विभिन्न युगों में स्त्रियों की स्थिति का वर्णन कीजिए।

विभिन्न युगों में स्त्रियों किसी भी समाज की संरचना बहुत बड़ी सीमा तक इस तथ्य से प्रभावित होती है। कि उसके अन्तर्गत स्त्रियों की स्थिति कैसी है। भारत में स्त्रियों की स्थिति की वास्तविकता को जानने के लिए यह आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम विभिन्न युगों में स्त्रियों की स्थिति का संक्षेप में उल्लेख करें।

विभिन्न युगों में स्त्रियों की स्थिति

विभिन्न युगों में स्त्रियों की स्थिति निम्नलिखित है

(1) वैदिक काल (Vedic Period)

वैदिक काल में यह आदर्श रहा है कि नारी पुरुष की प्रकृति है, जिसके बिना वह जीवित नहीं रह सकता है। इस काल में स्त्रियों की शिक्षा, धर्म, राजनीति और सम्पत्ति में पुरुष के समान ही अधिकार प्राप्त थे। अथर्ववेद में कहा गया है कि ‘नववधु’ तू जिस घर में जा रही है, वहाँ की साम्राज्ञी है तेरे श्वसुर, सास, देवर और अन्य व्यक्ति तुझे साम्राशी समझते हुए तेरे शासन में आनन्दित हो। इस प्रकार ऋग्वेद में भी स्त्री और पुरुष को धार्मिक अनुष्ठानों की पूर्ति में समान अधिकार दिये गये हैं। यजुर्वेद से स्पष्ट होता है कि इस समय स्त्रियों को उपनयन संस्कार और संध्या करने के अधिकार प्राप्त थे। इस युग में स्त्रियों को शिक्षा और शास्त्रों के अध्ययन का पूर्ण अधिकार था और विवाह के समय स्त्री की इच्छा को सबसे अधिक महत्व दिया जाता था। धार्मिक कार्यों में स्त्री का महत्व इतना था कि बिना पत्नी के धार्मिक संस्कार भी परे नहीं किये जा सकते थे। वैदिक काल में सभी क्षेत्रों में स्त्रियों का स्थान पुरुषों के समान था।

(2) उत्तर वैदिक काल (Post Vedic Period) –

उत्तर वैदिक काल का समय ईसा से 600 वर्ष पूर्व से लेकर ईसा के 300 वर्ष बाद तक माना जाता है। महाभारत की रचना इस युग के प्रारम्भ में ही किसी समय हुई थी। महाभारत के अनेक उद्धरणों से पता चलता है कि सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में इस समय तक स्त्रियों का पूर्ण अधिकार बना हुआ था। अनुशासन पूर्व में पितामह भीष्म ने स्त्रियों के प्रति उच्च आदर भाव को प्रदर्शित करते हुए कहा है कि स्त्रि को सदैव पूज्य मानकर उससे स्नेह का व्यवहार करना आवश्यक है जहाँ त्रियों का आदर होता है। यहाँ देवताओ का निवास होता है और उनकी अनुपस्थिति में सभी कार्य पुरहित हो जाते हैं।” ऐसा प्रतीत होता है कि महाभारत काल एक संक्रान्ति काल था, जिसमें अन्य सामाजिक व्यवस्थाओं के समान स्त्रियों के बारे में भी मतभेद की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। महाभारत काल में ही सियों के व्यवहारों पर नियन्त्रण रखना आरम्भ कर दिया गया था, इस काल में स्वयंवर प्रथा के द्वारा स्त्रियों का विवाह होने और वेदों का अध्ययन करने के आधार पर उनकी उच्च सामाजिक स्थिति को प्रमाणित किया जा सकता है।

