परमार नरेश वाक्पति मुंजराज’ की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।

परमार नरेश वाक्पति ‘मुंजराज’ (सन् 973 ई-995 ई.)- सन् 973 ई. में सीयक द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र वाक्पति मुंजराज परमार सिंहासन पर बैठा। प्रबन्ध चिन्तामणि के अनुसार सीयक द्वितीय का कोई पुत्र न था। एक बार रास्ते में सीयक द्वितीय को मुंज घास पर पड़ा एक अबोध शिशु दिखायी पड़ा। निःसन्तान सीयक द्वितीय ने उस बालक को उठा लिया और उसे अपना दत्तक पुत्र बना लिया। मुंज नामक घास पर मिलने के कारण उसका नाम ‘मुंजराज’ रखा। कुछ वर्षों के बाद सीयक द्वितीय का अपना पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम सिन्धुराज रखा। सीयक द्वितीय ‘मुंजराज’ से बहुत प्यार करता था और मुंजराज’ को ही अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। शायद इसी कारण उसने अपने जीवन काल में ही मुंज को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।

मुंजराज जब गद्दी पर बैठा, तो चारों ओर से संकट के बादल मंडरा रहे थे। कल्याणी का चालुक्य नरेश तैलप द्वितीय अपने को राष्ट्रकूट का वास्तविक उत्तराधिकारी समझ रहा था। अतः मुंजराज को इससे भी भय था । उत्तर-पूर्व की ओर चन्देल नरेश धंग अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहा था और पश्चिम में गुजरात के चालुक्य वंश का मूलराज प्रथम अपनी शक्ति का विस्तार कर रहा था। ऐसे युग में मुंजराज द्वारा अपने साम्राज्य का विस्तार करना, निश्चय ही भोज की सफलताओं के लिए मार्ग प्रशस्त करना था।

मुंजराज की विजय अथवा उपलब्धियाँ

कलचुरियों से युद्ध

उदयपुर प्रशस्ति से विदित होता है कि मुंजराज ने त्रिपुरी के कलचुरि नरेश युवराज को पराजित किया था। मुंजराज ने यह युद्ध तीन कारणों से किया था।

  1. अपने यश में वृद्धि करने के लिए मुंजराज ने त्रिपुरी के कलचुरि पर आक्रमण किया।
  2. त्रिपुरी का कलचुरि नरेश युवराज अत्यधिक निर्बल था उसकी निर्बलता का लाभ उठाकर उसने युद्ध किया था।
  3. त्रिपुरी के कलचुरि नरेश की बोन्थादेवी तैलप द्वितीय की माता थी और तैलप द्वितीय मुंजराज का घोर शत्रु था इसलिए भी मुंजराज ने युवराज पर आक्रमण किया था। परन्तु बाद में त्रिपुरी के कलचुरि नरेश युवराज ने मुंजराज से सन्धि कर ली और मुंजराज ने उनके विजित प्रदेशों को वापस कर दिया।

गुहिलों से युद्ध-

मुंजराज ने मेवाड़ के गुहिल शासक शक्तिकुमार के ऊपर आक्रमण किया। धवल के बीजापुर अभिलेख से विदित होता है कि पराजित नरेश शक्तिकुमार को राष्ट्रकूट नरेश धवल के यहाँ शरण लेनी पड़ी थी।

नड्डूल के चामानों से युद्ध-

मेवाड़ से मिला हुआ ही नड्डुल (जोधपुर) राज्य था। अतः मुंजाज का ध्यान इस पड़ोसी राज्य पर जाना आवश्यक था। यहाँ का राजा बलिराज था। मुंजराज ने बलिराज पर आक्रमण कर विजयत्री प्राप्त की। कनवेरी अभिलेख से विदित होता है कि उत्पलराज (मुंजराज) के नाम से ही मारवाड़ निवासी भय से काँपने लगते थे। मुंजराज आबू पर्वत तथा किरादु तक के प्रदेशों पर विजयश्री प्राप्त करता हुआ चाहमानों की राजधानी नड्डुल पर पहुँचा। परन्तु नद्दूल में बलिराज के सैनिक वीरता से लड़े और उन्होंने मुंजराज को पराजित कर दिया। सनघा पहाड़ी अभिलेख से विदित होता है कि बलिराज ने मुंजराज को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी।

