मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी युग के प्रधान कवि हैं इसकी पुष्टि उनके काव्य साधना एवं काव्य प्रवृत्तियों के आधार पर कीजिए?

मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी युग के वास्तविक एक प्रधान कवि हैं। किसी भी देश काल उत्तर की प्रत्येक विचारधारा संस्कृति एवं साहित्य चेतनाओं का समन्वय अपने काव्य में करने वाले को प्रधान कवि के रूप में जाना जाता है। मैथिलीशरण गुप्त जी की सभी रचनायें राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत हैं। उनकी कविता का मूल स्वर राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक है।

रचनायें एवं काव्य प्रवृत्तियाँ-

राम, कृष्ण, महापुरुष, सन्त आदि सभी से सम्बन्धित काव्य गुप्तजी ने प्रणीत किये हैं। गुप्तजी की ‘भारत-भारती’ राष्ट्रीय रचना है। ‘झकार’ में उनकी छायावादी कविताओं का संग्रह है।

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खड़ी बोली हिन्दी का प्रतिनिधित्व-

गुप्तजी की खड़ी बोली हिन्दी भाषा का प्रतिनिधित्व करती है। उसमें शुद्धता व परिमार्जन के साथ-साथ भावों की सुन्दर अभिव्यंजना हुई है। छन्दों के क्षेत्र में गुप्तजी ने प्रतिनिधित्व किया है। उनके काव्य में मात्रिक छन्दों के साथ संस्कृत के वर्णिक वृत्तों का भी प्रयोग हुआ है। गुप्तजी ने ‘मारत भारती तक गीतिका और हरिगीतिका छन्दों का प्रयोग किया है। ‘सिद्धराज’ में गुप्तजी ने अंतुकान्त छन्दों को ही अपनाया है। ‘यशोधरा’ में गीत, काव्य, नाटक आदि सभी का समन्वय मिलता है। गुप्तजी ने नवीन छन्दों के निर्वाचन में भी सफलता प्राप्त की। पुराने छन्दों को नवीन रूप देना क्या नवीन छन्दों का विधान कर लेना गुप्तजी की विशेषता है।

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गुप्तजी की काव्य साधना-

गुप्त जी की सम्पूर्ण रचनायें दो वर्गों में विभाजित की जा सकती हैं-1. प्रबन्ध-काव्य और 2. मुक्तक-काव्य। प्रबन्ध-काव्य में उनके उद्बोधनात्मक काव्य, महाकाव्य, खण्डकाव्य और आत्मकथात्मक काव्य आते हैं। इन काव्यों में भारत के गौरवमय अतीत का चित्रण किया गया है। गौरवमय अतीत के चित्रण के लिये गुप्त जी ने-1. रामायण, 2. महाभारत, 3. पुराण, 4. महात्मा बुद्ध के जीवन और 5. ऐतिहासिक कथाओं का संचयन किया है और उन्हें आधुनिक वातावरण के अनुरूप चित्रित किया है। इसलिये उनके प्रबन्ध काव्यों में विषय की ही नहीं भावों की भी विविधता है।

गुप्त जी के उद्बोधनात्मक काव्य में ‘भारती-भारती’, ‘किसान’, ‘हिन्दू’, ‘शक्ति’ आदि का प्रमुख स्थान है। ‘भारत-भारती’ उनकी प्रथम देश- प्रेम-प्रधान रचना है। इसमें ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर भारतीय जनता को नवजागरण का सन्देश दिया गया है।

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गुप्त जी के राम-काव्य में ‘पंचवटी’ और ‘साकेत’ का प्रमुख स्थान है। पंचवटी खण्डकाव्य है और साकेत महाकाव्य। इन दोनों काव्य ग्रन्थों में गुप्त जी ने नारी के दो रूपों का चित्रण किया है। नारी का एक रूप शूर्पणखा है और दूसरा उर्मिला। पंचवटी की शूर्पणखा में भौतिकता है ।वह काम-पीड़ित और निर्लज्ज है।

साकेत के उर्मिला की विरह-वेदना में गुप्तजी ने भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों पक्षो का अत्यन्त सुन्दर समन्वय किया है इसलिए वह अत्यन्त संयत और मर्ादापूर्ण है। उर्मिला का यह रूप एक कर्तव्य-परायण सती-साध्वी का रूप है। गुप्तजी ने इस रूप को झलकाने में पूर्ण सफलता प्राप्त की है। उर्मिला की भांति कैकेयी का चरित्र भी उन्होंने स्पष्ट रूप से मुखरित किया है। राम के प्रति उनका वही दृष्टिकोण है जो गोस्वामी जी का है, लेकिन उन्होंने उसे प्रधानता नहीं दी है। उन्होंने राम को मानवता की मूर्ति पर चित्रित किया हैं

