आधुनिक समाजशास्त्र के प्रादुर्भाव का युग
एम. एन. श्रीनिवास ने लिखा है कि पश्चिमी विचारधारा के आधार पर भारत में समाजशास्त्र की उत्पत्ति, प्रादुर्भाव और विकास को तीन चरणों में विभाजित करके समझा जा सकता है। पहले स्तर में सन् 1773 से 1900 की अवधि आती है, जब अनेक दशाओं के बीच सबसे पहले समाजशास्त्रीय ज्ञान की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। दूसरा स्तर सन् 1901 से 1950 (नया संविधान लागू होने का वर्ष) तक का है जब अनेक विश्वविद्यालयों और शोध के क्षेत्र में समाजशास्त्र को एक व्यवसाय के रूप में मान्यता मिलने लगी। तीसरा स्तर स्वतंत्रता के बाद का है जब अनेक नयी दशाओं जैसे भारत में नियोजित विकास, बदलती हुई नगरीय और ग्रामीण संरचना, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के विकास से सम्बन्धित प्रयत्नों, श्रम समस्याओं तथा समाज सुधार से सम्बन्धित कानूनों आदि के कारण भारत की सामाजिक संरचना में व्यापक परिवर्तन होने लगे। अध्ययन की सुविधा के लिए भारत में आधुनिक समाजशास्त्र के प्रादुर्भाव को मुख्य रूप से दो स्तरों में विभाजित करना अधिक उचित है जिन्हें हम ‘स्वतंत्रता से पहले का स्तर’ तथा ‘स्वतंत्रता के बाद का स्तर’ कह सकते हैं।
ब्रिटिश शासन के दौरान समाजशास्त्र का प्रादुर्भाव
ब्रिटिश शासन की अवधि को हम साधारणतया औपनिवेशिक काल भी कहते हैं। भारत में 18वीं सदी से 20वीं सदी के मध्य तक भारत ब्रिटिश शासन का उपनिवेश बना रहा। इस दौरान अपने पूर्व निर्धारित उद्देश्यों के अनुसार यहाँ की सरकार ने सामाजिक व्यवस्था में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनायी शासन को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए ऐसे सभी प्रयत्न किये गये जिससे हिन्दुओं और मुसलमानों में मतभेद बने रहे। सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती सन् 1857 में तब पैदा हुई जब हिन्दू और मुसलमान राजाओं तथा जनसाधारण ने मिलकर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध व्यापक विद्रोह कर दिया। इसे सामान्य रूप से सन् 1857 का गदर’ कहा जाता है। यह पहला अवसर था जब अंग्रेज अधिकारी यह महसूस करने लगे कि भारत की मिश्रित संस्कृति, सामाजिक संस्थाओं, परम्परा और प्रथाओं की जानकारी न होने के कारण ही यह विद्रोह पैदा हुआ। इसके फलस्वरूप वह स्वयं एक ऐसे विज्ञान की आवश्यकता महसूस करने लगे जिसकी सहायता से भारतीय समाज की जड़ों को समझा जा सके। इसी कारण ब्रिटिश सरकार ने ऐसी जानकारियाँ प्राप्त करना आरम्भ कर दीं जिनसे आनुभविक तथ्यों के आधार पर भारतीय समाज की संरचना, सांस्कृतिक विशेषताओं तथा विभिन्न जातीय समूहों की समानताओं को समझा जा सके। यह कार्य मानवशास्त्र तथा समाजशास्त्र के द्वारा ही सम्भव था। यही कारण है कि ब्रिटिशकाल के दौरान भारत में मानवशास्त्र तथा समाजशास्त्र का प्रादुर्भाव लगभग साथ साथ होना आरम्भ हुआ।