उत्तर वैदिक काल की एक महत्वपूर्ण घटना बौद्ध एवं जैन धर्मों के प्रभाव में वृद्धि होनी थी। बौद्ध धर्म में भी स्त्रियों को अत्यधिक सम्मान प्राप्त था। इस समय अनेक स्त्रियाँ भिक्षुणी बनकर सम्पूर्ण जीवन ब्रह्मचर्य में ही व्यतीत कर देती थी। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इसी समय से स्त्रियों का पतन प्रारम्भ हुआ मनुस्मृति में सबसे पहले स्त्रियों की स्वतन्त्रता पर नियन्त्रण लगा दिया गया। उनके लिए वेदों का अध्ययन करने और यज्ञ करने पर प्रतिबन्ध लग गया। विधवा विवाह का पूर्ण निषेध हो गया और स्त्रियों का एक मात्र धर्म पारिवारिक कर्तव्यों को पूरा करना मान लिया गया। पवित्रता की धारणा के आधार पर लड़कियों का विवाह रजस्वला होने से पूर्व ही करने का आदेश दिया गया। उन्हें उपनयन संस्कार से वंचित कर दिया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तर वैदिक काल के अन्तिम स्तर तक सैद्धान्तिक रूप से स्त्रियों की स्वतन्त्रता और उनके अधिकारों पर काफी नियन्त्रण लगा दिये गये थे लेकिन व्यावहारिक रूप से इस समय तक स्त्रियाँ अपने अधिकारों का पूर्ण उपयोग करती रहीं।

(3) धर्मशास्त्र काल (Dharmashastra Period)

इस काल से हमारा अभिप्राय विशेषकर तीसरी शताब्दी से लेकर 11 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक के समय से है। यह काल सामाजिक और धार्मिक संकीर्णता का युग था। स्त्रियाँ भी इस संकीर्णता की शिकार बनीं। इस काल में स्त्रियों गृह लक्ष्मी से ‘याचिका’ के रूप में दिखायी देने लगीं, सेविका बन गयीं, जीवन और शक्ति प्रदायनी देवी अब निर्बलताओं की प्रतीक बन गयी। स्त्री जो किसी समय अपने प्रबल व्यक्तित्व के द्वारा देश के साहित्य और समस्या के आदशों को प्रभावित करती थी, अब परतन्त्र, पराधीन तथा निर्बल बन चुकी थी। इस युग में यह विश्वास किया गया कि पति ही स्त्री के लिए देवता है और विवाह ही उसके जीवन का एक मात्र संस्कार है। अनेक पौराणिक गाथाओं और उपाख्यानों को ईश्वर द्वारा रचित बताकर सतियों की कथाओं का प्रतिपादन किया गया।

मनुस्मृति में तो यहाँ तक कह दिया गया है कि स्त्री कभी भी स्वतन्त्र रहने योग्य नहीं है। बचपन में वह पिता के अधिकार में, युवावस्था में पति के वश में तथा वृद्धावस्था में पुत्र के नियन्त्रण में रहे। यह भी कहा गया कि “विवाह का विधान ही स्त्रियों का उपनाम है, पति की सेवा ही गुरुकुल का वास है। और घर का काम ही अग्नि की सेवा है।” इस काल में स्त्रियों को सम्पत्ति के अधिकार से पूर्णतया वंचित कर दिया गया और स्त्रियों को मानसिक रूप से अयोग्य तथा दुर्बल सिद्ध करने के अनेक भ्रमपूर्ण प्रचार किये जाने लगे। कन्या का विवाह 10 वर्ष अथवा अधिक से अधिक 12 वर्ष तक कर देने का विधान बनाया गया। विवाह पूर्णतया पिता का दायित्व हो गया, जिसमें लड़की की इच्छा का कोई महत्व नहीं था। इस युग में कुलीनता को विवाह का आधार मानने के कारण बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन बढ़ा।

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(4) मध्य काल (Mediaeval Period)

मध्य काल का समय 16वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक माना जाता है। इस काल में स्त्रियों की स्थिति में जितना ह्रास हुआ, उसे हमारा सामाजिक इतिहास एक कलंक के रूप में सम्भवतः कभी नहीं भूलेगा। 11 वीं शताब्दी के आरम्भ से ही भारतीय समाज पर मुसलमानों का प्रभाव बढ़ने के कारण भारतीय संस्कृति की रक्षा करना आवश्यक हो गया था। लेकिन स्त्रियों को सभी अधिकारों से वंचित करके संस्कृति की रक्षा करने का औचित्य समझ में नहीं आता है। स्त्री जब चेतनाहीन हो जाती है, तब संस्कृति अपने आप समाप्त हो जाती है। मध्य काल में रक्त की पवित्रता को इतना संकीर्ण रूप दे दिया गया कि लड़कियों का विवाह 5-6 वर्ष की आयु में ही कर देना अच्छा समझा जाने लगा। स्त्रियों को शिक्षा से एक दम वंचित कर दिया गया। पर्दा प्रथा इस सीमा तक पहुंच गयी कि पति भी किसी अन्य के सामने अपनी पत्नी का मुह नहीं देख सकता था।

