भारतीय समाज के शास्त्रीय दृष्टिकोण की विसंगतियों का वर्णन।

आज के इस आर्टिकल में आप सभी को भारतीय समाज के शास्त्रीय दृष्टिकोण की विसंगतियों के बारे में पूरी जानकारी शेयर कर रहे हैं जो आप सभी के परीक्षाओं के लिए महत्वपूर्ण टॉपिक हो सकती हैं।

भारतीय समाज में शास्त्रीय दृष्टिकोण का वर्णन कीजिए।

भारतीय समाज के शास्त्रीय दृष्टिकोण की विसंगतियाँ-

इन्हें संक्षेप में निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है-

(1) परम्परागत भारतीय सामाजिक संरचना का निर्माण जिन व्यवस्थाओं के आधार पर किया गया, वे सभी विभिन्न धर्मग्रन्थों पर आधारित हैं। उदाहरण के लिए, वर्ण-व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था, संयुक्त परिवार की संरचना, जाति व्यवस्था आदि से सम्बन्धित सभी नियम और विश्वास धर्मग्रन्थों पर आधारित हैं। विभिन्न धर्मग्रन्थों के कथन परस्पर विरोधी होने के कारण उनके आधार पर किसी भी व्यवस्था को सर्वमान्य रूप को समझ सकना बहुत कठिन है।

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(2) भारतीय समाज के शास्त्रीय परिदृश्य में भारतीय समाज का तात्पर्य केवल हिन्दू संस्कृति पर आधारित समाज से हैं। यदि हम केवल हिन्दू संस्कृति अथवा हिन्दू धर्म के आधार पर ही भारतीय समाज को स्पष्ट करें तो इसे एक समाजशास्त्रीय और व्यावहारिक दृष्टिकोण नहीं कहा जा सकता। भारत में बहुत आरम्भिक काल से ही विभिन्न संस्कृतियों वाले समूहों का आगमन होता रहा तथा उनकी विशेषताओं ने भी यहाँ के सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित किया। मुस्लिम शासन तथा ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत एक लम्बे समय से यहाँ उन धर्मों के अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी जिनकी सांस्कृतिक विशेषताएँ हिन्दू संस्कृति से बहुत भिन्न हैं। इसके फलस्वरूप यहाँ धार्मिक और सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया को प्रोत्साहन मिला। इस आधार पर भी वर्तमान भारतीय समाज को समझने के लिए यहाँ का शास्त्रीय परिदृश्य अर्थहीन हो जाता है।

(3) भारतीय समाज की परम्परागत व्यवस्थाएँ ऐसे दर्शन पर आधारित हैं जिनका जनसाधारण के जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं रहा। उदाहरण के लिए, यहाँ का सम्पूर्ण शास्त्रीय परिदृश्य हिन्दू धर्म की अवधारणा पर आधारित है। जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है, हिन्दू धर्म का सम्बन्ध एक विशेष परिस्थिति में व्यक्ति द्वारा अपने कर्तव्यों को पूरा करने से रहा है। इसके विपरीत जनसाधारण ने हमेशा स्वर्ग, नरक, शास्त्रों में वर्णित पाप और पुण्य, अलौकिक विश्वासों और पूजा-उपासना की विभिन्न विधियों को ही धर्म के रूप में देखा। धर्म, पुरुषार्थ, ऋण जैसे सिद्धान्तों का वास्तविक अर्थ जन-सामान्य की समझ से सदैव बाहर रहा। इसके फलस्वरूप जिस भावना को लेकर विभिन्न सामाजिक व्यवस्थाएँ विकसित की गयी थी, उसके अनुसार सामाजिक संगठन को एक विशेष रूप नहीं मिल सका।

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(4) भारतीय समाज का शास्त्रीय परिदृश्य उन काल्पनिक विश्वासों पर आधारित रहा जिन्हें आज के शिक्षित और जागरूक समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता। आज व्यक्ति यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा द्वारा की गयी, निम्न जातियाँ उच्च जातियों की तुलना में अपवित्र होती है, निम्न जाति में जन्म लेने अथवा व्यक्ति की असफलताओं का कारण पूर्व जन्म में किये गये कर्म हैं अथवा यह कि संन्यास के द्वारा ही व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है। स्वाभाविक है कि काल्पनिक विश्वासों पर आधारित सामाजिक व्यवस्थाओं के अध्ययन को भी वैज्ञानिक नहीं माना जा सकता।

(5) भारतीय समाज का शास्त्रीय परिदृश्य बहुत अव्यावहारिक तथा असमानताकारी है। यहाँ की परम्परागत सामाजिक व्यवस्था में देश की आधी से भी अधिक जनसंख्या वाले शूद्र वर्ण को शैक्षणिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक अधिकारों से वंचित किया जाता रहा। एक सामन्तवादी और धर्म प्रधान समाज में इस व्यवस्था को स्वीकार कर लिया गया लेकिन वर्तमान समाज को समझने के लिए इन व्यवस्थाओं की न तो कोई उपयोगिता है और न ही इनके आधार पर समकालीन सामाजिक संरचना को समझा जा सकता है।

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(6) यह सच है कि वर्तमान भारतीय समाज में जाति विभाजन, कर्म सम्बन्धी विश्वासों तथा विघटित हो रहे संयुक्त परिवारों के रूप में कुछ अवशेष जरूर देखने को मिलते हैं लेकिन परम्परागत सामाजिक व्यवस्था से सम्बन्धित लगभग सभी संरचनात्मक और वैचारिक आधार तेजी से बदल रहे हैं। समाज में आज वर्ण और आश्रम व्यवस्था का कोई अस्तित्व नहीं है, जाति व्यवस्था के नियम पूरी तरह टूट चुके हैं, संस्कारों का जीवन में कोई महत्व नहीं रहा, ऋणों तथा यज्ञों की अवधारणा को शिक्षित लोग भी नहीं जानते, धर्म का सम्बन्ध केवल सांसारिक सुखों की प्राप्ति से हो गया है तथा न्याय व्यवस्था धार्मिक नियमों पर आधारित न होकर राज्य द्वारा निर्मित कानूनों पर आधारित है।

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