राजपूतों की पराजय के कारण लिखिये।

राजपूतों की पराजय अथवा पतन के कारण भारत में तुर्क मुस्लिम आक्रान्ताओं ने आक्रमण कर यहाँ के शासकों को पराजित कर मुस्लिम सत्ता की स्थापना की। भारत में उस समय अधिकांश राज्यों में राजपूत शासक राज्य कर रहे थे। राजपूत बहुत वीर और साहसी थे उनमें युद्ध का जोश हिचकोले मारता रहता था। वे युद्ध में मर जाना अपनी शान समझते थे, फिर भी वे तुर्कों से पक्ति हो गये। राजपूतों की पराजय और तुकों की विजय के प्रमुख कारण निम्नलिखित मे

1. सामाजिक कारण-

राजपूतों की हार का एक प्रमुख कारण उनकी सामाजिक दशा थी जिसके कारण उन्हें पराजित होना पड़ा। भारतवर्ष में उस समय जात-पात के बन्धन बहुत दृढ़ थे तथा छुआ-छूत चे की भावना भी व्याप्त थी। ये सभी चीजें एकता के लिए घातक थीं, जिसका प्रभाव तुर्कों के आक्रमण के समय पड़ा। वर्ण-व्यवस्था के कारण भी राजपूतों को हार का मुँह देखना पड़ा और एक वर्ण ने दूसरे वर्ण की सहायता नहीं की। राजपूतों ने केवल अपनी रक्षा हेतु युद्ध किया इसके विपरीत तुर्की ने धन और यश के लिए युद्ध किया, जिसके कारण उन्हें सदैव विजय प्राप्त होती रही। राजपूतों की जाति वीर थी, जिसके कारण उनमें अभिमान पैदा हुआ जो उनकी हार का कारण था जबकि मुसलमान तुर्कों में सामाजिक एकता की भावना थी जो उनकी जीत में बहुत सहायक सिद्ध हुई।

2.राजनैतिक कारण-

भारत में उस समय जो छोटे-छोटे राज्य थे, उनमें आपस में युद्ध होते रहते थे जिसके परिणामस्वरूप भारत की राजनैतिक एकता समाप्त हो गयी थी। भारतीय राजाओं ने अपनी सीमा रक्षा की ओर भी कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जिसके फलस्वरूप शत्रु उनकी सीमा के अन्दर घुसता चला आया और उसे कोई विशेष कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा। प्रान्तीय शासक भी युद्ध के समय ही सेना भेजा करते थे जिससे उन सैनिकों को युद्ध कला सम्बन्धी ज्ञान ठीक ढंग से नहीं हो पाता था। इसके विपरीत तुर्क मुसलमान युद्ध कला में निपुण होते थे, उनमें अच्छे सैनिक व सेनापति होते थे। वे युद्ध नवीन ढंगों से लड़ा करते थे जिससे उन्हें विजय श्री प्राप्त होती थी। इन सभी चीजों के अतिरिक्त तुर्की ने भारतीयों की कमजोरियों को समझा और उससे लाभ उठाया, इसके विपरीत भारतीय राजपूतों ने तुर्कों की कमजोरियों को समझने का प्रयास नहीं किया जिससे उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा।

3. धार्मिक कारण-

मुसलमानों की विजय का प्रमुख कारण ईश्वर पर विश्वास तथा बन्धुत्व भावना होना था। इस्लाम धर्म होने के कारण इन्हें इस बात का विश्वास था कि यदि विजय हुई तो गाजी कहलायेंगे तथा मृत्यु प्राप्त होने पर शहीद होंगे। इसके विपरीत हिन्दू राजपूतों में धार्मिक भेदभाव बहुत अधिक था, छुआ-छूत, ऊँच-नीच की भावना प्रबल थी जिसके कारण उनमें धार्मिक उत्साह नहीं के बराबर था। इसके अतिरिक्त मुसलमानों को अपनी वीरता व तलवार पर विश्वास था। इसके विपरीत हिन्दू राजपूतों ने मूर्तियों को अपना सब कुछ मान लिया तथा युद्ध प्रणाली व हथियारों पर कम ध्यान दिया जिसके कारण राजपूतों की हार हुई। इसके अतिरिक्त राजपूत में अलग-अलग देवताओं को मानने से उनमें कई वर्ग बन गये थे जिससे उनमें एकता की कमी थी जो उनकी पराजय का कारण बनी। मुसलमानों ने धर्म के साथ-साथ तलवार के भी जौहर दिखाये। इसके विपरीत राजपूतों ने धर्म को ही सब कुछ समझा एवं सैनिक क्षमता पर विश्वास नहीं किया जिससे उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा।

4. आर्थिक कारण-

उस समय, जब तुर्की ने भारत पर आक्रमण किया भारत वर्ष में राजपूतों के छोटे-छोटे राज्य थे, जो आपस में लड़ते रहते थे जिसके कारण आर्थिक रूप से बहुत कमजोर हो गये थे। इसके अतिरिक्त ये लोग मन्दिर आदि बनवाने में भी बहुत अधिक रुपये व्यय करते थे जिसके कारण राजकीय कोष खाली हो गया और इसी धनाभाव के कारण वीर राजपूत जातियों को हार का मुंह देखना पड़ा।