विधवा विवाह पुनर्विवाह के बारे में सोचना भी अक्षम्य अपराध बन गया। थोड़ी सी गलती पर स्त्रियों को शारीरिक दण्ड दिया जाने लगा। पति अपनी पत्नियों को पीटना अपना हक समझने लगे। पत्नी का सर्वोच्च धर्म पति की इच्छाओं को पूरा करना मान लिया गया, चाहे पति कितना ही दुराचारी पतित एवं क्रूर हो। पति की मृत्यु के बाद पत्नी का सती हो जाना पतिव्रत धर्म की सर्वोच्च कसौटी बन गयी। इसे प्रोत्साहन देने के लिए सतियों की पूजा द्वारा इस अमानवीय और नृशंस कार्य को धर्म का जामा पहना दिया गया। पहली पत्नी के जीवित होते हुए भी दूसरी स्त्री से विवाह कर लेना सामान्य सी बात हो गयी। लड़कियों को सम्पत्ति का उत्तराधिकार प्राप्त करने से वंचित कर दिया गया। एक विधवा अपने पुत्र की भी संरक्षिका नहीं बन सकती थी।

(5) ब्रिटिश काल (British Period)

ब्रिटिश काल से हमारा तात्पर्य 18वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों से लेकर स्वतन्त्रता के पूर्व तक के समय से है निम्नांकित क्षेत्रों में स्त्रियों की निर्योग्ताओं के आधार पर इस काल में उनकी दयनीय स्थित का अनुमान लगाया जा सकता

  1. पारिवारिक क्षेत्रों में स्त्रियों को सभी अधिकार प्राप्त हो गये। सैद्धान्तिक रूप से स्त्री. परिवार की संचालिका बन गयी, लेकिन व्यावहारिक रूप में यह सभी अधिकार पुरुष कर्ता को प्राप्त हो गये। स्त्री का जीवन परम्परागत निषेधों एवं रूढ़ियों से युक्त हो गया। वैदिक काल की साम्राज्ञी’ अब सास की सेविका बन गयी।
  2. सामाजिक क्षेत्र में स्त्रियों को शिक्षा प्राप्त करने, स्वतन्त्र रूप से अपने अधिकारों की माँग करने और व्यवहार के नियमों में किसी प्रकार का परिवर्तन करने का अधिकार नहीं था।
  3. आर्थिक क्षेत्र में स्त्रियों की निर्योग्यताएँ सबसे अधिक थीं। उन्हें संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में हिस्सा प्राप्त करने से ही वंचित नहीं रखा गया, बल्कि स्त्रियों को अपने पिता की सम्पत्ति में भी हिस्सा प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं था। स्त्रियों द्वारा आर्थिक क्रिया करना एक अनैतिक कार्य के रूप में देखा जाने लगा।
  4. राजनीतिक क्षेत्र में स्त्रियों द्वारा हिस्सा लेने का कोई प्रश्न नहीं था। घर के अन्दर स्त्रियों पर मनमाना शोषण करने वाला पुरुष बाहर अंग्रेजों का गुलाम था। 1937 के चुनाव में पति की शिक्षा और सम्पत्ति के आधार पर बहुत थोड़ी सी स्त्रियों को मताधिकार प्रदान किया गया। वास्तव में स्त्रियों की सम्पूर्ण राजनैतिक चेतना घर की चारदीवारी में बन्द थी। महात्मा गाँधी के नेतृत्व में सन् 1919 के बाद कुछ स्त्रियों ने राजनीति में भाग लिया लेकिन कुलीन परिवार इसका सदैव विरोध करते रहे।

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