शरण एक तेरे मैं आई, धरे रहें सब धर्म हरे ! बजा तनिक तू अपनी मुरली नाचे मेरे मर्म हरे! नहीं चाहती मैं विनिमय मै उन वचनों का वर्म हरे! तुझको एक तुझी को अर्पित राधा के सब कर्म हरे! यह वृन्दावन यह वंशीवट, यह यमुना का तीर रहे! यह तरते ताराम्बरवाला नीला निर्मल नीर हरे! यह शशिरंजित सितधन-व्यंजित, परिचित त्रिविध समीर हरे! बस, यह तेरा अंक और यह मेरा रंक शरीर हरे! कैसे तुष्ट करेगी तुझको, नहीं राधिका बुधा हरे! पर कुछ भी हो, नहीं कहोगी तेरी मुग्धा मुधा हरे! मेरे तृप्त प्रेम से तेरी बुझ न सकेगी निज पथ घरे चले जाना तू अलं मुझे सुधि-सुधा हरे! क्षुधा हरे!
संदर्भ- उक्त पद्यांश गुप्तजी द्वारा रचित ग्रन्थ ‘द्वापर’ की कविता राधा’ से उदधृत है।
प्रसंग- यहां राधा का कृष्ण के प्रति समर्पण का वर्णन है।
व्याख्या- उक्त पद्यांश में राधा-कृष्ण से कह रही है, कि हे कृष्ण मे निस्वार्थ भाव से समस्त धर्मों का त्यागकर आपकी शरण में आयी हैँ। हे कृष्ण! तुम अपनी मुरली को थोड़ा बजा दीजिए जिससे मेरे सभी भेद या रहस्य नाच उठे। कहने का तात्पर्य यह है कि शरणागत की तरह सम्पूर्ण क्रियामाण कर्मों को राधा कृष्णार्पित करके मात्र उनकी मुरली की तान सुनना चाहती है, ताकि उसके सारे भेद-भ्रम दूर हों, हृदय की गाँठे खुल जायें। मैं आदान-प्रदान में उन वचनों के आवरण का हरण नहीं चाहती हूँ। राधा के सम्पूर्ण कर्मों का हरण हो गया है, मैं अकेली आपको अर्पित कर चुकी हूँ। यह वृन्दावन में स्थित बरगद का एक पेड़ है, जिसके नीचे खड़े होकर श्रीकृष्ण वंशीवादन करते थे। नक्षत्रयुक्त आकाश बिम्बित हो रहा है। नीले रंग का यमुना का जल दिखाई दे रहा है। चन्द्रमा से सुशोभित, शुभ्र धवल बादलों से युक्त, शीतल मन्द सुगंधित वायु बह रही है। इस मोहक वातावरण में राधा-कृष्ण के प्रति समर्पित हो जाये, एकाकार हो जाय वह नाविका राधा ऐसी भावुक भक्त है जिसके पास कृष्ण को प्रसन्न करने की कला नहीं है। मुझको तो कृष्ण का निरन्तर सानिध्य चाहिए। राधा थोड़ा-सा भी लोक धर्म के निर्वाह और दायित्वबोध से विरत नहीं करना चाहती है उनकी सुधि का अमृत ही राधा के लिए पर्याप्त है।
विशेष – यहां राधा का कृष्ण के प्रति एकपक्षीय प्रेम का वर्णन है ।
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