लैंगिक भेदभाव से क्या आशय है?

लैंगिक भेदभाव

लैंगिक भेदभाव को व्यावहारिक रूप में इस प्रकार भी देखा जा सकता है जिसके तहत एक समूह सदस्य उन अवसरों के लिए अयोग्य करार दिये जाते हैं जो दूसरे के लिए खुले होते हैं जैसे, जब के एक व्यक्ति को उसके लिंग अथवा धर्म के आधार पर नौकरी देने से मना कर दिया जाता है। भेदभाव तब होता है जब लोग पूर्वाग्रहों या रूढ़िवादी धारणाओं के आधार पर व्यवहार करते हैं। अगर आप लोगों को नीचा दिखाने के लिए कुछ करते हैं, अगर आप उन्हें कुछ गतिविधियों में भाग लेने से रोकते हैं, किसी खास नौकरी को करने से रोकते हैं या किसी मोहल्ले में रहने नहीं देते, एक ही कुएँ। या हैण्ड पम्प से पानी नहीं लेने देने और दूसरों द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे कप या गिलास में चाय नहीं पीने देते तो इसका मतलब है कि आप उनके साथ भेदभाव कर रहे हैं। भेदभाव कई कारणों से हो सकता है।

भेदभाव पूर्ण व्यवहार को इस तरह भी प्रदर्शित किया जा सकता है जैसे कि वह दूसरे कारणों द्वारा प्रेरित हो, जो भेदभाव की तुलना में ज्यादा न्यायसंगत कारण प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए, जिस व्यक्ति को उसकी जाति के आधार पर नौकरी देने से मना किया गया है उसको कहा जा सकता है कि उसकी योग्यता दूसरों से कम है तथा चयन पूर्णरूप से योग्यता के आधार पर किया गया है।

भेदभाव का सामना करने पर अपनी आजीविका चलाने के लिए लोग अलग-अलग तरह के काम करते हैं जैसे पढ़ाना, बर्तन बनाना, मछली पकड़ना, बढ़ईगिरि, खेती एवं बुनाई इत्यादि । लेकिन कुछ कामों को दूसरों के मुकाबले अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। सफाई करना, कपड़े धोना, बाल काटना, कचरा उठाना जैसे कामों को समाज में कम महत्व का माना जाता है। इसलिए जो लोग इन कामों को करते हैं उनको गन्दा और अपवित्र माना जाता है। यह जाति व्यवस्था का एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण पहलू है।

नारीवाद का सबसे बड़ा योगदान है सैक्स और जेण्डर में भेद स्थापित करना। सैक्स एक जैविक शब्दावली है, जो स्त्री और पुरुष में जैविक भेद को प्रदर्शित करती है। वहीं जेण्डर शब्द स्त्री और पुरुष के बीच सामाजिक भेदभाव को दिखाता है। जेण्डर शब्द इस बात की ओर इशारा करता है कि जैविक भेद के अतिरिक्त जितने भी भेद दिखते हैं, वे प्राकृतिक न होकर समाज द्वारा बनाये गये है और इसी में यह बात भी सम्मिलित है कि अगर यह भेद बनाया हुआ है तो दूर भी किया जा सकता है। समाज में स्त्रियों के साथ होने वाले भेदभाव के पीछे पूरी सामाजीकरण की प्रक्रिया है, जिसके तहत बचपन से ही बालक-बालिका का अलग-अलग ढंग से पालन-पोषण किया जाता है। और यह फर्क कोई भी अपने आस-पास देख सकता है। लड़कियों को घर के अन्दर का कामकाज अच्छी तरह सिखाया जाता है, जबकि लड़कों को बाहर का लड़कियों को दयालु, कोमल, सेवाभाव रखने वाली और घरेलू समझा जाता है और लड़कों को मजबूत, ताकतवर, सख्त और वीर समझा जाता है। हालांकि अब स्थिति में थोड़ा सुधार आया है पर हर जगह नहीं और हर स्तर पर नहीं। यह नहीं कहा जा सकता कि किसी तरह के किसी काम में कोई बुराई है पर काम के इस वर्गीकरण से बहुत-सी लड़कियों की प्रतिमा देवी रह जाती है और बहुत से लड़के मानसिक विकृतियों के शिकार हो जाते हैं। यह सुनने में अटपटा लग सकता है, पर सामान्यतया छोटे लड़कों को यह कहकर चुप कराते हैं कि मर्दों को रोना नहीं चाहिये, हम उनसे भावनात्मक बातें नहीं करते, जिससे वे अन्दर ही अन्दर घुटते रहते हैं। कुछ लड़के बहुत भावुक होते हैं और अक्सर अपनी बात कहकर इसलिये ये नहीं पाते कि लोग उन्हें चिड़ाएंगे। कुल मिलाकर, जेण्डर आधारित भेदभाव न सिर्फ औरतों को, बल्कि पुरुषों को भी एक बने बनाये ढाँचे में जीवन के लिये मजबूर कर देता है।

पाठ्यक्रम के विषय में यूनीसेफ ने क्या निर्देश दिये हैं ?

दिल्ली यूनिवर्सिटी के महिला अध्ययन केन्द्र की पूर्व अध्यक्षा प्रो. सुशीला कौशिक ने कहा कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में महिलाएँ निरन्तर आगे बढ़ रही हैं। लेकिन इस क्षेत्र में भी निर्णायक पदों पर महिलाओं की संख्या नहीं के बराबर है। देशभर की यूनिवर्सिटी में केवल 12 महिला वीसी हैं। इस दिशा में और काम करने की जरूरत है। हमें जेण्डर से सम्बन्धित समस्याओं को संरचनात्मक स्तर पर समझने की जरूरत है। वैश्वीकरण के इस दौर में यह समझना होगा कि किस प्रकार महिलाओं को हाशिए पर धकेला जा रहा है।

हाल में कुछ खबरें ऐसी आई जिनमें जेण्डर आधारित भेदभाव जैसे मुद्दे के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया है। कहीं ज्यादा उम्र और माहवारी के बंद होने को आधार बनाकर एक महिला के खिलाफ हुई यौन हिंसा पर फैसला दिया गया तो कहीं महिला मुक्केबाजों के गर्भ की जांच करवाई गई। इस बीच एक अच्छी खबर भी आई। पिछले साठ सालों से भारतीय सिनेमा में महिला मेकअप आर्टिस्टों को मान्यता नहीं थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे खत्म कर दिया। भारत का संविधान औरतों और पुरुष के बीच किसी तरह का अन्तर करने के खिलाफ है। आर्टिकल 14 में साफ कहा गया है कि कानून के आगे सब बराबर होंगे। जाति, धर्म, जन्म के स्थान और जेण्डर के आधार पर कानून भेदभाव नहीं करेगा। आर्टिकल 16 के अनुसार नौकरी पेशा में इनके आधार पर भेदभाव नहीं होगा। यानि जेण्डर आधारित भेदभाव संविधान में दिए गए अधिकारों पर सवाल खड़ा करते हैं।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top