भारत के विभिन्न समुदाय और समूहों के नृजातीय अध्ययन का आरम्भ एक अंग्रेज आई.सी.एस. अधिकारी हरबर्ट रिजले द्वारा हुआ अपनी पुस्तक ‘बंगाल की जातियाँ और जनजातियाँ’ में उन्होंने विभिन्न जातियों की उत्पत्ति, जाति व्यवस्था के प्रभाव तथा विभिन्न जातियों की संजातीय विशेषताओं का व्यापक विवरण दिया। ऐसे अध्ययनों का उद्देश्य जाति-विभाजन पर आधारित भारतीय समाज की संरचना को समझकर औपनिवेशिक शासन को अधिक मजबूत बनाना था। रिजले और कुछ दूसरे मानवशास्त्रियों ने भारत के विभिन्न भागों की प्रथाओं, शिष्टाचार और व्यवहार के तरीकों तथा उन सामाजिक संस्थाओं के अध्ययन की आवश्यकता पर भी बल दिया जो भारत की सामाजिक संरचना को समझने के लिए आवश्यक थीं। इसके साथ ही अनेक ईसाई मिशनरियों ने विभिन्न समुदायों और जनजातियों की स्थानीय भाषा, जनरीतियों, सांस्कृतिक विशेषताओं का अध्ययन इसलिए आरम्भ किया जिससे वे ईसाई धर्म का आसानी से प्रचार कर सकें। ऐसे सभी अध्ययनों से भारत की जाति व्यवस्था, ग्रामीण समुदाय, विभिन्न
धार्मिक समुदायों तथा भाषायी सर्वेक्षणों को भी प्रोत्साहन मिलने लगा। मैक्स मूलर, जोन्स और अनेक दूसरे विद्वानों ने संस्कृत भाषा का अध्ययन करके वैदिक और आर्य सभ्यता 1 बिलिय प्रकृति का करना इसलिए शुरू कर दिया जिससे वे भारत की प्राचीन राजनीति अर्थव्यवस्था, कानून और धर्म को समझ सकें। इसी समय हेनरी मेन ने ग्रामीण समुदायों के अध्ययन इस दृष्टिकोण से किया जिससे गाँवों की न्याय व्यवस्था को समझकर ‘प्रस्थिति निर्धारण के सिद्धांत’ के आधार पर कार्य किया जा सके।
स्पष्ट है कि इंग्लैण्ड के मानवशास्त्रियों के प्रभाव से भारतीय समाज की संरचना व्यवहारप्रतिमानों, जनजातीय समुदायों तथा दूसरे संजातीय समूहों से सम्बन्धित जो अध्ययन किये गये, वे मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण और सिद्धांतों पर ही आधारित थे। यहीं कारण है कि भारत में स्वतंत्रता से पहले समाजशास्त्र का प्रादुर्भाव केवल मानवशास्त्र अथवा अर्थशास्त्र की एक सहयोग शाखा के रूप में ही हो सका। इस समय एक ओर भारत के ग्रामीण जीवन, स्वतंत्रता आंदोलन से प्रभावित सामाजिक जागरुकता, नयी शिक्षा व्यवस्था से उत्पन्न परिवर्तनों तथा प्रथाओं और धार्मिक विश्वासों के बदलते हुए रूप के कारण यूरोप की तरह एक नए दृष्टिकोण से यहाँ की सामाजिक संरचना को समझना आवश्यक हो गया था तो दूसरी ओर मानवशास्त्र तथा अर्थशास्त्र के परम्परागत दृष्टिकोण के आधार पर समाजशास्त्र को समुचित रूप से विकसित कर पाना सम्भव नहीं हो सके। इन दशाओं के बीच 20वीं शताब्दी के दूसरे दशक से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति की अवधि में ही यहाँ समाजशास्त्र का आरम्भिक रूप से विकसित हो सका।
कुछ लेखक ऐसा मानते हैं कि भारत में समाजशास्त्र का औपचारिक आरम्भ कलकत विश्वविद्यालय में बी.एन. सील के प्रयत्नों से सन् 1917 में हुआ जिसे आगे बढ़ाने में राधाकमल मुकर्जी तथा बी.एन. सरकार ने भी कुछ योगदान किया। इसके बाद भी कलकत्ता, विश्वविद्यालय में इस विषय की कोई सुविचारित रूपरेखा न बन पाने के कारण केवल मानवशास्त्र विभाग की ही स्थापना की जा सकी। समाजशास्त्र की एक सुनिश्चित रूपरेखा बनाकर समाजशास्त्र विभाग की स्थापना सबसे पहले बम्बई विश्वविद्यालय में सन् 1919 में हुई। पेट्रिक गेट्स विभाग के पहले अध्यक्ष बने जिन्होंने जी.एस. घुरये के साथ समाजशास्त्रीय अध्ययन को एक दिशा देना आरम्भ की। इसे भारत में समाजशास्त्र के प्रादुर्भाव का पहला आधार कहा जा सकता है। समाजशास्त्रीय शिक्षण तथा अनुसंधान का दूसरा केन्द्र लखनऊ विश्वविद्यालय बना, जहाँ सन् 1921 से अर्थशास्त्र विभाग के अन्तर्गत समाजशास्त्र को ज्ञान की एक पृथक् शाखा के रूप में स्थापित किया गया। उस समय डॉ. राधाकमल मुकर्जी अर्थशास्त्र विभाग के अध्यक्ष थे जिन्हें