5.सैनिक कारण-

राजपूतों की पराजय में उनकी सैनिक त्रुटियों का भी प्रमुख कारण था। राजपूतों के पतन के लिए निम्नलिखित प्रमुख सैनिक कारण उत्तरदायी थे

1. घुड़सवार सेना

तुर्क सेना में अश्वारोहियों की प्रधानता होती थी जबकि भारतीय सेना में अधिक लोग पैदल होते थे अश्वारोही अपनी गति के कारण पतियों को अस्त-व्यस्त करने में समर्थ होते थे।

2. धनुष-बाण का प्रयोग-

राजपूत सैनिक भालों और तलवारों के प्रयोग में प्रवीण थे, जबकि तुर्क सैनिक वरदाजी में निपुण थे इसलिए तुर्क सेना दूर से शत्रु को क्षति पहुँचा सकती थी, यहाँ तक कि भागते हुए तुर्क सैनिक भी बीच-बीच में मुड़कर पीछा करने वाले हिन्दू सैनिकों पर बाण बरसा सकते थे। राजपूत सैनिक निकट की गुत्थमगुत्था लड़ाई में ही अपना शौर्य दिखा पाते थे।

3. रण-कौशल-

तुर्क लोग युद्ध के दाँव-पेचों में अधिक निपुण थे। ये शत्रु को झांसा देने के लिए कभी पीछे हट जाते थे फिर पलट कर हमल कर देते थे। लज्जाजनक समझते थे। उनकी युद्ध कला में लोच नहीं थी। राजपूत सैनिक युद्ध में पीठ दिखाना

4. राजपूतों द्वारा व्यक्तिगत शौर्य का प्रदर्शन

तुर्क सेनापति व्यक्तिगत सौर्य प्रदर्शन का प्रयास नहीं करते थे। कभी-कभी आवश्यकता होने पर वे अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाने के लिए खतरे के बीच में भी कूद पड़ते थे किन्तु अधिकतर वे खतरे से दूर ही रहकर सेना का संचालन करते थे।

5. आक्रमण की पहल-

आक्रमण की पहल सदा तुर्कों के हाथ में रहती थी हिन्दू राजा इस बात को भूल बैठे थे कि आक्रमण सर्वोत्तम प्रतिरक्षा है। ये शत्रु की तब तक प्रतीक्षा करते थे, जब तक वह चढ़ाई न कर दे। इससे तुर्कों को चाहे जहाँ और चाहे जब आक्रमण का अवसर मिल जाता था। राजपूत रक्षात्मक युद्ध करते थे, जो प्रायः घाटे का सौदा रहता है।

6. तुर्कों के उच्चकोटि के हथियार

तुर्कों के युद्ध के साधन निश्चित रूप से राजपूतों की अपेक्षा अधिक बढ़िया थे। उनके पास किले का घेरा डालकर प्राचीरों को तोड़ने के विशेष प्रकार के उपकरण थे जो मंजनिक कहलाते थे। यही कारण है कि तुर्क लोग नगरों को चटपट जीत लेते थे जबकि राजपूतों को तराइन की पहली लड़ाई के बाद भटिंडा का किला जीतने में तेरह महीने लग गये थे।

7. सेना का संगठन

तुर्कों की सेना एक सेनापति के अधीन होती थी। इसके विपरीत राजपूतों की सेना अलग-अलग सामन्तों की अधीनता में रहकर युद्ध करती थी। ऐसी दशा में स्वभावतः तुर्क सेना का संगठन अच्छा होता था।

8. गुप्तचर व्यवस्था-

तुर्कों की गुप्तचर व्यवस्था उच्च कोटि की थी गुप्तचर व्यवस्था अच्छी होने के कारण उन्हें आवश्यक जानकारी सही और समय पर प्राप्त हो जाती थी। परन्तु राजपूतों की। गुप्तचर व्यवस्था बहुत अच्छी नहीं थी और राजपूतों ने इस पक्ष की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया।

9. आरक्षित सेना –

तुर्क लोग युद्ध में अपनी कुछ सेना को कोतल सेना के रूप में रखते थे। यह तरोताजा कोतल सेना युद्ध के अन्तिम दौर में युद्ध में उतरती थी और अपने पक्ष की पराजय को विजय में परिणत कर देती थी। इसके विपरीत राजपूत अपनी सारी सेना को एक साथ आक्रमण में झोंक देते थे।

जेण्डर शब्द की व्याख्या कीजिए।

10. अन्य कारण

उपरोक्त कारणों के अतिरिक्त कई अन्य कारण भी थे जो राजपूतों के पतन के लिए उत्तरदायी थे। इन कारणों में सबसे प्रमुख कारण दैवयोग भी था। अनेक बार ऐसी आकस्मिक घटनाएं घट जाती थीं जो तुर्कों की विजय का मार्ग प्रशस्त कर देती थीं और राजपूतों को पराजय का मुंह देखना पड़ता था।

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