भाव-व्यंजना के साथ-साथ गुप्त जी ने वस्तु-व्यंजना में भी अपना काव्य-कौशल दिखाया है रूप, मुद्राओं, मानवीय परिस्थितियों और कार्य- व्यापारों के चित्रण में उनकी वृत्ति खूब रमी है। पंचवटी में शूर्पणखा का यह लेख देखिये

चकाचौंध-सी लगी देखकर प्रखर ज्योति की वह ज्वाला,

निःसंकोच खड़ी थी सम्मुख एक हास्य बदनी बाला।

रत्नाभरण भरे अंगों में ऐसे सुन्दर लगते थे,

ज्यों प्रफुल्ल बल्ली पर सौ-सौ जगमग करते थे।’

गुप्त जी ने प्रकृति के भी सुन्दर चित्र अंकित किये हैं। सूर्योदय का यह संवेदनात्मक चित्र अत्यन्त सुन्दर है। उर्मिला कहती है

“सखि! नील नमस्सर से उतरा यह हंस अहा! तरता-तरता,

अब तारक मौक्तिक शेष नहीं; निकला जिनको चरता-चरता।।”

इसी प्रकार ‘पंचवटी’ की चांदनी रात का यह दृश्य लीजिये-

चारु चन्द्र की चंचल किरणें खेल रहीं थी जल थल में।

स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई थी अवनि और अम्बर तल में॥

गुप्त जी की शैली-

अपने काव्य में गुप्त जी ने तीन शैलियों को स्थान दिया है-

  1. प्रबन्ध-शैली,
  2. गीत-शैली तथा
  3. रूपक शैली।

इनकी विशेषतायें इस प्रकार हैं

(1) प्रबन्ध शैली- गुप्त जी का अधिकांश काव्य इसी शैली में है। रंग में भंग, जयद्रथ-वध’ ‘साकेत’, ‘जयभारत, पंचवटी’ आदि इसी शैली में लिखे गये हैं। यह शैली तीन प्रकार के काव्य में विषय का निर्वाह दो शैलियों में किया गया है- 1. वर्णनात्मक और 2. भावात्मक। गुप्त जी विस्तार प्रिय कवि हैं उनमें न तो भावों का संकोच है और न विषय का। विस्तार में जाने के कारण उनकी ये शैलियां कहीं-कहीं आवश्यकता से अधिक उपदेशात्मक हो गयी हैं।

(2) रूपक-शैली- इस शैली में गुप्त जी ने नाटकीय प्रणाली का अनुसरण किया है। कथोपकथन पद्य में है, शेष गद्य में। ‘अनघ’ इसका उदाहरण है- ‘तिलोत्तमा’ तथा ‘चन्द्रहास गीति-नाट्य शैली में लिखे गये हैं। यशोधरा’ चम्पू-शैली में लिखा गया है।

(3) गीतिकाव्य शैली- गुप्त जी ने आधुनिक और प्राचीन शैलियों के ढंग पर गीत भी लिखे हैं। ‘झंकार’, ‘मंगल-घट’, ‘स्वदेश-संगीत आदि के गीतों में भावनायें तो संगीतमय हो उठी हैं पर स्वाभाविक अनुभूति चित्रण की कमी है। उनके गीतों में भावों का स्वाभाविक प्रवाह है, पर विरह-गीतों और राष्ट्र-गीतों को छोड़कर शेष में तन्मयता का अभाव सा हैं। अनुभूतियों में भी गहराई नहीं है।

गुप्त जी की भाषा-

हिन्दी-काव्य जगत में गुप्तजी ने खड़ी बोली को अपनाया। खड़ी बोली का आरम्भ में जो रूप था उसमें भावों की सजीवता और उनके चित्रण के लिये अधिक गुंजाइश नहीं थी। गुप्त जी ने घटनाओं के वर्णन में ही उसका उपयोग किया, लेकिन ज्यों-ज्यों उन्हें भावों के चित्रण की आवश्यकता महसूस होती गयी, त्यों-त्यों उन्हें उस खड़ी बोली में उपयुक्त शब्दों और पदों का समावेश करने के लिये बाध्य होना पड़ा। इस प्रकार धीरे-धीरे उन्होंने अपनी खड़ी बोली को अपनी भाव-धारा के अनुकूल बना लिया आरम्भ में ‘भारत-भारती’ की भाषा में जो रूखापन था वह पंचवटी तक पहुँचते-पहुँचते कम हो गया और उनकी भाषा का रूप अत्यन्त निखर उठा।

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