप्राय है कि शिक्षा को प्राप्त करके विद्यार्थी का चरित्र शुद्ध और पवित्र हो जाता है। वह विनम्र बनाती है। शिक्षा मनुष्य का तीसरा नेत्र है।
(3) उससे मनुष्य सभी तत्वों के अर्थों को देखने में समर्थ हो जाता है। उसके सभी विघ्न दूर हो जाते हैं। तीनों लोकों में उसकी सभी प्रवृत्तियाँ सही दिशा में होती है।
व्यापक अर्थ में मनुष्य को उन्नत और सभ्य बनाना शिक्षा है। शिक्षा की यह प्रक्रिया जीवन भर चलती रहती है। संकुचित अर्थ में शिक्षा का अर्थ है औपचारिक शिक्षा प्रत्येक बालक जीवन के कुछ वर्ष गुरुकुल में निवास करके ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करते हुए गुरु से शिक्षा प्राप्त करता था। व्यक्ति का सर्वांगीण विकास गुरुकुल में होता था। वह धर्म के रास्ते पर चलकर मोक्ष प्राप्त करता था।