हूणों से युद्ध

मुंजराज ने हूणों को भी पराजित किया। ये हूण मालवा एवं राजपूताना के अनेक क्षेत्रों में फैले हुए थे। गाओनी अभिलेख से विदित होता है कि हूण क्षेत्र में वणिका ग्राम को मुंजराज ने ब्राह्मणों को दान दिया था। कन्थेरी अभिलेख से भी विदित होता है कि परमार नरेश मुंजराज ने हूणों का दमन किया था।

गुजरात के चालुक्यों से युद्ध-

मुंजराज ने गुजरात के चालुक्य नरेश मूलराज प्रथम पर आक्रमण कर उसे पराजित किया। मूलराज प्रथम को अपनी प्राणरक्षा के लिए सपरिवार मारवाड़ के मरूस्थल में शरण लेनी पड़ी थी।

लाट, चोल एवं केरल से युद्ध-

उदयपुर प्रशस्ति से विदित होता है कि लाट, चर्णाट, चोल एवं केरल नरेश मुंजराज के पदकमल को अपने शिरोरत्नों से सुशोभित करते थे।

लाट प्रदेश, जो ताप्ती एवं माही नदी के बीच में स्थित था, जो तैलप द्वितीय के अधीन कार्य कर रहा था। मुंजराज ने बारप्प को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी।

परन्तु उदयपुर प्रशस्ति में चोल एवं केरल राज्य पर मुंजराज की विजय का जो उल्लेख किया गया। है, उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। ब्यूलर महोदय का कथन सत्य प्रतीत होता है कि मालवा से इतनी दूर चोल एवं केरल प्रदेशों पर मुंजराज की विजय को नहीं स्वीकार किया जा सकता है

कर्नाट के चालुक्यों से युद्ध-

कर्नाट में तैलप द्वितीय का शासन था। मुंजराज ने कर्नाट के चालुक्य नरेश तैलप द्वितीय पर आक्रमण किया। परन्तु इस आक्रमण में इसे सफलता न मिली और वह तैलप द्वितीय द्वारा मारा गया। मेरूत्तुंग ने इस युद्ध का वर्णन अत्यधिक रोचक ढंग से किया है। उसके अनुसार मुंजराज ने तैलप द्वितीय पर छः बार आक्रमण किया और सभी आक्रमणों में तैलप द्वितीय पराजित हुआ। परन्तु वह तैलप द्वितीय का पूर्ण रूप से दमन कर सकने में असमर्थ रहता था। उसने एक शक्तिशाली सेना तैयार कर पुनः तैलप द्वितीय को समूल नष्ट करने की योजना बनायी। मुंजराज के मन्त्री रूद्रादित्य ने जब मुंजराज की योजना सुनी, तो उसने युद्ध करने के लिए मना किया। परन्तु मुंजराज ने अपने मन्त्री की बातों पर कोई ध्यान न दिया। अभी तक उसने तैलप द्वितीय को छः बार पराजित किया था, किन्तु वे युद्ध सीमाओं पर ही हुए। मुंजराज ने अपनी सेना के साथ दक्षिण में प्रवेश किया। जब वह गोदावरी नदी को पार करने लगा तो उसके मंत्री ने पुनः रोका। परन्तु अपने मन्त्री की बात को ध्यान में न रखकर उसने गोदावरी नदी जैसे ही पार किया, तैलप द्वितीय ने उसकी सेनाओं को चारों ओर से घेरकर उसको पराजित किया और मुंजराज कैद कर लिया गया। बन्दीगृह में मुंजराज की देखभाल के लिए तैलप द्वितीय ने अपनी बहन मृणालवती को नियुक्त किया। मुंजराज और मृणालवती में प्रेम हो गया। इधर मालवा में मुंजराज के मन्त्री ने उसे कैद से मुक्त कराने के लिए योजना तैयार की। मुंजराज को कैद मुक्त कराने के लिए सुरंग भी तैयार हो गयी। मुंजराज ने प्रसन्नता के कारण अपनी प्रेमिका मृणालवती को सारी गुप्त योजनाएँ बता दी।

