भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का वर्णन कीजिये

भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना-

भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना 1885 में की गई, इसके पूर्व बंगाल, बम्बई तथा मद्रास में अनेक संस्थाएँ स्थापित की जा चुकी थीं और इस आवश्यकता को अनुभव किया जा रहा था कि एक अखिल भारतीय राजनीतिक संस्था गठित की जाये, जिसके अन्तर्गत सभी भारतीय नेता भारतीया समस्याओं पर विचार कर सकें। अतः भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना कोई अप्रत्याशित या अचानक हुई घटना नहीं थी। प्रो. मजूमदार का मत है कि 1883 ई. में कलकत्ता में नेशनल काँफ्रेन्स का सम्मेलन भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का ही पूर्व रूप था।

ए.ओ. ह्यूम-

भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना का श्रेय एक अवकाश प्राप्त अंग्रेज प्रशासनिक अधिकारी ए.ओ. ह्यूम को दिया जाता है। लेकिन समस्त श्रेय को देना न्यायसंगत नहीं है क्योंकि भारत के सभी प्रदेशों में राजनीतिक जागरण हो रहा था। फिर भी हाम ने इस दिशा में पहल की। जिला अधिकारी के रूप में उसने भारतीय समस्याओं को निकटता से देखा था। 1857 ई. की क्रान्ति में उसने उदार भूमिका निभायी थी और बाद में लोक कल्याणकारी कार्यों में उसने पर्याप्त रूप से रुचि ली थी।

डफरिन का दृष्टिकोण-

प्रारम्भ में ह्यूम का विचार था कि यह संस्था केवल सामाजिक प्रश्नों पर विचार करने तक सीमित रहे। लेकिन डफरिन से मिलने के बाद उनका विचार बदल गया। डफरिन का विचार था कि संस्था सरकार के विरोधी दल के रूप में कार्य करे। वह यह भी चाहता था कि संस्था राजनीतिक प्रश्नों पर विचार करे और अपनी राय सरकार के समक्ष प्रस्तुत करे, इससे यह संस्था लाभदायक सिद्ध होगी। साथ ही डफरिन ने यह भी कहा कि इन सुझावों के बारे में उसका नाम गुप्त रखा जाये।

भारतीय राष्ट्रीयता के विकास के कारणों की विवेचना कीजिये

स्पष्ट है कि डफरिन के उदार दृष्टिकोण के कारण ही ह्यूम आगे बढ़ने में सफल हुए । 1884 में रिपन के स्थान पर डफरिन वायसराय नियुक्त हुआ था। लेकिन इस परिवर्तन से ब्रिटिश सरकार की नीति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। ब्रिटिश सरकार की इस समय नीति थी कि भारतीयों की तर्कसंगत माँगों को उदारता से स्वीकार किया जाये। यह उदारता ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों से सामंजस्य रखने वाली थी। अगर इस समय लिटन के समय वायसराय होता तो हयूम को अपना विचार त्यागना पड़ता। डफरिन को कनाडा में संवैधानिक गवर्नर जनरल के कार्य का अनुभव था। मिस्र में उसने पूर्वी निरंकुशता का भी अनुभव किया था।

स्नातकों के नाम पत्र-

1 मार्च, 1883 ई. को ह्यूम ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातकों के नाम एक खुला पत्र लिखा। उसमें एक अत्यन्त प्रेरणादायक वाक्य था, “आपके कन्धे पर रखा हुआ जुआ तब तक बना रहेगा, जब तक आप इस ध्रुव सत्य को समझकर उसके अनुसार कार्य करने को तैयार नहीं होंगे कि आत्म बलिदान तथा नि:स्वार्थ कर्म ही स्थायी सुख अथवा स्वतन्त्रता के अचूक पथ-प्रदर्शक हैं। ह्यूम ने ऐसे पचास नवयुवकों का आह्वान किया जो देश के लिये बलिदान कर सकें क्योंकि विखरे हुए व्यक्ति कितने ही बुद्धिमान तथा सद्यतापूर्ण क्यों न हों, शक्तिहीन होते हैं। आवश्यकता है संघ की, संगठन की और कार्यवाही के लिये स्पष्ट कार्य प्राणाली की इस आह्वान से सभी प्रान्तों है में नवयुवक एकत्रित होने लगे। इसके बाद ही ह्यूम ने डफरिन से मुलाकात की और एक राजनीतिक संस्था बनाने का निर्णय लिया। ह्यूम परामर्श करने इंग्लैण्ड भी गये।