डी.पी. मुकर्जी तथा डी. एन. मजूमदार (मानवशास्त्र विभाग के अध्यक्ष) ने समाजशास्त्र को आगे बढ़ाने में विशेष योगदान किया। दक्षिण भारत में समाजशास्त्र का प्रादुर्भाव ए.एफ. वाडिया के प्रयत्नों से मैसूर तथा एस.सी. दुबे ने समाजशास्त्र को एक दिशा देने में विशेष भूमिका निभाई। इसी वर्ष हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में स्नातक स्तर पर समाजशास्त्र का अध्ययन आरम्भ हो गया। इरावती कर्वे के प्रयत्नों से पूना विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग की स्थापना सन् 1930 में हुई।
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भारत में स्वतंत्रता से पहले तक समाजशास्त्र का प्रादुर्भाव और विकास बहुत असमान होने के साथ ही यह अपना कोई प्रभाव स्थापित नहीं कर सका केवल बम्बई विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र को एक ऐसा रूप दिया जा सका जो भारत विद्या और नृजातीय अध्ययन बीच संतुलित मिश्रण करके एक पृथक् समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण को विकसित करने में कुछ सीमा तक सफल हो सका। यही से के. एम. कापड़िया, इरावती कर्वे, एस.वी. कारिन्दिकर, एम. एन. श्रीनिवास, ए.आर. देसाई, एम.एस. गोरे, आई.पी. देसाई, वाई. बी. दामले तथा अनेक दूसरे वे लोग प्रशिक्षित हुए जिनका बाद में भारतीय समाजशास्त्र के इतिहास में प्रमुख स्थान बन गया।
ब्रिटिशकाल में समाजशास्त्र की उत्पत्ति और विकास से सम्बन्धित कुछ प्रमुख
विशेषताओं को समझना भी आवश्यक है।
- इस काल में समाजशास्त्र को पूर्णतया एक पृथक विषय के रूप में मान्यता नहीं मिल सके। समाजशास्त्र, को अर्थशास्त्र, मानवशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र की एक शाखा के रूप में ही स्थापित किया जा सका। बम्बई और लखनऊ में यह अर्थशास्त्र विभाग का हिस्सा था, कलकत्ता विश्वविद्यालय में मानवशास्त्र विभाग से, तथा मैसूर विश्वविद्यालयय में इसका अध्यापन दर्शन विभाग के अन्तर्गत होता रहा।
- विभिन्न विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र का पाठ्यक्रम इस तरह निर्धारित किया गया जिसमें सामाजिक मनोविज्ञान, सामाजिक दर्शन, सामाजिक मानवशास्त्र और यहाँ तक कि अर्थशास्त्र तथा इतिहास से सम्बन्धित विषयों का समावेश था।
- सैद्धांतिक स्तर पर अध्ययन के लिए उन संरचनात्मक और प्रकार्यात्मक पद्धतियों पर बल दिया गया जिनका सम्बन्ध मानवशास्त्र से था। इसी तरह अर्थशास्त्र से आगमन और निगमन पद्धतियों को ग्रहण किया गया।
- स्वतंत्रता से पहले तक क्षेत्र कार्य से सम्बन्धित आनुभविक पद्धति के आधार सामाजिक घटनाओं के अध्ययन पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया। इस प्रकार स्वतंत्रता के समय तक भारत में समाजशास्त्र की प्रकृति एक अधकचरे विज्ञान की तरह थी जिसका सभी दूसरे सामाजिक विज्ञान अपहरण करने का प्रयत्न कर रहे थे।
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