मृणालवती ने इस गुप्त योजनाए बता दी। मृणालवती ने इस गुप्त योजना के विषय में अपने भाई तैलप द्वितीय को बता दिया। तैलप द्वितीय अत्यधिक क्रुद्ध हुआ और उसे बन्दरों की तरह रस्सी में बांधकर दरवाजे दरवाजे भीख मंगवाने के लिए विवश किया और बाद में एक वृक्ष में बांध कर उसकी हत्या कर दी गयी। उसने उसके सिर को अपने भव्य राजप्रासाद के बीचों बीच में रंगवा दिया। तैलप द्वितीय के इस व्यवहार के कारण ही परमार चालुक्य संघर्ष चिरस्थायी बन गया। यह सम्भव है कि मेरुत्तुंग के इस वर्णन में अतिशयोक्ति हो परन्तु इतना निश्चित है कि मुंजराज तैलप द्वितीय द्वारा पराजित हुआ था एवं उसके द्वारा उसकी हत्या हुई थी। कन्थेरी अभिलेख (1006 ई.) से भी इसकी पुष्टि होती है कि तैलप द्वितीय ने मुंजराज को बन्दी बनाकर उसकी हत्या कर दी थी।

तैलप द्वितीय की मृत्यु 997 ई. में हुई थी। अतः 997 ई. के पूर्व ही मुंजराज की मृत्यु हुई होगी। डॉ. डी सीदृ गांगुली का कथन है कि, ‘इस प्रकार उस महान् शासक का दुःखद अन्त हुआ जो एक महान सेनापति और एक महान् कवि ही नहीं था प्रत्युत् कला और साहित्य का महान् संरक्षक भी था ।

मुंजराज का मूल्यांकन-

मुंजराज एक महान शासक था, अपने पिता सीयक द्वितीय से एक छोटा राज्य प्राप्त हुआ था, परन्तु अपने बाहुबल से उसने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी। वह महान् विजेता होने के साथ ही साथ एक कुशल निर्माता भी था। उसने अपनी राजधानी धारा में अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया तथा सागर नामक एक तालाब बनवाया। उसने गुजरात में मुंजपुर नामक नगर भी बसाया था।

वह एक महान् विद्वान् एवं कवि था। सरस्वती देवी कवियों के मित्र मुंज में ही विश्राम करती थी । वह विद्वानों का आश्रयदाता भी था। डॉ. ईश्वरी प्रसाद का कथन है कि, ‘स्वयं एक पूर्ण विद्वान् मुंज ने विद्वानों को प्रोत्साहन दिया और कुछ दूसरे विद्वानों ने उसके उदारतापूर्वक अनुदानों को प्राप्त किया था।’

मुंजराज का राजकवि पद्मगुप्त था, जिसने ‘नवसाहसांकचरित नामक महाकाव्य की रचना की थी। काव्य निर्णय और दारुपालक के रचयिता धनिक एवं पाइयलच्छीमाला और तिलकमंजरी के लेखक धनपाल इसके सभासद थे। मुंजराज अपने कुशल वक्तव्य, उच्च कवित्व, तक्रशास्त्र, शास्त्रों एवं आगमों के ज्ञान के कारण सामन्तों के मध्य सदैव प्रशंसनीय रहता था।

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