काँग्रेस की स्थापना, 1885-

ह्यूम की प्रेरणा से 1884 ई. के अन्त में इण्डियन नेशनल यूनियन नामक संगठन स्थापित हो गया। अप्रैल, 1885 ई. में सभी महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने पूना सम्मेलन में एक राष्ट्रव्यापी संगठन स्थापित करने का घोषणा-पत्र जारी किया किन पूना मैं हैजा फैलने के कारण स्थान बदलकर बम्बई कर दिया गया। 28 दिसम्बर 1885 ई. में अखिल भारतीय काँग्रेस का प्रथम अधिवेशन बम्बई में व्योमेशचन्द्र बनर्जी के सभापतित्व में गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कालेज में हुआ। ह्यूम ने इसमें बंगाल के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। इस अधिवेशन में काँग्रेस के उद्देश्यों को घोषित किया गया, जो इस प्रकार थे-

(1) देश हित में काम करने वालों को संगठित करना।

(2) वंश, धर्म, प्रान्त सम्बन्धी दूषित विचारों को समाप्त करके राष्ट्रीय एकता की भावना का पोषण करना।

(3) महत्वपूर्ण विषयों पर शिक्षित वर्ग द्वारा विचार-विमर्श करना।

(4) उन उपायों का निर्धारण करना, जिससे राजनीतिज्ञ देश हित में कार्य कर सकें। सम्मेलन में 9 प्रस्ताव पारित किये गये, जिनमें विभिन्न सुधारों की माँग की गई थी प्रशासन की जाँच के लिये कमीशन की नियुक्ति, इण्डिया काउन्सिल को तोड़ना, विधान सभाओं में मनोनयन के स्थान पर निर्वाचन सिद्धान्त लागू करना आदि। काँग्रेस ने काउन्सिलों के बारे में एक विस्तृत सुधार योजना प्रस्तुत की आई. सी.एस. की प्रतियोगी परीक्षा को इंग्लैण्ड के साथ भारत में भी कराने की मांग की गई।

ह्यूम की दृष्टि में काँग्रेस का दूसरा लक्ष्य यह था कि भारतीय लोगों को बताया जाय कि वे वैधानिक आन्दोलन से वे सब तर्कसंगत माँगे पूरी कर सकते थे अवैधानिक आन्दोलन भारतीयों के हित में नहीं था। स्पष्ट है कि प्रारम्भिक काँग्रेस ने इन लक्ष्यों को स्वीकार किया।

1885 में स्थापित काँग्रेस सही अर्थों में एक राष्ट्रीय संस्था थी। इसके द्वार सभी धर्मों, जातियों, वर्गों के लिए बिना किसी भेदभाव के खुले हुए थे। वह किसी वर्ग विशेष के हितों के लिए कार्य नहीं करती थी बल्कि वह राष्ट्रीय हितों के लिए कार्य करती थी। वह भारतीयों की प्रतिनिधि संस्था थी। इसके पहले बम्बई अधिवेशन के अध्यक्ष व्योमेश चन्द्र बनर्जी थे, जो भारतीय इसाई थे। दूसरे अधिवेशन के अध्यक्ष दादाभाई नौरोजी पारसी थे तीसरे अधिवेशन के अध्यक्ष बदरुद्दीन तैयबजी थे जो मुस्लिम भारतीय थे। चौथे और पाँचवें अधिवेशनों के अध्यक्ष जार्ज यूल और विलयम वेडरबर्न थे जो अंग्रेज थे। इस प्रकार राष्ट्रीय हितों के लिए काँग्रेस एक राष्ट्रीय संस्था थी। दूसरी ओर यह दुर्भाग्य की बात थी कि सर सैयद अहमद, ऐसे शिक्षित मुस्लिम भारतीय मुसलमानों को काँग्रेस में जाने से रोक कर इस राष्ट्रीय संगठन को हानि पहुँचा रहे थे। यह उल्लेखनीय है कि समय के साथ काँग्रेस के उद्देश्यों में परिवर्तन होता रहा। प्रारम्भ में काँग्रेस क्रमिक सुधारों की माँग करती थी, जो बाद में स्वशासन तथा स्वतन्त्रता में परिवर्तित हो गयी।

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